आत्मबोध ही है आध्यात्मिक कायाकल्प

January 1999

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मैं कौन हूँ, किसका हूँ? यह प्रश्न ऐसे है जिनको उपेक्षित, बिना हल किया हुआ छोड़ दिया जाय तो वह लापरवाही बहुत महँगी पड़ती है। जीवन का सारा आनन्द ही चला जाता है। आनन्द ही नहीं चला जाता, वरन् इस उलझी हुई गुत्थी में उलझकर मनुष्य ऐसी जिन्दगी जीने के उलझकर मनुष्य ऐसी जिन्दगी जीने के लिए विवश होता है, जिसे नीरस और भारभूत ही कहा जा सके।

अपने आपको शरीर मान लेने से साँसारिक सुख-दुःख, हानि-लाभ मान-अपमान हमें बुरी तरह उद्विग्न, उद्वेलित करते है और हर परिस्थिति, आशंका एवं असंतोष से भरी रहती है। जो कुछ उपार्जन किया था उसका हर्ष रत्ती भर होता है और उसके साथ जुड़ी हुई विषमताओं का चिन्तन पहाड़ भर। जिसमें हर्ष स्वल्प और विषाद अपरिमित हो ऐसी जिन्दगी जीकर कौन अपने आपको सौभाग्यशाली मानेगा?

किंतु अपने संबंध में सही ढंग से सोचने की विधि हाथ लग जाये तो देखते-देखते जादू की तरह असन्तोष और उद्वेग की स्थिति सन्तोष और उल्लास से भर जाती है। आगे और पीछे जो अन्धकार दीख रहा है, उसे प्रकाश में परिणित होते देर नहीं लगती। इसी स्थिति को आत्म-ज्ञान कहते है। इसे एक प्रकार का आन्तरिक काया-कल्प ही कहना चाहिए। सुना है किन्हीं दिव्य विधियों से वृद्ध और जीर्ण शरीर को नवयौवन की स्थिति में बदला जा सकना सम्भव है। उस विधि को कायाकल्प कहें तो शारीरिक काया-कल्प के उदाहरण और प्रयोग इन दिनों प्रत्यक्ष दिखाई नहीं पड़ते, पर आत्मिक कायाकल्प हर किसी के लिए सम्भव है। आज ही, अभी ही वह स्थिति प्राप्त की जा सकती है, जिसके आधार पर गरीबी को अमीरी में, दुर्भाग्य को सौभाग्य में, शत्रुओं को मित्रों में, आशंकाओं को उल्लास में परिवर्तित किया जा सके। इस अन्धकार को प्रकाश में परिणत करने वाली प्रक्रिया को आत्म-बोध कहते है। यह आत्म-बोध कोई दैवी वरदान, जादू या चमत्कार नहीं है, सिर्फ उस मान्यता और श्रद्धा का नाम है जो अपने स्वरूप को सही रूप में समझने का अवसर देती है और इतनी सामर्थ्य प्रदान करती है कि पिछले ढर्रे को बदलकर नये सिरे से वस्तुस्थिति के अनुरूप सोचने और करने की पद्धति को अपनाया, कार्यान्वित किया जा सके।

आत्मबोध, आत्मोत्थान, आत्म-साक्षात्कार-जीवन का सबसे बड़ा लाभ हैं इससे बड़ी उपलब्धि इस मनुष्य के लिए और और कोई दूसरी हो ही नहीं सकती। मैं क्या हूँ? कौन हूँ किस लिये हूँ इस तथ्य को समझ लेने के बाद यह भी अनुभूति होने लगती है कि उपकरण, औजार एवं पदार्थों का उपयोग-उपभोग, संबंध-स्नेह की सीमा कितनी रहनी चाहिए, इस सीमा का स्वरूप और निर्धारण जब भी, जो भी कर लेगा वह दिव्य-जीवन जियेगा, सुख-शान्ति से ओत-प्रोत रहेगा और सर्वत्र धरती के देवताओं की तरह महामानवों की तरह हर किसी के अन्तरंग पर श्रद्धा भरा शासन करेगा।

मैं क्या हूँ? इस प्रश्न का उत्तर -शरीर हूँ, के रूप में ही हमारी अन्तः मान्यता देती है, सो परिवर्तनशील प्रकृति के साथ जुड़ी हुई परिवर्तनीय प्रतिक्रियाएँ देह के साथ भी जुड़ी ही रहेगी। संबंधित प्रथा भी बदलेंगे ही और जिनके साथ स्नेह -सम्बन्ध है उनमें भी भौतिक कारणों से अन्तर आयेगा ही। रात और दिन की तरह प्रिय-अप्रिय द्वन्द्वों का फेर चलता ही रहेगा और उसको क्षण-क्षण में प्रिय-अप्रिय अनुभव होते ही रहेंगे। दृष्टिकोण में निषेधात्मक तत्व अधिक होने से एक और भूल होती रहेगी कि शरीर को संसार द्वारा जो सुख-सुविधाएँ मिल रही है, उन्हें देखना, समझना और मोद मनाना सम्भव न हो सकेगा, इसके विपरीत जो अभाव है वे ही आँखों के आगे खड़े रहेंगे। इस स्थिति में किसी सुसम्पन्न व्यक्ति के लिए भी यह सम्भव नहीं कि वह सुख-शान्ति का अनुभव कर सके।

आमतौर से हर व्यक्ति यही प्रयास करता है कि दूसरे लोग उसे बड़ा, सुखी या सम्पन्न समझें। इसी का ढाँचा खड़ा करने में उसकी सारी शक्ति लगी रहती है। सारे प्रयास इसी परिधि के इर्द-गिर्द घूमते रहते है। वस्त्र, आभूषण, श्रृंगार, ठाट-बाट डिग्री, पद आदि के बड़प्पन प्रदर्शित करने वाले आवरण बड़ी कठिनाई से जमा किये जाते है और उसी संचय में सारा समय, श्रम एवं मनोयोग खप जाता है। दूसरे लोग अपनी ही समस्याओं में उलझे होते हैं, उन्हें किसी की अमीरी, गरीबी का मूल्याँकन करने में क्या रुचि हो सकती है, पर हर व्यक्ति समझता यही है कि सब का सारा ध्यान मेरे ही ऊपर केन्द्रित है और यह मनोवैज्ञानिक भूल मनुष्य को उस निरर्थक क्रिया-कलाप और चिंतन में लगाये रहती है, जिसे तात्त्विक दृष्टि से पूर्णतया निरर्थक कहा जा सके। किसी ने कुछ देर के लिए हमें साधन-सम्पन्न, अमीर, बड़ा आदमी जान या मान भी लिया तो अपना प्रयोजन सधा और क्या उसे लाभ हुआ?

आत्मबोध न होने से मनुष्य की महत्त्वाकाँक्षाएँ, चेष्टाएँ योजनाएँ, गति-विधियाँ एक प्रकार से निरर्थक कामों में लगी रहती है और बहुमूल्य मानव-जीवन रहती है और बहुमूल्य मानव-जीवन ऐसे ही उन विडम्बनाओं में गल जाता है, जो सुख-साधन भौतिक-जीवन में उपलब्ध थे उनको भी गलत दृष्टिकोण के कारण समझा और सराहा नहीं जाता। स्त्री, सन्तान, शरीर, शिक्षा, सहायक, साधन जो कुछ भी मिले हुए है, उनके मूल्य, महत्व को भी यदि समझने की चेष्टा की जाय- इनसे मिलने वाली सहायता-सुविधा का लेखा-जोखा लिया जाय तो भी हर व्यक्ति को अपनी स्थिति बहुत हद तक हर्ष-संतोष से भरी हुई प्रतीत हो सकती है। पर इस दुर्भाग्य को क्या कहा जाय, जिसके अनुसार केवल अभाव और छिद्र ही दिखाई पड़ते है। आंतरिक दुर्बलता, आशंका, अविश्वास, अवरोध, द्वेष -घृणा के रूप में फुफकारती और वातावरण को विषाक्त करती रहती है। सो उन्हीं विडम्बनाओं में उलझा हुआ, विभीषिकाओं में उलझा हुआ, विभीषिकाओं में संत्रस्त, आशंकाओं से उद्विग्न-मनुष्य अन्तर्दाह की आग में हर क्षण जलता हुआ नारकीय जीवन जीता है। यह सब आत्मबोध न होने का ही परिणाम है।

मैं क्या हूँ? इसका उत्तर अपने अब तक के चले आ रहे ढर्रे वाले अभ्यास के अनुरूप नहीं वरन् तत्व-चिन्तन के आधार पर देना चाहिए। दूसरे लोग क्या कहते है- क्या सोचते है और क्या करते है- इससे भी हमें प्रभावित नहीं होना चाहिए। निस्संदेह वातावरण अन्धकार भरा है। प्राचीनकाल में सतयुगी व्यक्तित्व, कर्तृत्व और वातावरण-शुद्ध चिन्तन में सहायता करता था। उससे प्रभावित हर नागरिक को सही दिशा मिलती थी। आज सब कुछ उल्टा है। यदि आज वस्तुस्थिति समझने के लिए लोग क्या कहते हैं और क्या करते है? इसे आधार बनाया जाय तो निश्चित रूप से हमें अवांछनीय निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा और अनुचित रीति-नीति अपनाने के लिए विवश होना पड़ेगा।

आत्म-बोध की पहली सीढ़ी यह है कि लोकचिंतन की अवांछनीयता को समझा जाय और अपनी अब तक की ढर्रे पर लुढ़कती हुई मान्यताओं के औचित्य को अस्वीकार किया जाय। काया-कल्प में पुराना शरीर छोड़ना पड़ता है और नया ग्रहण करना पड़ता है। विवाह होने पर वधू पितृ-गृह छोड़ती है, साथ ही अब तक का स्वभाव-अभ्यास उस नव- विवाहिता को पति के घर में जाकर नये स्वजनों से घनिष्ठता बढ़ानी पड़ती है और ससुराल की विधि-व्यवस्था में अपने को ढालना होता है। ठीक ऐसा ही परिवर्तन आन्तरिक काया-कल्प के अवसर पर करना पड़ता है। आत्मबोध एक प्रकार को वरण करना है। इसके लिए क्रान्तिकारी कदम उठा सकने वाले साहस की जरूरत पड़ती है। ढर्रे में राई-रत्ती अन्तर करने से काम नहीं चलता। यह पढ़ने और सुनने की नहीं सर्वतोमुखी परिवर्तन की प्रक्रिया है। एक लोक को छोड़कर दूसरे लोक में जाने, एक शरीर त्याग कर दूसरे शरीर में प्रवेश करने जैसी इस प्रक्रिया को जो कोई सम्पन्न कर सके, उसे ही आत्मज्ञानी कहा जाएगा। आत्म-बोध और आत्म-साक्षात्कार इसी स्थिति का नाम है। ब्रह्मं-सम्बन्ध आत्म-दर्शन दीक्षा-लाभ, चक्षु-उन्मीलन दिव्य-जागरण इसी को कहते है। यह छलाँग जो लगा सके उसे इस दुस्साहस का परिणाम दूसरे परिलक्षित होगा। अपने को तत्काल नरक में से निकलकर स्वर्ग में अवस्थित अनुभव करेगा। मैं क्या हूँ? इस प्रश्न का समाधान, इतना बड़ा लाभ है कि उस पर समस्त संसार की समग्र सम्पदाओं को निछावर किया जा सकता है।

व्यक्ति जब अपने को ईश्वर का परम-पवित्र अविनाशी अंश समझता है, आत्मा के रूप में अनुभव करता है और शरीर को एक उपकरण भर स्वीकार करता है, तो उसे अपनी पिछली मान्यताओं, आकांक्षाओं, योजनाओं और गतिविधियों में आमूल-चूल परिवर्तन करने की आवश्यकता अनुभव होती है। संबंधित वस्तुएँ संग्रह करके निरर्थक मोह बढ़ाने के लिए नहीं, वरन् सदुपयोग भर के लिए अपने पास एकत्रित हुई है, यह निष्ठा जब जमती है तो फिर लोभ और मोह में परले सिरे की मूर्खता ही दिखाई देती है। सम्पदा प्रकृति का ही एक रूप है। यह अनादिकाल से चली आ रही है और अनन्तकाल तक चली जाएगी। जो सोना अपने पास आज है, वह सृष्टि के जन्मकाल से ही इस संसार में विद्यमान था। उस पर लाखों व्यक्ति कुछ-कुछ देर के लिए अपना अधिकार बनाते चले आ रहे है। प्रलयकाल तक वह सोना बना रहेगा और उस पर करोड़ों व्यक्ति अपना अधिकार जमाते चले जाएँगे। जमीन, जायदाद, वस्तुएँ आदि सृष्टि के साथ जन्मीं और उसके रहने तक इस दुनिया में बनी रहेंगी, कुछ समय के लिए वे अपने साथ संयोगवश जुड़ गई तो उन्हें अपनी मान बैठना, उनके रहने तक इस दुनिया में बनी रहेंगी, कुछ समय के लिए वे अपने साथ संयोगवश जुड़ गई तो उन्हें अपनी मान बैठना, उनके संग्रह का लोभ करना कैसे उचित ठहराया जा सकता है? पदार्थों का मोह जिस शरीर के साथ जुड़ा हुआ है, वह शरीर ही कल-परसों जाने की तैयारी में बैठा है फिर पदार्थों का सम्पदा-साधनों का लोभ किसलिए?

उपलब्ध सम्पत्ति का सदुपयोग ही सब से बड़ी बुद्धिमत्ता है, उसकी जमाखोरी में कोई समझदारी नहीं। उपार्जन को श्रेष्ठ प्रयोजनों में लगाना चाहिए। बेटे-पोतों के लिए उत्तराधिकार का ताना-बाना बुनना सदुपयोग नहीं है। अपने साथ मोह-बन्धनों में बँधे हुए चन्द व्यक्तियों को अपने श्रम का सार-उपार्जन सौंप दिया जाय और वे उस हराम की कमाई पर गुलछर्रे उड़ाए, इस विडम्बना में क्या औचित्य है? श्रम-उपार्जन खाकर ही कोई व्यक्ति उसका लाभ लेता है, हराम की कमाई तो हर किसी को गलाती है। आत्मवादी की सुनिश्चित मान्यता यही हो सकती है। जिसकी समझ में यह तथ्य आ गया उसे नये सिरे से अपनी सम्पत्ति के बारे में चिंतन करना पड़ेगा और आश्रित, असमर्थ परिजनों की उचित व्यवस्था के अतिरिक्त जो कुछ उसके पास बच जाता है, उसे लोक-मंगल के लिए नियोजित करने का ही निर्णय करना पड़ता है। आत्म-बोध के साथ यदि इस स्तर का दुस्साहस जुड़ा हुआ न होता उसे बकवादी का बाल-विनोद ही कहा जाएगा। असंख्यों व्यक्ति, स्वाध्याय -सत्संग के नाम पर धर्म और अध्यात्म की लम्बी-चौड़ी बकवास करते और सुनते रहते है, जो चिन्तन-जीवन को प्रभावित न कर सके उसे मनोविनोद के अतिरिक्त और क्या कहा-समझा जा सकता है।

परिवार के रूप में जुड़े हुए कुछ व्यक्ति ही अपने है? अपना प्यार उन्हीं तक सीमित रहना चाहिए, उन्हीं तक अपनी सारी महत्त्वाकाँक्षाएँ सीमित कर लेनी चाहिए-यह रीति-नीति उससे बन ही नहीं पड़ेगी, जो अपने को आत्मा मानेगा। आत्म-ज्ञान का प्रकाश आते ही दृष्टिकोण में उस विशालता का समावेश होता है जिसके अनुसार वसुधैव कुटुम्बकम् मानने से कम में किसी भी प्रकार संतोष नहीं हो सकता।

भगवान के उद्यान के रूप में संबंधित परिवार को कर्तव्यनिष्ठ माली की तरह सींचना-सँजोना बिलकुल अलग बात है और बेटे-पोतों के लिए मरते-खपते रहना अलग बात, बाहर से देखने में यह अन्तर भले ही दिखाई न पड़े, पर दृष्टिकोण की कसौटी पर रखने पर जमीन-आसमान जितना अन्तर मिलेगा। मोहग्रस्त मनुष्य अपने कुटुम्बियों की सुविधा-सम्पदा बढ़ाने और इच्छा पूरी करने की धुन में उचित -अनुचित, आवश्यक-अनावश्यक का भेद भूल जाता है और घरवालों की इच्छा तथा खुशी के लिए वह व्यवस्था भी जुटाता है, जो न आवश्यक है न उपयुक्त। मोह-ग्रस्त के पास विवेक रह ही नहीं सकता।

परिष्कृत दृष्टि से कुटुम्बियों को समुन्नत, सुसंस्कारी, सुविकसित बनाने के कर्तव्य को ही ध्यान में रखकर पारिवारिक विधि-व्यवस्था निर्धारित की जाती है। उसने यह नहीं सोचा कि कौन राजी रहा, कौन नाराज हुआ। चतुर माली अपनी दृष्टि से पौधों को काटता-छाँटता निराता- गोड़ता है, पौधों की मर्जी से नहीं। विवेकवान गृहपति केवल एक ही दृष्टि रखता है कि परिवार को सुसंस्कारी और सुविकसित बनाने के लिए जो कठोर कर्तव्य पालने चाहिए, उनका पालन अपनी ओर से किया जा रहा है या नहीं। परिजनों की इच्छाओं का नहीं, उनके हितसाधन का ही उसे ध्यान रहता है। आत्म-बोध के साथ परिवार के प्रति इसी दृष्टिकोण के अनुरूप आवश्यक हेर-फेर करना पड़ता है तभी वह मोह छोड़ता है और प्यार करता हैं प्यार के आधार पर की गई परिवार सेवा उसके स्वयं के लिए और समस्त परिवार के लिए परम-मंगलमय सिद्ध होती है।

अपने शरीर के बारे में भी आत्म-बोध के प्रकाश में नई रीति-नीति ही अपनानी पड़ती है, आत्मा की भूख मात्र मानना पड़ता है, आत्मा की भूख के लिए शरीर से काम लेने और शरीर की लिप्सा के लिए आत्मा को पतन के गर्त में डालने की दृष्टि में जमीन-आसमान जितना अन्तर है। शरीर और मन को मैं मान बैठने पर इन्द्रियों की वासनाएँ और मन की तृष्णायें ही जीवनोद्देश्य बन जाती है और उन्हीं की पूर्ति में निरन्तर लगा रहना पड़ता है। पर जब वह मान्यता हट जाती है अपने को आत्मा स्वीकार कर लिया जाता है, तो मन को बलात् उस चिन्तन में नियोजित किया जाता है, जिससे आत्म-कल्याण हो और अपने को आत्मा स्वीकार कर लिया जाता है, तो मन की बलात् उस चिन्तन में नियोजित किया जाता है, जिससे आत्म-कल्याण हो और शरीर से वह कार्य कराये जाते है, जो आत्मा का गौरव बढ़ाते हों, उसका भविष्य उज्ज्वल बनाते हैं।

आत्म-बोध एक श्रद्धा है। आत्म-साक्षात्कार एक दर्शन है, जिसे यदि सच्चाई के साथ हृदयंगम किया जाय तो दृष्टिकोण ही नहीं बदलता वरन् क्रिया-कलाप भी बदल जाता है। इस परिवर्तन को ही आत्मिक कायाकल्प कहते है। यह जिस क्षण भी सम्भव हो जाय उसी दिन अपने में भारी शान्ति, संतोष, उल्लास और उत्साह दृष्टिगोचर होता है और लगता है मानो नरक से निकलकर स्वर्ग में आ गये।


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