योग साधना का ज्ञान-विज्ञान

January 1999

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बर्र एक छोटा-सा जीव लगता है, बड़ी मधुमक्खी का भी शरीर पौन इंच से बड़ा नहीं होता, पर कभी छेड़ दिया जाए तो इनकी भयंकरता देखते ही बनती है। इसी प्रकार मनुष्य की चित-वृत्तियाँ जिनका सामान्य अवस्था में न तो कोई स्वत्व दिखाई देता है, न मूल्य न महत्व, पर जब इन्हीं को कुचला और नियन्त्रण में रखने का अभ्यास किया जाता है, तब इनकी भयंकरता देखते ही बनती है। राक्षसी सुरसा की तरह अनेक रूप बनाने में पटु यह चित्तवृत्तियाँ मनुष्य को लुभाती ही नहीं, डराती और धमकाती भी है। निर्बल मन और अस्थिर बुद्धि के व्यक्ति उनकी एक ही झपेट में ठण्डे होकर योगाभ्यास छोड़ बैठते है और इस तरह आत्मानुभूति की इच्छा मन की मन में में ही रह जाती है।

अर्जुन जैसे महारथी को भी यही कहना पड़ा था-

चंचल हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्। तस्यां निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥

हे भगवान्! यह मन बड़ा चंचल है, मस्तिष्क को मथ डालता है। यह बहुत दृढ़, शक्तिशाली है, इसीलिए इसको वश में करना बहुत कठिन है। किन्तु योगाचार्यों का मत है कि यह कठिनाइयाँ कुछ ही दिन की होती है। यदि अभ्यास बन्द न किया जाये तो यही मन एक दिन सर्वोत्तम समीपस्थ मित्र की भाँति अनुकूल आचरण करने वाला हो जाता है। भगवान कृष्ण ने अर्जुन की बात स्वीकार करते हुए कहा था-निःसन्देह अर्जुन! मन बड़ा चंचल है, पर निरंतर अभ्यास से वह भी वश में आ जाता है। योग एक लंबी अवधि का अभ्यास है। जो देर तक उसमें स्थिर रह सकता है, वहीं अंतिम सिद्धि तक पहुँच सकता है, यह पहले ही मन में बिठा लेने की बात है।

चित्तवृत्तियों के निरोध के दो उपाय है-पहला मनोवैज्ञानिक, दूसरा वैज्ञानिक। प्रथम प्रकार के सभी उपाय मानसिक है, उनमें अपने मन को ही इस बात के लिये राजी किया जाता है कि वह अपने आप संसार की क्षण-भंगुरता अनुभव करे और इस बात की जिज्ञासा जाग्रत करे कि हम वस्तुतः है क्या, मनुष्य शरीर में हम किस तरह फँसे पड़े है, किस तरह उससे मुक्ति और पूर्ण आनन्द, जिसके लिये हमारी चाह अनवरत है, प्राप्त हो सकती है।

योगदर्शन पाद 1, सूत्र 12 में बताया है- “अभ्यासवैराग्याभ्यान्तन्निरोधः।” अर्थात् निरन्तर वैराग्य का अभ्यास करने से मन की पार्थिव वृत्ति बदल जाती है। इसी बात को भगवान कृष्ण ने “अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।” निरन्तर वैराग्य का अभ्यास करने से मन की वृत्तियाँ धीरे-धीरे वश में आने लगती है।

दूसरा उपाय है- “ईश्वर प्रणि धानाद्वा” (योग 1/23) अर्थात् अपने आपको परमात्मा में मिलाने का अभ्यास करने से मन की प्रवृत्तियाँ ऊर्ध्वगामी होने लगती है।

यहाँ दी जा रही साधनावधि का प्रतिदिन थोड़ी देर तक अभ्यास करने से अपना वैराग्य और ईश्वरप्राप्ति का भाव दृढ़ होता है, यह अभ्यास कोई भी अपनी सुविधानुसार कर सकता है। जानकारी के लिये दो अभ्यास नीचे दिये जा रहे है।

किसी समतल और एकांत स्थान में कोई वस्त्र बिछाकर सीधे चित लेट जाइए, दोनों पाँव सीधे और मिलाकर रखने चाहिए, दोनों हाथ छाती के ऊपर रखिये, अब शरीर को पूर्ण निश्चेष्ट करके बिलकुल शिथिल छोड़ दीजिये। ऐसा जान पड़े जैसे प्राण, शरीर से निकलकर प्रकाश के एक गोले की तरह हवा में स्थिर हो गया है ओर शरीर मृत अवस्था में बेकार पड़ा है, अब एक-एक अंग की ओर ध्यान दीजिए-कल तक यही आँखें अच्छी-अच्छी वस्तुएँ देखने का हठ करती थीं, अब क्यों नहीं देखतीं और यह मुख जो बढ़िया-बढ़िया खाने को माँगता था-कैसा बेकार पड़ा है।

नाक,आँख, मुख, कण्ठ, छाती, हाथ-पैर आदि घृणित अंगों को बार-बार देखिये, जिनमें कफ़, थूक, मल-मूत्र के अतिरिक्त कुछ भी तो नहीं रह गया है। यथार्थ वस्तु जो कि आत्मचेतना थी, वह तो अभी भी मेरे ही साथ है, क्या मैंने इस शरीर के लिये ही अपने इस प्रकाश शरीर को, आत्मा को भुला दिया था? अब तक इसी शरीर के लिये जो पाप कर रहा था, वह क्या उचित था? ऐसे ही प्रश्न उठाने चाहिए, जिससे साँसारिक भाव नष्ट हो और मन यह मानने को विवश हो कि हम अब तक भूल में थे- “मनुष्य का यथार्थ जीवन-शरीर नहीं आत्मा है।”

किसी शान्त,एकान्त स्थान में कुश आदि कोई पवित्र आसन बिछाकर बैठिए। आसन समतल स्थान पर होना चाहिए। शरीर, सिर एवं ग्रीवा का सीधा रखकर अधखुले नेत्रों से नासिका के अगले भाग को देखे। दृष्टि और मन को दूसरी ओर नहीं जाने देना चाहिए। यदि जाता है तो उसे बार-बार अपने मूल अभ्यास को याद दिलाकर एकाग्र करना चाहिए।

जब मन शान्त हो तब ऐसा ध्यान करें कि मैं प्रकाश के एक कण, तारा या जुगनू की तरह हूँ और नीले आकाश में घूम रहा हूँ। सूर्य की तरह का उससे भी हजारों गुना बड़ा और तेज चमक वाला एक प्रकाश पिण्ड आकाश में दिखाई दे रहा है, उसी की किरणें फूटकर निखिल ब्रह्माण्ड में व्याप्त हो रही है। हजारों सूर्य उसके आस-पास चक्कर काट रहे है। मैं जो अभी तक एक लघु प्रकाश कण के रूप में अशक्त, अज्ञानग्रस्त और सीमाबद्ध पड़ा था, अब धीरे-धीरे उस परम प्रकाश पुँज में हवन हो रहा हम, अब मैं। रह ही नहीं गया। या तो करोड़ों कोस के विस्तार वाला गहरा नीला आकाश है या फिर वहीं दिव्य प्रकाश, जिसमें घुलकर मैं अपने आपको सर्वव्यापी, सर्वदर्शी सर्वज्ञ और सर्वसमर्थ अनुभव कर रहा हूँ।

ये दो अभ्यास वैराग्य और ईश्वरप्राप्ति की कामना को बढ़ाने में बहुत सहायक हो सकते है। अपनी सुविधानुसार कोई भी स्त्री-पुरुष इन साधनाओं का अभ्यास कर सकता है।

उपर्युक्त दो अभ्यास महत्वपूर्ण है, इनसे मनोनिग्रह में सहायता मिल सकती है, पर इतने से ही वश में आ जाय यह कोई आवश्यक नहीं। हम आज जिस स्थिति में है, वह कई जन्मों का विकसित रूप है, मनुष्य के पूर्वजन्मों के पाप और वासनाओं के संस्कार जो मन में कई पर्तों में जमे होते है, वे बार-बार उन्हीं वासनाओं की ओर घसीटते है, इसलिये साधक की वृत्तियाँ कभी भी उद्दीप्त हो उठती है। उसके लिये वैज्ञानिक विधियाँ काम में लाई जाती है। शरीर और मन की अन्तरंग सफाई यौगिक क्रियाओं से की जाती है, तब निर्मलता आती है, इसलिये आत्म-निर्मलता आती है, इसलिये आत्मसाक्षात्कार की इच्छा रखने वाले किसी भी साधक के लिये यह आवश्यक हो जाता है कि वह अष्टांग योग का अभ्यास करता हुआ, आत्मा का विकास परमात्मा की ओर करे। ये आठ अंग क्रमशः (1) यम, (2) नियम (3) आसन (4) प्राणायाम (5) प्रत्याहार (6) धारण (7) ध्यान और (8) समाधि है। इनका अभ्यास करने से कठिन मलिनता भी नष्ट हो जाती है और निर्मल ज्ञान- प्रकाश एवं विवेक-बुद्धि की वृद्धि होती है। योगियों के पास दिखाई देने वाली कई सिद्धियाँ और चमत्कार जैसी दीखने वाली अनुभूतियाँ भी इन्हीं आठ अंगों में उत्तरोत्तर अभ्यास और विकास द्वारा उपलब्ध होती है, पर उनका कुल लाभ आत्मा या ईश्वर की प्राप्ति ही है, इसलिये किसी को भी चमत्कार और सिद्धियों की ओर मन न लगाकर केवल आत्म-कल्याण का ही विचार करना चाहिए।

इन आठ अंगों की संक्षिप्त जानकारी योग-साधक के लिये आवश्यक है। (1) यम कहते है-असत्य को मारना। हमारे जीवन में झूठ-फरेब अनायास आदि का समावेश सत्य के प्रति अनास्था का फल है। असत्यशील व्यक्ति ही परमार्थ से गिरते हैं, इसलिये ऐसे क्षणों में अपने आपको दबाकर-बचाकर रखना यम कहलाता है। उसके लिये प्रारम्भिक अभ्यास किसी एक व्रत से करना चाहिए, उदाहरण के लिए, अधिक न बोलना, झूठ न बोलना, किये हुए उपकार की न भूलना, किसी से ईर्ष्या न करना आदि ऐसा कोई एक संकल्प लें, जब उसका अच्छी प्रकार अभ्यास हो जाय, तब दूसरा, इस तरह करते हुए, सभी असत्य आचरण छोड़ने से यम सिद्धि होती है।

नियम उसका पूरक अंग है, अर्थात् बुराई के परित्याग के साथ अच्छाई या किसी सत्य का अनुशीलन नियम कहलाता है। उससे बुरे संस्कारों के स्थान पर श्रेष्ठ सद्गुणों की प्रतिष्ठा होती है।

आसन-देर तक निश्चल होकर बैठने को आसन कहते है, पर ऐसा तभी हो सकता है, जब शरीर का प्रत्येक अंग स्वस्थ हो। स्वास्थ्य के लिये जितने भी उपाय डॉक्टरों, वैद्यों और वैज्ञानिकों ने खोजे है, वह सब बाह्य है और अपूर्ण जानकारी वाले है। योगाचार्यों ने देखा कि शरीर में ही भगवान ने वह सब शक्तियाँ और सामग्रियाँ पहले से ही रखी है, जिनका यथोचित उपयोग करके कोई भी व्यक्ति पूर्णतया स्वस्थ व निरोग रह सकता है। आसन उन स्थानों को जो शरीर के मर्म और विशेष महत्व के है, खोलने और लाभ लेने की वैज्ञानिक विधा है। 84 प्रकार के आसन शरीर को सुगठित और शक्तिशाली ही नहीं, शुद्ध और रोगमुक्त भी करते है। जिनके अभ्यास से रोगी व्यक्ति भी औषधोपचार की भाँति स्वास्थ्य लाभ कर सकते है।

प्राणायाम का सम्बन्ध केवल श्वास खींचने, रोकने और श्वास छोड़ने भर से नहीं है वरन् शरीर की सम्पूर्ण चेष्टाओं का नियन्त्रण भी प्राणायाम से ही होता है। छींक, जम्हाई, अँगड़ाई, आँखों का मिचकना, थूक का बार-बार निगलना, लघुशंका ऐसी क्रियाएँ शरीर में स्वतः उत्पन्न होती है। ये न तो मनुष्य का इच्छा से ही होती है और न ही सामान्य मनुष्य इन पर नियन्त्रण रख सकता है। ये शरीर के विभिन्न प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान आदि वायु के गुण-धर्म हैं, उनकी जानकारी होने और नियन्त्रण करने का सारा विज्ञान प्राणायाम कहलाता है। जीवित अवस्था में ही सूक्ष्म शरीर से बाहर निकल आना, दूरगमन, दूरानुभूति, परकाया प्रवेश आदि सब प्राणायाम के ही चमत्कार हैं, पर यह सब पीछे की बातें है। प्रारम्भ में इसका उपयोग मनोनिग्रह के लिये है, उससे मन की निर्मलता बढ़ती है, जिससे मन अपने आप शाँत और प्रफुल्ल बनने लगता है।

मन को बाह्य विषयों से रोकने के लिये प्रत्याहार करना पड़ता है। मन वस्तुतः और कुछ नहीं, अन्न का ही सूक्ष्म संस्कार है। अन्न ही रस-रक्त माँस-मज्जा अस्थि-वीर्य आदि बनता हुआ, मन, बुद्धि, चित, अहंकार आदि सूक्ष्म शक्तियों, अन्तः करण चतुष्टय के रूप में परिलक्षित होता है। यदि हम अपना आहार शुद्ध कर लें तो यह स्वाभाविक है कि अपना अन्तः करण चतुष्टय भी शुद्ध हो जाये। खारी गन्ने का गुड़ खारी बनता है, उसी प्रकार दूषित ही होगा। मन को शुद्ध और पवित्र ही होगा। मन को शुद्ध और पवित्र ही होगा। मन को शुद्ध और पवित्र रखने के लिये शुद्ध आहार आवश्यक है, यह सारी जानकारी प्रत्याहार के अंतर्गत आती है।

धारण कहते है, मन को किसी एक स्थान या देश में स्थिर करने को। प्रकाश के बारे में कहा जाता है कि उसका एक कण एक सेकेण्ड में 186000 मील चलता है, किन्तु मन की गति के बारे में वैज्ञानिक आज तक हजार कोशिशों के बावजूद भी नहीं जान पाये। मन के चलने की कक्षा का भी पता नहीं चल पाया। पर वह एक अति समर्थ शक्ति, यह सभी जान गये है। उससे कोई लाभ इसीलिये नहीं ले पाते, क्योंकि वह बहुत अधिक चंचल है, स्थिर रहना उसका स्वभाव नहीं। धारणा रोककर विश्लेषण कराना उसी तरह सिखाते है, जैसे मदारी बन्दर को, सरकस वाला शेर को। धारण से मन को एक स्थान पर रोकने का अभ्यास करते है।

ध्यान भी धारण की ही स्थिति है, पर उसमें इन्द्रियों की चेष्टाएँ चाहे वह सूक्ष्म ही क्यों न हो, समाप्त हो जाती है, इसलिये मन औरों के मन की, पदार्थों की, दूसरे किसी की भी हो रही बात-चीत आदि की जानकारी हजारों मील दूर बैठा होने पर भी ले लेने में समर्थ होने लगता है। दूरश्रवण, दूरदर्शन, भविष्यज्ञान आदि ध्यान की ही सिद्धियाँ है।

और इस तरह जब ध्यान पूर्णतया निश्चेष्ट होकर केवल मात्र अतीन्द्रिय सुख में ही स्थिर हो जाय वह अवस्था समाधि कहलाती है। इसके लिये कोई अभ्यास नहीं करना पड़ता। उपर्युक्त सातों अवस्थाओं से पकी हुई स्थिति ही समाधि है, इस अवस्था में पहुँचा हुआ योगी अपने शरीर में ही विराट ब्रह्म के दर्शन करता है। ‘सदासार स्तोत्र’ में जगद्गुरु शंकराचार्य ने उसी का वर्णन करते हुए लिखा है-

देहों देवालयों प्रोक्तो देही देवो निरंजन। अर्चितं सर्वभावेन स्वानुभूत्या विराजते॥

अर्थात् उचित प्रकार से योगाभ्यास और परमार्थ करने से इसी शरीर में ही निरंजन परमात्मा के दर्शन होते है।

यह योग संसार में हर किसी के लिये सुलभ हैं। ऊँच-नीच, स्त्री-पुरुष जाति-पाँति का कोई भेद नहीं-

ब्राह्मण क्षत्रिय विशाँ शूद्राणाँ च पावनम्, शाँतये कर्मणामन्य द्योगान्नस्ति विभुक्तये।

युवा वृद्धोऽतिवृद्धो वा व्याधिष्ठो दुर्बलोऽपिवा, अभ्यासात्सिद्धिमापनोति सर्व योगेष्वतंद्रितः-हठयोग प्रदीपिका

अर्थात्-ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र व स्त्री योग का अधिकार सब को है। युवक हो या वृद्ध और जिनका शरीर बहुत ही जीर्ण हो गया हो, जो बीमार, रोगी तथा इन्द्रियों की दुर्बलता से ग्रस्त हैं,वे भी योग का अभ्यास कर सकते है। यह सभी को सिद्धि, शाँति और मुक्ति देने वाला मार्ग है। इससे बड़ा अन्य कोई साधन आत्मिक प्रसन्नता की प्राप्ति के लिये संसार में है नहीं।


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