एक भैंस थी- बड़ी उपद्रवी। रस्सा तुड़ाकर भाग जाती थी और जिस खेत में घुस जाती उसी को कुचल कर रख देती। पकड़ने वालों की भी वह अच्छी खबर लेती। एक दिन तो वह ऐसी हो गयी कि किसी की पकड़ में नहीं आ रही थी।
हैरान लोगों के बीच से एक साहसी लड़का निकला। सिर पर उसने हरी घास का गट्ठर रख लिया और उपद्रवी भैंस की तरह सहज स्वभाव से आगे चलता चला गया। ललचाई भैंस घास खाने के लिए आगे बढ़ी। लड़के ने उसके आगे गट्ठा डाल दिया और मौका मिलते ही उछलकर उसकी पीठ पर जा बैठा। डंडे से पीटते हुए वह उसे बाड़े में ले आया।
लोगों ने जाना कि आवेश भरे प्रतिरोध से भी बढ़कर उपद्रवी तत्वों को काबू में लाने के लिए कई बार दूरदर्शी नीतिमत्ता अधिक कार्य करती है।
कीनाराम के गुरु थे कालूराम। कीनाराम बनारस में गंगातट पर जप–साधना कर रहे थे। वहीं कालूराम से मुलाकात हुई। साधनाक्षेत्र में बड़ी उच्चस्थिति में उनने कालूराम को पाया। भाँति-भाँति की परीक्षाएँ ली। फिर दीक्षा दी एवं सभी सिद्धियाँ उन्हें दे दीं। कीनाराम के पास पहले से भी काफी सिद्धियाँ थी। उस जखीरे को उनने पहले खाली किया। उनका मत था कि पूर्व सिद्धियों का अहं छोड़कर वे प्रगति कर सकते थे। यही हुआ। दोहा प्रसिद्ध है-
कीना कीना सब कहें कालू कहे न कोय। कालू कीना एक भये राम करे सो होय॥
एक दिन कीनाराम ने देखा एक मजदूर के बेटे को जमींदार के जमींदार के कारिदें उठाकर ले जा रहे है। उनने टोका। पता लगा कि लगान नहीं दे पा रहे थे। जमींदार के पास जाकर उनने कहा कि इसे छोड़ो। जमींदार ने कहा कि लगान आप दे दें। जहाँ वे खड़े थे- वहीं से उनने जमींदार से खोदने के लिए कहा। सारा धन जितना जरूरी था, वहीं से मिल गया। लड़का मुक्त हो गया। माता-पिता ने उसे कीनाराम को भेंट कर दिया। यही उनका पहला शिष्य था-नाम था बीजाराम।