भारत जगद्गुरु पुनः इसी आधार पर बन सकेगा

January 1999

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प्राचीन भारत की सर्वतोमुखी प्रगति का विवरण-परिचय जब पढ़ते-सुनते है, तब इस बात का आश्चर्य होता है कि उन दिनों जबकि साधनों का भारी अभाव था, किस आधार पर लोग इतने आगे बढ़ सके होंगे-ऊँचे उठ सके होंगे। उन दिनों मशीनों का आविष्कार नहीं हुआ था। बिजली, भाप जैसे शक्ति स्रोत भी हाथ में नहीं आये थे। यात्रा के लिए न सड़कें थीं, न पुल, न आज जैसे वाहन। शिक्षा संस्थाएँ भी गाँव-गाँव कहाँ थीं? प्रेस न होने से हस्तलिखित पुस्तकें जिस-तिस के पास टेलीफोन, रेडियो जैसी सुविधा का अभाव था। नहरें, बाँधे, विद्युत, कूप जैसे सिंचाई के साधन भी नहीं थे। सुरक्षा के लिए भुजबल पर ही निर्भर रहना पड़ता था। तीर, तलवार जैसे वे ही अस्त्र-शस्त्र थे, जिन्हें कोई बलिष्ठ व्यक्ति ही उठा, चला सकता था। बन्दूक, तोप, बम, मशीनगन, डायनामाइट मिसाइलें जैसी तकनीकी सैन्य-सज्जा भी उन दिनों कहाँ थी? साधनों की दृष्टि से निस्सन्देह पुरातनकाल बहुत पिछड़ा हुआ था फिर भी प्रगति का इतना उच्चस्तर जिसे देखकर दाँतों तले उँगली दबानी पड़ती है, किसी रहस्यमय आधार पर ही सम्भव हुआ होगा।

उन दिनों अपना देश स्वर्ण-सम्पदाओं का स्वामी था। कोलम्बस इस सोने की चिड़िया को तलाश करने निकला था। यहाँ पहुँचने का सीधा, सरल रास्ता तलाश कर रहा था, पर वह जा पहुँचा अमेरिका। योरोपीय जातियाँ भारत से जो पाना चाहती थीं, वह उन्हें अमेरिका महाद्वीप से मिल गया। इससे पहले का इतिहास बताता है कि यहाँ के निवासियों ने विश्व के कोने-कोने तक जाकर कृषि, उद्योग, शिल्प, चिकित्सा, शिक्षा आदि के वे आधार सिखाये, जिनके आधार पर अर्थ -उपार्जन एवं सुविधा-साधनों का अभिवर्द्धन सम्भव हो सके। साथ ही न्याय, शासन, सामाजिकता, धर्म आदि की उन पद्धतियों का ज्ञान कराया, जिनके सहारे सुख-शान्ति के साथ जिया जा सके। शासन-सूत्र के संचालन का बोध समस्त संसार को कराने के कारण भारत चक्रवर्ती कहलाया। उसके कारण विश्व में सम्पन्नता का उदय हुआ, इसलिए वह स्वर्ण सम्पदाओं का अधिपति माना गया। ज्ञान-विज्ञान की अनेकानेक धाराओं से सुदूर देशों को अवगत कराने के कारण उसे जगद्गुरु का श्रद्धासिक्त सम्मान दिया गया। अपनी अगणित दिव्य विशेषताओं के कारण भारतवासी समस्त संसार में देव कहलाते थे। बृहत्तर भारत की जन-गणना 33 कोटि थी। भारत-भूमि को देवभूमि कहा जाता था। वह प्रत्येक दृष्टि से ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ थी। उसमें रहने वालों को पृथ्वी के देवता कहा जाता था। 33 कोटि भूसुरों की निवास-स्थली ‘भारतमाता’ मानव जाति के लिए परमपावनी तीर्थभूमि थी। इस धरती का दर्शन करने जो आ पाते थे, वे अपने को धन्य मानते थे।

आज के अनेकानेक सुविधा-साधनों के करतलगत होते हुए भी मनुष्य का वैयक्तिक और सामूहिक जीवन दिन-दिन जटिल और विपन्न होता चला जाता है। जबकि प्राचीनकाल में नगण्य साधनों से इस देश के निवासी न केवल स्वयं सुख-शान्ति से रहते थे-समुन्नत स्तर तक जा पहुँचे थे, वरन् विश्व के कोने-कोने में जाकर प्रगति और समृद्धि की हरीतिमा उगाते थे। इसका कारण क्या हो सकता है? इस गम्भीरता पूर्वक विचार करने से एक ही बात उभर कर आती है कि उन दिनों मानवी व्यक्तित्व को ऐसे जीवन-यन्त्र के रूप में विकसित किया गया था, जिसमें आदर्शवादिता और परमार्थ-परायणता कूट-कूटकर भरी हुई थी। उसे भावना-शील बनाया गया था। साहस और पराक्रम उनमें हिलोरें लेता था। निकृष्टता और क्षुद्रता से उसे घोर घृणा थी। इस प्रकार के व्यक्तित्व असाधारण रूप से शक्तिशाली होते है। महामानवों की सामर्थ्य की तुलना विशालकाय ओर प्रचंड शक्तिशाली यंत्रों से भी नहीं क जा सकती। वे सोने के पर्वत से भी अधिक मूल्यवान होते है। वे जिधर भी बढ़ते हैं-तूफान उठाते है। वे जहाँ भी पैर रखते है- उसे पूरा करते रहते है। मनस्वी और तपस्वी मनुष्य से बढ़कर और कोई ऊँचा शक्तिस्रोत इस धरती पर है ही नहीं। जब ऐ नररत्न घर-घर पर है ही नहीं। जब ऐसे नररत्न घर-घर में उत्पन्न होते होंगे, तो सहज ही इस देश की भूमि स्वर्गादपि गरीयसी रही होगी और वे जहाँ भी गये होंगे, वहाँ सुख-शान्ति और समृद्धि का वसन्त लहलहाया होगा।

यदि साधनों की उन्नति को सुख-शान्ति का माध्यम मानें तो आज हम भूतकाल की तुलना में हर दृष्टि से आगे होना चाहिए था। आज के अर्थशास्त्री प्रायः यह रट लगाते है कि धन का अभाव पतन का हेतु है और संपत्ति होने पर उन्नति होती है। साम्यवादी दार्शनिक निरन्तर इसी तर्क को दुहराते है, वे पतन को गरीबों से जोड़ते है और प्रगति के लिए अधिकाधिक सुविधा-साधनों के संवर्द्धन पर जोर देते है। यदि यह बात सही रही होती तो अमेरिका जैसे धनी एवं साधन-सम्पन्न देशों के नागरिक देवोपम जीवन जी रही होते, पर वास्तविकता इससे सर्वथा विपरीत है। वे अपनी आन्तरिक विशेषताएँ बेतरह गँवाकर हर दृष्टि से खोखले होते चले जा रहे है। निर्धनता से बड़ी महँगी पड़ रही है- उन्हें वह सम्पन्नता। यदि धन ही प्रगति का कारण रहा होता तो कोपीन धारी पर्णकुटीरों में रहने वाले ऋषियों से अधिक कोई दुखी न होता और सम्पन्न लोगों में सन्तोष देखने को मिलता। अस्तु, यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि प्राचीनकाल की सम्पन्नता-उत्थान का कारण रही होगी और आज निर्धनता के कारण हम सब पवनोन्मुख हो रहे है।

इसी प्रकार यह कहना भी गलत है कि चरित्र-निष्ठा का मार्गदर्शन न मिलने से लोग पतनोन्मुख होते है। प्राचीनकाल में प्रेस नहीं था- हस्तलिखित पुस्तकें जिस-तिस के पास थी और उनका मूल्य अधिक था। हर कोई उन्हें प्राप्त नहीं कर सकता था। शिक्षा का प्रसार भी उतना नहीं था। अब हर स्तर का साहित्य पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। यह ठीक है कि पतनोन्मुख साहित्य आँधी-तूफान की तरह बढ़ा है, पर इनकार इस बात से भी नहीं किया जा सकता कि प्रेरक-साहित्य का सर्वथा अभाव नहीं, जो चाहे उसे भी प्रचुर मात्रा में प्राप्त कर सकता है। यही बात उपदेशकों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। कला-मंच पर कब्जा करके पतन ने निर्लज्ज स्वेच्छाचार का खुलकर समर्थन किया और उसके फलस्वरूप जनमानस में विनाशकारी दुष्प्रवृत्तियों को आश्रय मिला है, यह एक नग्न सत्य और स्पष्ट तथ्य है। पर यह कहते भी नहीं बनता कि सदुपदेश देने वाली वाणी सर्वथा मौन है। सभा-सम्मेलनों में आये दिन सदाचरण के पक्ष में बहुत कुछ कहा जाता रहता है। रेडियो से भी कितने ही प्रेरक प्रवचन प्रसारित होते रहते है। कथा-प्रवचनों को नगण्य नहीं ठहराया जा सकता। यदि रुचि हो तो ऐसे प्रेरक प्रसंग भी पर्याप्त मात्रा में सुनने को मिलते रह सकते हैं- जो सज्जनता की राह पर चलने की प्रेरणा दे सकते है।

लेखनी और वाणी को व्यक्ति निर्माण का माध्यम माना जाता है। यह सही भी है, यह दोनों माध्यम मनुष्य के मस्तिष्क को झकझोरते है और उसे दिशा प्रदान करते है इनकी शक्ति से इनकार नहीं किया जा सकता। इतने पर भी यह प्रश्न तो यथास्थान बना ही रहता है कि जब आज लेखनी करने में सर्वथा मौन नहीं हुई है, तो फिर जनसमाज का स्तर इस द्रुतगति से पतनोन्मुख होता क्यों चला जा रहा है?

इस प्रश्न का समाधान एक ही है कि मनुष्य के मस्तिष्क भर को लेखनी तथा वाणी प्रभावित करती है, उसका अन्तः करण स्पर्श करने की शक्ति महामानवों में ही होती है। जन-मानस को ऊँचा उठाने में, व्यक्तित्वों को परिष्कृत बनाने में केवल वे ही समर्थ होते है। आज उनकी ही भारी कमी पड़ रही है। आज उनकी ही भारी कमी पड़ रही है। भौतिक प्रयोजनों के संदर्भ में लेखनी और वाणी का महत्व असंदिग्ध है। स्कूल-कालेजों का समस्त प्रशिक्षण इन्हीं दो माध्यमों से चल रहा है। तर्क, तथ्य और प्रमाण प्रस्तुत करके पिछले विचारों को सुधारने और नई मान्यताएँ बनाने का अवसर मिलता है। ऐसा मस्तिष्क को झकझोरने वाला बहुत कुछ क्रिया−कलाप लेखनी और वाणी ही सम्पन्न करती है। विचार-शक्ति का अपना स्थान है और अपना महत्व। उसकी शक्ति उपयोगिता और आवश्यकता से कोई कैसे इनकार करेगा?

किंतु जहाँ तक व्यक्तियों को उत्कृष्टता के ढाँचे में ढालने की आवश्यकता का प्रश्न है, वहाँ यही तथ्य सामने आ खड़ा होगा आदर्शों को अपने जीवन में उतारने वाले व्यक्ति ही दूसरों के अनुकरण की, अनुगमन की प्रेरणा देकर उन्हें ऊँचा उठा सकने में, आगे बढ़ा सकने में समर्थ हो सकते है। प्राचीनकाल में यह प्रयोजन साधु संस्था पूरा करती थीं। उसके सदस्य सर्व-साधारण के सामने यह आदर्श प्रस्तुत करते थे कि परमार्थ-परायण जीवन न तो कष्टकर है, न असुविधाजनक न असम्भव, न अव्यावहारिक वरन् थोड़ी शारीरिक असुविधा सहने पर जो मानसिक एवं आत्मिक लाभ मिलता है, वह इतना बहुमूल्य है कि उसे प्राप्त करने के लिए यत्किंचित् असुविधा उठाना बाल-विनोद जैसा तुच्छ समझा जा सकता है। सन्त आदर्शवादी जीवन जीते थे। उनके प्रति जन-मानस में जो सहज श्रद्धा उमड़ती थी, वह उन महामानवों द्वारा दी गई उत्कृष्टतावादी प्रेरणाओं को आत्मसात् करने की पृष्ठभूमि बनाती थी। लोग उनके उपदेशों को मखौल नहीं मानते थे, मनोरंजन के लिए नहीं सुनते थे और न वक्तृत्व कला के आधार पर निन्दा-प्रशंसा करते थे, वरन् आदर्शवादी महामानवों के वचन, शास्त्र मन्तव्यों की तरह, श्रुति प्रतिपादन की तरह हृदयंगम किये जाते थे। प्रवचन आप्त-वचन होते थे, उनका अनुसरण करने में हर व्यक्ति को अपना परम कल्याण प्रतीत होता था। यह साधु संस्था ही थी, जिसने जन मानस को आदर्शवादिता की प्रेरणाओं से प्रभावित करने और उत्कृष्टता की राह पर चलने के लिए बाध्य कर दिया था। जन्मजात पतनोन्मुख नर-पशु की दुष्प्रवृत्तियों को देवोपम उत्कृष्टता में बदलने का श्रेय भारत की साधु-संस्था को ही दिया जा सकता है। उसने पशु को देवता में बदला। यही है, वह रहस्य जिसके कारण इस देश के प्रत्येक नागरिक का व्यक्तित्व उच्चतम स्तर तक विकसित हुआ और उसने न केवल अपने देश को, वरन् समस्त विश्व को सतयुगी सुख-शान्ति का रसास्वादन कराया।

साधु-संस्था के दो वर्ग थे, एक गृहस्थ अर्थात् ब्राह्मण-एक सीमित क्षेत्र में रहकर वहाँ का पौरोहित्य धर्म नेतृत्व करने वाले। दूसरे विरक्त-जिन्हें परिव्राजक रहकर सुदूर क्षेत्रों की यात्राएँ करनी होती थी और अपना ब्राह्मण आर साधु दोनों ही साधु -संस्था के परस्पर पूरक अंग थे। दोनों के कार्यक्रम में थोड़ा अन्तर था, पर लक्ष्य पूर्णरूपेण एक ही था-लोकमानस को उत्कृष्टतम बनाये रहने के लिए अपने ढंग से अथक एवं अनवरत रूप से उत्कृष्ट प्रयास करना। प्राचीनकाल में यह साधु-संस्था उच्चतर पर पहुँची हुई थी, उसी ने जनसाधारण के व्यक्तियों को ऊँचा उठाया था और उस उत्कर्ष के आधार पर ही वह सब सम्भव होता रहा, जिसका हम आज भी गर्वोन्नत मस्तिष्क से स्मरण करते है।


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