लघु में समाया महान का वैभव

January 1999

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सृष्टि के आदिकाल में विविधता कुछ भी न थी- न पृथ्वी, न पहाड़, जल, थल, नभ, तारे, विद्युत, वृक्ष, फल-फूल खेत आदि कुछ भी न था, जो कुछ इन स्थूल आँखों से देखा जा सकता है। एक परमात्मा ही तत्व रूप में सर्वत्र व्याप्त था। उस विश्वव्यापी सत्ता ने दृष्टि सृजन की इच्छा से जप किया। तप से अण्ड की उत्पत्ति और उस अण्ड से ही शरीर के विभिन्न अवयवों का विकास हुआ ऐसा ऐतरेय उपनिषद् में बताया गया है।

सृजन की इस मूल प्रक्रिया का वर्णन करते हुए उपनिषद्कार आगे बताते है क -”परमात्मा ने अपनी प्राण-देह से देवताओं को उत्पन्न किया। वे सब देवता समुद्र में आ गिरे। फिर उनमें भूख उत्पन्न हुई; उनने परमात्मा से कहा-हमारे लिए ऐसे शरीर का निर्माण करें, जिसमें रहकर हम अन्न आदि खा सकें।’ परमात्मा ने उन्हें गाय, घोड़ा आदि शरीर दिखाये; पर देवताओं को वे पसन्द न आए। अंत में उन्हें मनुष्य शरीर दिखाया, वह देवताओं को पसन्द आ गया और उसमें प्रवेश कर गए। अग्नि वाणी बनकर मुख में, वायु प्राण बनकर नासिका में और सूर्य चक्षु बनकर नेत्र गोलकों में प्रविष्ट हुआ। दिशाएँ स्रोत बनकर कानों में घुसी। औषधियों ने रोम बनकर त्वचा में वास-स्थान बनाया। चन्द्रमा मन बनकर हृदय में स्थित हुआ। मृत्यु अपान बनकर नाभि में और जल रेत बनकर उपस्थ में स्थित हो गया। परमात्मा ने तब क्षुधा और प्यास को भी सब देवताओं के अंशों में बाँट दिया और वे ही हवि ग्रहण करने लगीं। तदनंतर परमेश्वर ने जल को तपाया और अन्न की उत्पत्ति जल को तपाया और अन्न की उत्पत्ति की। अन्न को केवल अपान वायु ही ग्रहण कर सकी और उसी के द्वारा प्रत्येक देवता को वाँछित हव्य मिलने लगा।”

“अब परमात्मा ने विचार किया कि इन्द्रियों में बैठे हुए देवताओं ने अपने-अपने विषय ग्रहण कर लिये, तो फिर इनके लिए मैं कौन हुआ? यदि मैं न हुआ, तो फिर देवताओं की शक्ति का नियंत्रण कौन करेगा? तब परमेश्वर ने मनुष्य की मूर्धा को चीरकर देह में प्रवेश किया। यह द्वार ‘विहित’ कहलाता है और उसे प्राप्त करने वाला आनन्द का स्वामी बनता है। उस परमात्मा के तीन आश्रम हैं- हृदय ब्रह्मधाम और ब्रह्माण्ड। देवताओं को जब भोग से भी तृप्ति नहीं हुई, तब उनके विचार में आया कि यहाँ कौन मूल है? तब उन्होंने परमेश्वर की पहचाना और उनके दर्शन प्राप्त किये।

इस प्रकार शरीर में स्थित इन देव-शक्तियों के गर्भ में रहकर ऋषियों ने जाना कि ज्ञान-शक्ति आदेश-शक्ति विज्ञान, मेधा, दृष्टि, धैर्य, बुद्धि, मनन-शक्ति स्मृति, संकल्प, वेग, मनोरथ, कामना, भोग, प्राणशक्ति आदि सभी उस परमात्मा की सत्ता का ज्ञान कराने वाले है। जो परमात्मा को जान लेता है, वह इस लोक से उठकर स्वर्गलोक में ब्रह्म के साथ दिव्य भोगों को पाता है। वह ज्ञानी अमृतत्व को प्राप्त होता है।

ऐतरेय उपनिषद् के मंत्रों में मनुष्य जीवन की उत्पत्ति, विकास और उसके विज्ञान के ऐसे गूढ़ रहस्य छिपे हुए है, जिन्हें जान लेने वाला सचमुच महान ऐश्वर्य का स्वामी बन सकता है। मनुष्य शरीर देवशक्तियों का आश्रम है। देवशक्तियाँ समस्त गुणों वाली, ब्रह्माण्ड में सन्निहित शक्तियों की स्रोत कही जा सकती है, उनके इस शरीर में विद्यमान होने से मनुष्य के अभावग्रस्त और असमर्थ होने का कोई कारण नहीं है। परमात्मा की उपस्थिति के कारण तो वह स्वयं ब्रह्मरूप ही है, किन्तु अज्ञानतावश, वह उन शक्तियों को पहचानता नहीं और ऐसे कर्म करता है, जिससे उन देवशक्तियों का वरदान मिलने की अपेक्षा दुःख-दारिद्र्य ही हाथ लगता है। मनुष्य अनन्त शक्तियों और साधनों से सम्पन्न होकर भी पग-पग पर रोग, शोक, पीड़ा, कष्ट, बीमारी, दुर्बलता का शिकार होता रहता है। शरीर के प्रति आसक्ति के कारण वह दीन-हीन स्थिति में पड़ा रहता है।

भारतीय दर्शन के इन उच्चादर्शों को अब लोग अनर्गल और असंगत बातें कहकर टालते हैं, किन्तु पृथ्वी पर जीवन-विकास के वर्तमान सिद्धान्त, जो विद्यालयों में पढ़ाये जाते है और जो विज्ञान के मुख्य सूत्र है, उन्हें यदि तथ्य की कसौटी पर देखें, तो यह पायेंगे कि वे न तो बुद्धि -संगत है और न ही जीवन के आदि स्रोत को प्रभावित कर पाते है। विश्व-व्यवस्था की तरह पूर्ण पुरुष का प्रादुर्भाव भी ईश्वर की रहस्यपूर्ण क्रिया है।

पहली मान्यता यह थी कि मनुष्य का विकास अमीबा से हुआ है। अमीबा एककोशिकीय प्राणी है, अतः यह कहा गया कि एककोशीय जीव ने ही अंत में बहुकोशिकीय जीव के रूप अपने आपको परिणत किया। किन्तु जब मनुष्य शरीर के कोशों का अध्ययन किया गया, तो जीवन विकास की अनेक नई बातें सामने आयी और विज्ञान का एक वर्ग यह मानने लगा कि अमीबा मनुष्य की विकास-श्रृंखला का मूल घटक नहीं हो सकता। यदि ऐसा होता, तो मनुष्य शरीर के सूक्ष्मकोश जो स्वयं प्रोटोप्लाज्म से बने होते है, निकालकर एक स्वतंत्र जीव बना दिया जाना संभव होता, जबकि नये बालक का जनम गर्भाधान की विलक्षण प्रक्रिया से सम्पन्न होता है।

19 वीं और 20 वीं शताब्दी में इस संबंध में व्यापक खोजे हुई; पर वे सब अपनी-अपनी तरह से एकांगी हल ही प्रस्तुत करती है। वैज्ञानिक चेतना के अत्यन्त सूक्ष्म स्वरूप का तो अध्ययन कर सके है; किंतु उसका विश्वव्यापी शक्ति के साथ कोई सामंजस्य नहीं बिठा सके। यदि मनुष्य अमीबा से मछली, मछली से सुअर, सुअर से बन्दर, बन्दर से गोरिल्ला और गोरिल्ला से वर्तमान मनुष्य रूप में आया होता, तो विकास की इस गति को आगे बढ़ते जाना चाहिए था और उस मूल प्रक्रिया को भी चलते रहना चाहिए था एवं हमें लाखों वर्ष मनुष्य योनि से आगे बढ़कर किसी और प्रकार की शरीर आकृति में बदल जाना चाहिए था। हम इतनी लम्बी अवधि तक मनुष्य ही क्यों बने रहते है? किन्तु उलटा हो यह रहा है कि धरती पर जितने भी जीवित प्राणी है, उनकी शक्तियाँ घटती ही जा रहीं है। मनुष्य भी इसका अपवाद नहीं। इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि विकास की अपेक्षा जीव, विनाश की दिशा में चल रहे है। इसलिए विकास की यह थ्योरी गले नहीं उतरती।

चेतना यदि रसायन की देन होती, तो उसे प्रयोगशाला में बना लिया गया होता। मनुष्य के विकल्प के रूप में अब जो यंत्रमानव बन रहे है, तब इनकी जगह सीधे मानव शरीर को कारखाने में तैयार कर लिया जाता। मनुष्य -देह में जो भावना-विज्ञान छुपा हुआ है, उससे स्पष्ट है कि मनुष्य की उत्पत्ति भी उतनी ही रहस्यपूर्ण है, जितनी उसकी आन्तरिक शक्तियाँ। भौतिक शरीर तैयार हो भी जाए, तो उसमें भावनाएँ कैसे डाली जाएँ?

अब हम अपने प्राचीन दर्शन की ओर लौटते है, जिसमें परमात्मा की इच्छा से अण्ड का निर्माण, अण्ड का निर्माण, अण्ड से अनेक अवयवों का विकास और उसमें देवताओं की, परमात्मा की प्रतिष्ठा हुई। सूर्य और चन्द्रमा आदि का वर्तमान स्वरूप कुछ भी हो, पर उनका निर्माण एकाएक नहीं हुआ है। विकास या विघटन स्थूल और सूक्ष्म दोनों स्तरों पर चलता है, किन्तु उनका आदि-आविर्भाव किसी पराशक्ति की ही महान चमत्कार हो सकता है-इस बात को अब शरीर विज्ञान के पण्डित भी मानने लगे है। ऑकल्ट एनोटॉमी के प्रसिद्ध विद्वान एलनलियो ने अपनी रचना ‘इण्टरकम्यून्यन ऑफ मैन विद दि काँसमस’ में उपर्युक्त भारतीय दर्शन का समर्थन करते हुए लिखा है। कि यदि हम इतने बुद्धिमान होते कि विश्व व्यवस्था को अच्छी तरह समझ लेते, तो यह देखते कि सूर्य-चन्द्र एवं अन्य ग्रहों का शरीर के समस्त अवयवों एवं उनके कार्यों पर कितना हस्तक्षेप है।

'दि माइक्रोकोस्म वरसस दि मैक्रोकोसम’ नामक अपने ग्रन्थ में डॉ. जे. आर. हर्बर्ट ने शरीर की जटिल प्रक्रियाओं का विस्तृत अध्ययन करने के बाद लिखा है कि यह बड़े आश्चर्य की बात है कि सारी-की-सारी प्राकृतिक कला और ज्ञान नक्षत्रों द्वारा मनुष्य समाज को मिला है। सारे बुद्धिजीवी प्राणी नक्षत्रों के ही शिष्य हैं। वे उनकी प्रगति में सहायक सिद्ध होते है। ऑकल्टएनोटॉमी यह मानती है कि मनुष्य के दो शरीर है-एक पंचतत्वों से विनिर्मित है स्थूल, दूसरा सूक्ष्म है, जो नक्षत्रों (यहाँ इसकी संगति ऐतरेय उपनिषद् में वर्णित देवशक्तियों से बैठ जाती है ) से बना हुआ है एवं उन्हीं की शक्ति से कार्य करता है।

हमारे शरीर का स्थूल भाग जो दृश्य और स्पृश्य है, पृथ्वी से बना है। यह कितने आश्चर्य की बात है कि अन्य लोकों में तथा चन्द्रमा, सूर्य, बुध, बृहस्पति आदि में जो ठोस तत्व है, वह पृथ्वी की देन है। पृथ्वी भी अपने अणुओं को उसी प्रकार बिखेरती रहती है। तात्पर्य यह कि जिस प्रकार अपनी-अपनी शक्तिधाराओं द्वारा नक्षत्रों ने पृथ्वी को आच्छादित कर रखा है, पृथ्वी भी सभी नक्षत्रों पर छायी हुई है। सब अन्योऽन्याश्रित है।

इस जटिल प्रक्रिया को मनुष्य की मस्तिष्क प्रणाली को समझकर अनुभव किया जा सकता है। मस्तिष्क कोश दो पर्तों का बना होता है- सफेद एवं भूरा तत्व। सफेद तत्व नसें बनाता है और भूरा नसों में गैग्लियन। गैग्लियन में न्यूक्लियस वाली नसें पायी जाती है, जो प्रोटोप्लाज्म के भीतर तक धँसी होती है और फास्फोरस तत्व वाली होती है। फास्फोरस अग्नि तत्व है और वह जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। शरीर में अग्नि की मन्दता ही अपच, अजीर्णता, कान्तिहीनता, दुर्बलता और रोगों का कारण होती है। अग्नि न हो, तो मनुष्य निर्बल और कमजोर पड़ जाए। यह अग्नि तत्व सूर्य नक्षत्र का अदृश्य भाग ही है। फास्फोरस तत्व शरीर में आहार प्रक्रिया पर उतना आधारित नहीं है, जितना कि मस्तिष्क की उत्थान प्रक्रिया से। भौतिक विज्ञान अभी केवल स्थूल संरचना को देखता है, किन्तु भौतिक विज्ञान और मेटाफिजिक्स संयुक्त रूप से यह समझ सकेंगे कि ब्रह्माण्डव्यापी ऊर्जा शारीरिक तत्वों में कैसे बदलती है और उसे शक्ति के साथ ही बुद्धि, मेधा, प्रज्ञा प्रदान करती है।

एक आम का वृक्ष लगाये, उसे पर्याप्त खाद-पानी दें, किन्तु उस पर सूर्य का प्रत्यक्ष प्रकाश न पड़े तो उस वृक्ष में फूल और मीठे फल उपलब्ध नहीं किये जा सकेंगे, क्योंकि खटाई, मिठाई, रंग यह सब सूर्य की रश्मियों से ही ग्रहण किये जाते है। तात्पर्य यह कि पृथ्वी में पाया जाने वाला अस्वाद भाग भी उसका अपना नहीं है। वह सब कुछ ब्रह्माण्ड में कहीं सूक्ष्म रूप में विद्यमान है और यदि कोई उस विज्ञान को सीधे-साधे समझ ले, तो वह मनुष्य किसी भी स्थान पर, किसी भी क्षण मनचाहे कितना भी तत्व या पदार्थ अपने लिए आकर्षित कर सकता है।

आर्षग्रन्थों में गौ नाम सूर्यप्राण का है। उससे मिलकर यह पृथ्वी प्राण आस्वाद योग्य रस बनाता है। इसलिए जो भी आस्वाद वस्तुएँ है, जब उन पर सूर्य का सीधा हस्तक्षेप है, तब मनुष्य शरीर का तो कहना ही क्या! हम तो सूर्य के बिना चल-फिर भी नहीं सकते।

भिन्न-भिन्न तत्व जलने पर अलग-अलग प्रकार का प्रकाश उत्सर्जित करते है। ये प्रकाश साधारणतया आँखों से देखने पर एक-से प्रतीत हो सकते है, परंतु इन प्रकाशों का विक्षेपण (डिस्पर्शन) करके यदि इनका वर्णक्रम अध्ययन किया जाए, तो पता चलता है कि प्रत्येक प्रकार के प्रकाश के वर्णक्रम में एक विशिष्टता होगी और वह दूसरे प्रकार के प्रकाश से भिन्न होगी। उदाहरणार्थ- सोडियम, पोटैशियम, कैल्शियम के लवणों से निकलने वाले प्रकाश लगभग एक जैसे होते है, किंतु इनका वर्णक्रम भिन्न होता है।

इन विशेषताओं का अध्ययन करके तत्व का ज्ञान हुए बिना यह बताया जा सकता है कि प्रकाश कौन-से तत्व से आ रहा है। इतना ही नहीं, वरन् एक से अधिक तत्वों के मिश्रण को जलाकर और मिश्रित प्रकाश के वर्णक्रम का अध्ययन करके यह बता सकना संभव है कि मिश्रण में कौन-कौन से तत्व विद्यमान है।

अब इस विश्लेषण का दूसरी तरह से अध्ययन करें, तो हम निश्चित ही इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि प्रकाश जिस तरह पदार्थों की ज्वलन शक्ति है, उसी प्रकार उसमें स्थूल पदार्थों के अणु भी है। पदार्थ से प्रकाश और प्रकाश से पदार्थों का परिवर्तन-यह एक चक्र है और इसी सिद्धान्त पर शरीर में स्थूल को हम पदार्थ रूप में देखें, तो चेतना प्रकाश ही होगी और प्रकाश चूँकि मिट्टी (पृथ्वी) के अणु की देन नहीं तथा वह भिन्न-भिन्न प्रकृति का होता है, इसलिए भिन्न प्रकृतियाँ निस्संदेह आकाश के भिन्न-भिन्न नक्षत्रों (देवताओं) के प्राण या प्रकाश-प्रवाह कहे जाएँगे। तभी आकाश-स्थित देवताओं की शरीर में विद्यमानता सिद्ध होगी।

शरीर में हाथ-पाँव रक्त, माँस, मज्जा को स्थूल पदार्थों की रासायनिक क्रिया कह सकते है। मन, बुद्धि, प्राण, इच्छा, ज्ञान-इन सूक्ष्म गुणों को पदार्थ नहीं कह सकते, जबकि मनुष्य का जीवन इन्हीं से सधा हुआ हैं आदमी जिस दिन मर जाता है लाश बनी रहती है, तो भी वह गति नहीं कर सकता। गति और क्रियाशीलता प्रकाश का गुण है, भले ही वह किसी भी आकृति -प्रकृति का क्यों न हो। यदि अन्न से ही मन, प्राण, बुद्धि, चित्त, अहंकार का निर्माण होता है, तो यह उसके स्थूल दृश्य न होकर केन्द्रक ही होगा और वह केन्द्रक आच्छादित आकाश के किसी नक्षत्र द्वारा आकर्षित शक्ति कण ही हो सकते है, जो शरीर में पहुँचकर अपना-अपना स्थान ग्रहण करते है। मन को चन्द्रमा की तेजस् शक्ति कहते है। चन्द्रमा किस प्रकार वनस्पति और वनस्पति ही मन का निर्माण करती है- इस संबंध में पहले ही बताया जा चुका है। यह वह निष्कर्ष है, जिसे वैज्ञानिक जान चुके है। अन्य देवताओं की स्थिति शरीर में कहाँ और किस प्रकार है-यह तब पता चलेगा, जब विज्ञान का प्रवेश मस्तिष्क से फैलने वाले नाड़ी-जाल और उनके भीतर की रहस्यमय प्रक्रिया में होगा। अभी तक जितना भी समझा जा सका है, वह अति गंभीर और भारतीय दर्शन की ही पुष्टि करने वाला है।

मस्तिष्क का अध्ययन करने वाले डॉक्टर और वैज्ञानिक यह मानते है कि शरीर में दो प्रकार की नसों का जाल बिछा हुआ है- सिम्पैथेटिक एवं पैरा-सिम्पैथेटिक नसें। सिम्पैथेटिक-यह शरीरगत भाग की नसें है। उनसे पाचनक्रिया चलती है। खाद्य से शक्ति चूषण और रक्त परिभ्रमण का कार्य भी यही नसें करती है। ग्रन्थियों से होने वाले स्राव को यह नसें ही नियंत्रित करती है। शरीर की टूट-फूट को जोड़ना और मल-मूत्र बाहर निकालने में इन नसों का ही योगदान रहता है। जब मस्तिष्क की सुषुम्ना प्रणाली की नसें विश्राम करती है, तब यही सिम्पैथेटिक प्रणाली टूट-फूट जोड़ती, माँस और अन्य शरीर कोशों में जो क्षति हुई होती है, उसे सुधारती रहती है।

इन नसों के मूल स्रोत और शक्ति का पता लगाते हुए शरीरशास्त्री जब मस्तिष्क में पहुँचे,तो उन्होंने पाया कि नसें मात्र इच्छा प्रवाह है और आगे चलकर वे जटिल और स्थूल रूप ले लेती है, इसलिए शरीरशास्त्रियों का एक वर्ग मनोविज्ञान का समर्थक हो गया और यह मानने एवं कहने लगा कि मनुष्य अपनी इच्छाओं को स्वस्थ, पवित्र एवं सृजनात्मक बनाकर अपने स्वास्थ्य को स्थिर रख सकता है। अधोगामी विचारों और कुप्रवृत्तियों से अपने आपको बचाकर अपना स्वास्थ्य भी बचाये रख सकता है।

मनोविज्ञान का यह सिद्धान्त जितना विकसित हुआ, उतनी ही महत्वपूर्ण मन और मानवीय चेतना के गुणों संबंधी बातें सामने आयी। शरीर विज्ञानी अब यह भी मानते है कि इच्छाशक्ति धाराओं और रंगों के रूप में मस्तिष्क प्रणाली के कोषों में बहती देखी जा सकती है।

शरीर, हृदय या मन के कष्ट मस्तिष्क को प्रभावित करते है, इसलिए जब तक मस्तिष्क की शक्तियों का पता नहीं चलता, तब तक इच्छाएँ और भावनाएँ भी मनुष्य को सुख एवं आत्मिक शान्ति प्रदान नहीं कर सकतीं जब वैज्ञानिक यह मानने लगे है। कि मस्तिष्क आध्यात्मिक ब्रह्माण्ड से प्रभावित है और जीवन सुधार के लिए उसकी जानकारी नितान्त आवश्यक है।

मस्तिष्क के इस भाग को ‘अवचेतन मन’ कहते है और वह जिन नसों से शेष शरीर के साथ संबंध स्थापित करता है, उन्हें पैरा-सिम्पैथेटिक नसें कहते है। यह जिन कोशों से बना है, वह रेशों के कुँज ही जान पड़ते हैं, वही शरीर की तन्मात्राएँ ग्रहण करते है और सुषुम्ना प्रवाह से लेकर रीढ़ की हड्डी के सारे भाग में छाये रहते है। हृदय स्थित मन से यह संबंध स्थापित कर उसे शक्ति देते है। यदि मन को विकसित कर दिया जाए और सुषुम्ना प्रवाह में निवास करने वाली इन शक्तिधाराओं को ऊर्ध्वगामी बना लिया जाए, तो मनुष्य आकाश स्थित अदृश्य शक्तियों की महत्वपूर्ण और आश्चर्यजनक जानकारियाँ एवं रहस्य प्राप्त कर सकता है। देवताओं का संबंध भी इस प्रणाली से है। इसे ही द्वार’ कह सकते है। अभी उसकी विस्तृत जानकारी नहीं हो पायी है, पर यदि विज्ञान किसी तरह इसे नियंत्रित कर सका, तो अन्तरिक्षीय ज्ञान अत्यन्त सुलभ हो जाने की संभावना है।


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