वह नाम का ही धनीराम नहीं पैसे से भी पर्याप्त धनी था। पूरे रतनगढ़ रियासत में सेठ धनीराम की धाक थी। इसकी वजह मात्र धन-दौलत नहीं वह सद्गुण-सम्पत्ति भी थी, जो उसने सारी उम्र कमायी और बड़ी उदारतापूर्वक औरों को बाँटी थी। उसे यदा-कदा चिन्ता हो आती तो सिर्फ एक बात की कि उसके कोई सन्तान तो है नहीं, इतनी अपार सम्पदा का उसके मरने के बाद क्या होगा?
एक दिन नगर के बाहर वाले शिव मन्दिर में एक सन्त आए। सन्त गुणभद्र महान तपस्वी होने के साथ प्रज्ञावान भी थे। उनका अन्तःकरण तो जैसे मानवीय भावनाओं का विशाल महासागर था। यही कारण था कि हर कोई उनका सान्निध्य पाने के लिए लालायित रहता था। सेठ धनीराम भी इन सन्त के दर्शन करने के लिए गए। उन्होंने धन की पर्याप्त बड़ी गठरी सन्त के सामने रखकर कहा-यह धन मैं आपको इसलिए दे रहा हूँ कि आप इसे किसी अच्छी काम में लगा दें। किन्तु अच्छे काम में लगा दें। किन्तु सन्त ने धन लेने से इनकार कर दिया। धनीराम के अधिक आग्रह करने पर सन्त ने कहा कि तुम्हीं इस धन को मेरी ओर से किसी अच्छे काम में लगा दो। परन्तु ध्यान रहे कि धन समान रूप से सबके काम आना चाहिए। किसी जाति, धर्म अथवा व्यक्ति के प्रति किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए।
सेठ धनीराम और उनकी पत्नी ईश्वर के परमभक्त थे। वह नित्य ही कुछ समय भगवान की पूजा-पाठ व संध्यावंदन में व्यतीत करते थे। इसलिए उन्होंने सोचा कि इस धन से क्यों न भगवान का एक मन्दिर बनवा दिया जाय।
कुछ दिनों बाद मन्दिर बनकर तैयार हो गया। मूर्ति -स्थापना के बाद मन्दिर के द्वार सबके दर्शनार्थ खोल दिए गए। लेकिन मन्दिर में उच्च व मध्यम वर्ग के हिन्दुओं के अलावा न तो अछूत लोग आए और न मुसलमान, जैन व बौद्ध आदि ही आए यह देखकर धनीराम ने सोचा कि मन्दिर सब जातियों के लिए समान रूप से उपयोगी नहीं है, इसलिए उन्होंने मन्दिर को हटाकर वहाँ एक स्कूल बनवा दिया। स्कूल में वैश्य, राजपूत आदि उच्च जाति के बालकों के अलावा सिख, जैन, बौद्ध, आदि धर्म और जातियों के बालक भी पढ़ने आते थे, किंतु मुसलमान वहाँ अपने बच्चों को भेजना अच्छा नहीं समझते थे। अतः धनीराम ने स्कूल को हटाकर वहाँ एक मस्जिद बनवा दी। अब उसमें मुसलमान तो आने लगे, लेकिन हिन्दुओं ने आना लगे, लेकिन हिन्दुओं ने आना छोड़ दिया। अछूत, जैन, बौद्ध, सिख न मन्दिर में आते थे, न मस्जिद में आए।
इस बात से सेठ धनीराम को काफी दुःख हुआ। वह सोचने लगे कि सन्त गुणभद्र ने तो कहा था कि धन समन रूप से सबके काम में आना चाहिए, पर ऐसा काम क्या हो सकता था? इस उधेड़बुन में वह निरन्तर डूबे रहते। अन्त में बहुत सोच-विचार के बाद उन्होंने मस्जिद को तोड़कर उसकी जगह एक अस्पताल बनवा दिया।
उन दिनों वहाँ मुसलमानों का ही राज था। अतः मुस्लिम समाज के कुछ प्रतिष्ठित व्यक्तियों और मुल्ला-मौलवियों ने मस्जिद तोड़े जाने की शिकायत रियासत के नवाब से की। शिकायत सुनकर नवाब बहुत नाराज हुआ। उसने धनीराम को दरबार में बुलाकर डाँटते हुए उसका कारण पूछा।
धनीराम ने कहा-मैंने यह सोचकर कि सब लोग एक साथ बैठकर ईश्वर की सेवा-पूजा कर सकें, एक मन्दिर बनवाया। किंतु उसमें हिन्दुओं के अलावा दूसरी कौम के लोग नहीं आते थे। इसलिए मैंने मन्दिर को हटाकर वहाँ स्कूल बनवा दिया, ताकि सभी जाति और धर्म के लोग एक-साथ बैठकर पढ़-लिखकर विद्वान और सुनागरिक बन सके। इसमें और सब जातियों और धर्म के लोग तो आते थे, पर न जाने क्यों मुस्लिम समाज के बच्चे नहीं आते थे। इसलिए मैंने स्कूल को हटाकर वहाँ पर मस्जिद बनवा दी। लेकिन वहाँ हिंदुओं, ईसाइयों ने आना बन्द कर दिया। इसलिए अब मैंने मस्जिद की जगह अस्पताल बनवा दिया है। अब इसमें हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, जैन, बौद्ध, और अछूत आदि सभी जातियों तथा धर्मों के लोग प्रसन्नतापूर्वक आते है। यहाँ के लोग प्रसन्नतापूर्वक आते है। यहाँ आकर कोई किसी से जाति-पाँति धर्म-सम्प्रदाय आदि नहीं पूछता। डॉक्टर, कम्पाउण्डर तथा नर्स आदि भी किसी से जाति या धर्म नहीं पूछते और सबको समान भाव से उपचार देते है। यहाँ आकर सब लोग जाति या धर्म से ऊपर उठकर ‘मानव’ बन जाते है।
जिस प्रकार माली एक फूल को धागे में पिरोकर उनकी माला बनाता है, उसी प्रकार मैंने भी अब कौमों और धर्मों के आदमियों को अस्पताल रूपी धागे में पिरोकर उनको एक जगह इकट्ठा किया तथा एक दूसरे से जोड़ दिया है।
अब हुजूर, आप ही न्यास कीजिए कि मैंने किसके दिल को दुखाया है और किसके दिल को तोड़ा है।
नवाब, धनीराम की बात सुनकर खामोशी के साथ उसके मुँह को देखते हुए सोचने लगा-सभी धर्मों का सार सेवा ही तो है। प्रेमपूर्ण हृदय से सभी की समान भाव से सेवा करके सेठ धनीराम ने तो हर मजहब का समान रूप से सम्मान ही किया है। नवाब को इस तरह चुप देखकर शिकायत करने वाले दकियानूसी कट्टर लोग वहाँ से खिसक गए।