देवताओं की अहंता (Kahani)

January 1999

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

देवासुर संग्राम समाप्त हुआ। विजय देवताओं के हाथ लगी। इन्द्र की सभास्थली में सभी देवतागण अपने -अपने पराक्रम की चर्चा कर मन में फूले नहीं समा रहे थे। देवताओं के बढ़ते हुए अहंकार को शक्तियों के अधिष्ठाता भगवान सुन रहे थे। अहंकार पतन और पराभव का कारण है। समय रहते उस पर अंकुश लगना चाहिए। यह सोचकर वे तेजस्वी दीप्तिमान महायक्ष के शरीर में देवसभा के द्वार पर प्रकट हुए। कोलाहल बन्द हो गया, शान्ति छा गई।

आगे बढ़कर अग्निदेव ने सभा भवन का दरवाजा खोला और आगन्तुक से प्रश्न किया-आप कौन हैं? यहाँ आने का अनुग्रह कैसे किया? प्रश्न का बिना उत्तर दिए तेजस्वी व्यक्ति ने प्रतिप्रश्न किया-तू कौन है?

अग्नि ने अहंकार मिश्रित स्वर में अपना परिचय दिया-मैं जातवेदा अग्नि हूँ। हर वस्तु को पलभर में जला देता हूँ आगन्तुक ने एक तिनका सामने रखा और अग्नि से उसे जलाने को कहा। अग्नि को लगा जैसे किसी ने सारी शक्ति निचोड़ ली हो। वे अपने को निष्प्राण और निस्तेज अनुभव कर रहे थे। फिर भी जलाने का उपक्रम किया, पर असफल रहे। निराश और उदास होकर वहीं भूमि पर बैठ गये।

दरवाजे पर अग्नि को गये अधिक देरी हो चुकी थी। पवनदेव वस्तुस्थिति का अवलोकन करने पहुँचे। भूमि पर निस्तेज अवस्था में अग्नि को बैठे देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ। सामने सूर्य की भाँति तेजस्वी अतिथि से उन्होंने पूछा, महाभाग आपका परिचय? अतिथि ने उलटकर वही प्रश्न पवनदेव से भी किया। पवन ने कहा-मुझे वेगवान मातरिश्वा कहते है। मैं बहता हूँ और अपने प्रवाह में बहुतों का बहा ले जाता हूँ। आगन्तुक के अधरों पर मन्द मुसकान तैर गई। उसने वही तिनका पवन के सामने रखकर उसे उड़ाने के लिए कहा। मातरिश्वा ने अथक प्रयत्न किया पर तिनका चट्टान की भाँति अड़ा रहा। टस से मस नहीं हुआ। हारे-थके पवन भी सिर झुकाकर जातवेदा के निकट बैठ गये।

अग्नि और पवन के वापस न लौटने पर देवगणों की चिन्ता बढ़ी। सभी वरिष्ठ देवता स्थिति को जानने के लिए द्वार पर पहुँचे। पवन और अग्नि को सिर झुकाये बैठे देखकर सभी आतंकित हो उठे। वरुण और अन्तरिक्ष ने परिचय पूछा तो आगन्तुक ने वह पद्धति दुहराई। अपना परिचय दिये बिना उनसे उलटकर प्रश्न पूछे। एक ने कहा मैं गीला कर देने वाला वरुण और दूसरे ने कहा- मुझे सबको उदरस्थ करने वाला अन्तरिक्ष कहते है। दोनों के सामने तिनका पड़ा था, पर न तो वे उसे गीला कर सके और न ही उदरस्थ कर सके। विवश होकर उन्हें भी अपने देव बन्धुओं की बगल में बैठ जाना पड़ा।

स्तब्धता को भंग करते हुए तेजस्वी पुरुष ने स्वयं अपना परिचय दिया-मुझे सर्वशक्तिमान ब्रह्म कहते है। आत्मबल के रूप में मुझे जाना जाता है। मेरे तेज से ही शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। सभी शक्तियों का अधिष्ठाता हूँ। मेरी सत्ता से ही जड़-चेतना में हलचल और चैतन्यता पायी जाती है। देवताओं! पंचतत्वों से बने कलेवरों और उपकरणों की प्रशंसा न करो। ब्रह्म ही बल है। ब्रह्म तेजस् ही विजयी होता है, अस्तु, प्रशंसा करनी हो तो उसी की करो। महत्ता उसी की समझो। आराधना उसी की करो। देवताओं का मिथ्या अहंकार समाप्त हुआ। तब से वे आत्मबल की आराधना में संलग्न हो गये।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118