महर्षि व्यास के पाँव पथ पर बढ़ रहे थे। उनकी भावमुद्रा में ईश्वरीय तेज प्रदीप्त था। चलते-चलते उनके पाँवों से एक कीड़ा आ टकराया। उन्होंने लगभग चौंकते हुए देखा, रास्ते में एक कीड़ा बड़े वेग से भागा जा रहा था। महर्षि सभी जीवों की गति एवं भाषा के मर्मज्ञ थे। उन्होंने दयावश कीड़े की बोली में ही उससे इस प्रकार भागने का कारण पूछा। विश्ववन्द्य मुनिवर! कोई बहुत बड़ी बैलगाड़ी इधर ही चली आ रही है। कहीं यह आकर मुझे कुचल न डाले, इसलिए तेजी से भागा जा रहा हूँ।
क्षुद्र योनि में पड़े उस कीड़े का देह के प्रति मोह देखकर महर्षि तनिक चकित हुए, फिर उन्होंने उससे अपनी जिज्ञासा प्रकट करते हुए कहा-कीट तुम तो तिर्यक् योनि में पड़े हुए हो। तुम्हारे लिए तो मर जाना ही सौभाग्य हैं मनुष्य यदि मृत्यु से डरे तो उचित है, पर तुम कीट को इस शरीर के छूटने का इतना भय क्यों हैं? इस पर कीड़े ने कहा- महर्षि मुझे मृत्यु से किसी प्रकार का भय नहीं है। भय इस बात का है कि इस कुत्सित कीट योनि से भी अधम दूसरी लाखों योनियाँ है। मैं कही मर कर उन योनियों में न चला जाऊँ।
व्यास जी ने कहा-कीट तुम भय न करो। मैं जब तक तुम्हें ब्राह्मण शरीर में न पहुँचा दूँगा, तब तक सभी योनियों से शीघ्र ही छुटकारा दिलाता रहूँगा, व्यास जी के यों कहने पर वह कीड़ा पुनः मार्ग में लौट आया और बैलगाड़ी के पहिए के नीचे दबकर उसने प्राण त्याग दिए। तत्पश्चात वह कौए, सियार आदि योनियों में जब-जब उत्पन्न हुआ, तब-तब व्यास जी ने जाकर उसके पूर्व जन्म का स्मरण करा दिया। इस तरह वह क्रमशः शाही, गोह, मृग, पक्षी, चाण्डाल, शूद्र और वैश्य की योनियों में जन्म लेता हुआ क्षत्रिय जाति में उत्पन्न हुआ। उसमें भी भगवान व्यास ने उसे दर्शन दिया।
वह प्रजापालन रूप धर्म का आचरण करते हुए थोड़े ही दिनों में शरीर त्यागकर ब्राह्मण योनि में उत्पन्न हुआ। जब वह पाँच वर्ष का हुआ, तभी व्यासदेव ने आकर उसके कानों में सारस्वत मंत्र का उपदेश कर दिया। उसके प्रभाव से बिना पढ़े ही उसे सम्पूर्ण वेद, शास्त्र और धर्म का स्मरण हो आया। इसी के साथ भगवान व्यासदेव ने उसे आज्ञा दी कि वह कार्तिकेय के क्षेत्र में जाकर नन्दभद्र को आश्वासन दें। नन्दभद्र को यह शंका थी कि पापी मनुष्य भी सुखी क्यों देखे जाते है।
इसी क्लेश से घबराकर वे बहूदक तीर्थ पर तप कर रहे थे। नन्दभद्र की शंका का समाधान करते हुए इस सिद्ध सारस्वत बालक ने कहा-पापी मनुष्य क्यों सुखी रहते है? यह तो बड़ा स्पष्ट है। जिन्होंने पूर्व जनम में तामस भाव से दान किया है, उन्होंने इस जन्म में उसी दान का फल प्राप्त किया है, परंतु तामस भाव से जो धर्म किया जाता है, उसके फलस्वरूप लोगों का धर्म के प्रति अनुराग नहीं होता और फलतः वे ही पापी सुखी देखे जाते है।
ऐसे मनुष्य पुण्यफल को भोग कर अपने तामसिक भाव के कारण नरक में ही जाते है, इसमें सन्देह नहीं है। इस विषय में मार्कण्डेय जी की कही ये बातें सर्वदा ध्यान में रखी जानी चाहिए-एक मनुष्य ऐसा है, जिसके लिए इस लोक में सुख का भोग सुलभ है, परंतु परलोक में नहीं। दूसरा ऐसा है जिसके लिए परलोक में सुख का भोग सुलभ है, किंतु इस लोक में नहीं। तीसरा ऐसा है, जो इस लोक और परलोक दोनों ही जगह सुख प्राप्त करता है और चौथा ऐसा है, जिसे न यहाँ सुख है और न परलोक में ही। पूर्व पुण्य भोगते हुए सुख में भूला हुआ जो व्यक्ति नूतन पुण्य का उपार्जन नहीं करता, उस मंदबुद्धि और भाग्य ही मानव को प्राप्त हुआ वह सुख केवल इसी लोक में रहेगा।
जिसका पूर्वजन्म उपार्जित पुण्य तो नहीं है, किंतु वह तपस्या करके नए पुण्य का उपार्जन कर रहा है, उस बुद्धिमान को परलोक में अवश्य ही विशाल सुख का भाग उपस्थित होगा, इसमें रंचमात्र भी सन्देह नहीं। जिसका पहले का किया हुआ पुण्य वर्तमान में सुखद हो रहा है ओर जो जप द्वारा नूतन पुण्य का उपार्जन भी कर रहा है, ऐसा बुद्धिमान तो कोई-कोई ही होता है, उसे इहलोक और परलोक दोनों में ही सुख मिलता है। जिसका पहले का भी पुण्य नहीं है और जो भी पुण्य का उपार्जन नहीं करता, ऐसे मनुष्य को न परलोक में ही।
इस प्रकार नन्दभद्र का समाधान करते हुए उस बालक ने अपना वृत्तान्त भी बतलाया। तत्पश्चात् वह सात दिनों तक निराहार रहकर सूर्य महामन्त्र का जप करता रहा और वहीं बहूदक तीर्थ में ही उसने उस शरीर को भी छोड़ दिया। नन्दभद्र ने विधिपूर्वक उसके दाह-संस्कार की व्यवस्था की। उसकी अस्थियाँ वहीं सागर में डाल दी गयीं। और दूसरे जन्म में वही बालक मैत्रेय नाम के श्रेष्ठ महर्षि के रूप में विख्यात हुआ।