प्रार्थना का स्वरूप, स्तर और प्रभाव

January 1999

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प्रार्थना ईश्वर के बहाने अपने आप से ही की जाती है। ईश्वर सर्वव्यापी ओर परमदयालु है, उसे हर किसी की आवश्यकता तथा इच्छा की जानकारी है। वह परमपिता ओर परमदयालु होने के नाते हमारे मनोरथ पूरे भी करना चाहता है। कोई सामान्य स्तर का सामान्य दयालु पिता भी अपने बच्चों की इच्छा -आवश्यकता पूरी करने के लिए उत्सुक एवं तत्पर रहता हैं फिर उत्सुक एवं तत्पर रहता है। फिर परमपिता और परमदयालु होने पर वह क्यों हमारी आवश्यकता को जानेगा नहीं। वह कहने पर ही हमारी बात जाने और प्रार्थना करने पर ही कठिनाई को समझे, यह तो ईश्वर के स्तर को गिराने वाली बात हुई। जब वह कीड़े-मकोड़ों और पशु-पक्षियों की अयाचित आवश्यकता भी पूरी करता है, तब अपने परमप्रिय युवराज मनुष्य का ध्यान क्यों न रखेगा? वस्तुतः प्रार्थना का अर्थ याचना है ही नहीं। याचना अपने आप में हेय है, क्योंकि उसमें दीनता, असमर्थता और परावलम्बन की प्रवृत्ति जुड़ी हुई है, जो आत्मा का गौरव बढ़ाती नहीं घटाती ही हैं चाहे व्यक्ति के सामने हाथ पसारा जाय भगवान के सामने झोली फैलाई जाय बात एक ही है। चाहे चोरी किसी मनुष्य के घर में जाय, चाहे भगवान के घर-मन्दिर में, बुरी बात तो बुरी ही रहेगी। स्वावलम्बन और स्वाभिमान को आघात पहुँचाने वाली प्रक्रिया, चाहे उसका नाम प्रार्थना ही क्यों न हो, मनुष्य जैसे समर्थ तत्व के लिये शोभा नहीं देती।

वस्तुतः प्रार्थना का प्रयोजन अपने आत्मा को ही परमात्मा का प्रतीक मानकर स्वयं को समझाना है कि वह इसका पात्र बने कि आवश्यक विभूतियाँ उसे उसकी योग्यता के अनुरूप सहज ही मिल सकें। यह अपने मन की खुशामद है। मन को मनाना है। आपे को बुहारना है आत्म -जागरण है। आत्मा से प्रार्थना द्वारा कहा जाता है, हे शक्तिपुंज! तू जाग्रत क्यों नहीं होता? अपने गुण, कर्म, स्वभाव को प्रगति के पथ पर अग्रसर क्यों नहीं करता? तू सँभल जाय तो सारी दुनिया सँभल जाय। तू निर्मल बने तो सारे संसार की निर्मलता खिंचती हुई अपने आप चली आये। अपनी सामर्थ्य का विकास करने में तत्पर और उपलब्धियों का सदुपयोग करने में संलग्न हो जाय तो दीन-हीन अभावग्रस्तों की पंक्ति में क्यों बैठना पड़े। फिर समर्थ और दानी देवताओं से अपना स्थान नीचा क्यों रहे।

प्रार्थना के माध्यम से हम विश्वव्यापी महानता के साथ अपना घनिष्ठ सम्पर्क स्थापित करते आदर्शों को भगवान की दिव्य अभिव्यक्ति के रूप में अनुभव करते हैं और उसके साथ जुड़ जाने की भावविह्वलता को सजग करते हैं तमसाच्छन्न मनोभूमि में अज्ञान और आलस्य ने जड़ जमा ली है। आत्मविस्मृति ने अपनी स्वरूप एवं स्तर ही हेय बना लिया है। जीवन में संव्याप्त इस कुत्सा और कुण्ठा का निराकरण करने के लिये अपने प्रसुप्त अंतःकरण से प्रार्थना की जाय कि यदि तन्द्रा और मूर्छा छोड़कर तू सजग हो जाय और मनुष्य को जो सोचना चाहिए वह सोचने लगे, जो करना चाहिए वह सोचने लगे, जो करना चाहिए सो करने लगे तो अपना बेड़ा ही पार जाये अन्तः ज्योति की एक किरण आ पड़े तो पग-पग पर ठोकर लगने के निमित्त बने हुए इस अन्धकार से छुटकारा ही मिल जाय, जिसने शोक-संताप की विडम्बनाओं को सब ओर से आवृत कर रखा है।

परमेश्वर यों साक्षी, दृष्टा, नियामक, उत्पादक, संचालक सब कुछ है, पर उसके जिस अंश की हम उपासना, प्रार्थना करते है, वह सर्वात्मा एवं पवित्रात्मा ही समझा जाना चाहिए। व्यक्तिगत परिधि को संकीर्ण रखने और पेट तथा प्रजनन के लिए ही सीमाबद्ध रखने वाली वासना-तृष्णा भरी मूढ़ता को ही माया कहते है। इस भवबन्धन से, मोह-ममता से छुड़ाकर आत्म-विस्तार के क्षेत्र को व्यापक बना लेना ही आत्मोद्धार है। इसी को आत्म-साक्षात्कार कहते है। प्रार्थना में अपने उच्च आत्म-स्तर से, परमात्मा से यही प्रार्थना की जाती है कि वह अनुग्रह करे और प्रकाश की ऐसी किरण प्रदान करें जिससे सर्वत्र दीख पड़ने वाला अन्धकार-दिव्य प्रकाश के रूप में परिणत हो सके।

लघुता को विशालता में, तुच्छता को महानता में समर्पित कर देने की उत्कण्ठा का नाम प्रार्थना है। नर को नारायण-पुरुष को पुरुषोत्तम बनाने का संकल्प प्रार्थना कहलाता हैं। आत्मा का आबद्ध करने वाली संकीर्णता जब विशाल -व्यापक बनकर परमात्मा के रूप में प्रकट होती है, तब समझना चाहिए प्रार्थना का प्रभाव दीख पड़ा, नर-पशु के स्तर से ऊँचा उठकर जब मनुष्य देवत्व की ओर अग्रसर होने लगे तो उसे प्रार्थना की गहराई का प्रतीक और चमत्कार माना जा सकता है आत्म-समर्पण को प्रार्थना का आवश्यक अंग माना गाया हैं। किसी के होकर ही हम किसी से कुछ प्राप्त कर सकते हैं अपने को समर्पण करना ही ईश्वर की प्रसन्नता का एकमात्र तरीका है। ‘शरणागति ‘ भक्ति का प्रधान लक्षण माना गया हैं गीता में भगवान ने आश्वासन दिया है कि जा सच्चे मन से मेरी शरण में आता है, उनके योगक्षेमं की, सुख -शांति और प्रगति की जिम्मेदारी मैं उठाता हूँ। सच्चे मन और झूठे मन की शरणागति का अन्तर स्पष्ट हैं प्रार्थना के समय तन, मन, धन सब कुछ भगवान के चरणों में समर्पित करने की लच्छेदार भाषा का उपयोग करना और जब वैसा करने का अवसर आवे तो पल्ला झाड़कर अलग हो जाना झूठे मन की प्रार्थना है। आज इसी का फैशन हैं झूठे मन से की गई प्रार्थना ईश्वर को ठगने-बहकाने के लिए होती है। समर्पण -शरणागति जैसे दिव्य स्तर का जो अर्थ समझता होगा वह इतना भी जानता होगा कि उसका तात्पर्य अपनी लिप्साओं को भगवान की इच्छाओं में परिणति कर देने, गतिविधियों को तृष्णा, वासना के चंगुल से छुड़ाकर ईश्वर की इच्छानुसार उत्कृष्ट विचारणा तथा आदर्शवादी क्रियापद्धति से अपने वर्तमान ढाँचे की बदलना ही होता हैं जो इसके लिए तैयार होकर समर्पण शरणागति की बात करें, उसी को सच्चे मन से प्रार्थना करने वाला कहा जाएगा।

प्रार्थना में यही कामना जुड़ी रहनी चाहिए कि परमात्मा हमें इस लायक बनाये कि उसके सच्चे भक्त, अनुयायी एवं पुत्र कहला सकने का गौरव प्राप्त करें। परमेश्वर हमें वह शक्ति प्रदान करे, जिसके आधार पर भय और प्रलोभन से मुक्त होकर विवेकसम्मत कर्तव्य -पथ पर साहस-पूर्वक चल सकें और इस मार्ग में जो भी अवरोध आवें उनकी उपेक्षा करने में अटल रह सकें। कर्मों के फल अनिवार्य है। अपने प्रारब्ध-भोग जब उपस्थित हों तो उन्हें धैर्यपूर्वक सह सकने और प्रगति के लिए परम पुरुषार्थ करते हुए कभी निराश न होने वाली मनःस्थिति बनाये रह सकें। भगवान हमारे मन को ऐसा निर्मल बना दें कि कुकर्म की ओर प्रवृत्ति ही उत्पन्न न हो और हो भी तो उसे चरितार्थ होने का अवसर न मिल पाये। मनुष्य-जीवन की सफलता के लिए गतिशील रहने की पैरों में शक्ति बनी रहे, ऐसी उच्चस्तरीय प्रार्थना को ही सच्ची प्रार्थना के रूप में पुकारा जा सकता है, जिसमें धन, संतान, स्वास्थ्य, सफलता आदि की याचना की गई हो और जिसमें अपने पुरुषार्थ -कर्तव्य के अभिवर्द्धन का स्मरण न हो, ऐसी प्रार्थना को याचना मात्र कहा जाएगा। ऐसी याचनाओं का सफल होना प्रायः संदिग्ध ही रहता हैं

परामनोविज्ञानवेत्ता डॉ. एमेली केडी ने लिखा है प्रार्थना, मात्र ईश्वर को धन्यवाद देने या उससे कुछ याचना करने की प्रक्रिया का नाम नहीं है वरन् यह व मनः स्थिति है, जिससे व्यक्ति शंका और संदेहों के जंजाल में से निकलकर श्रद्धा की भूमिका में प्रवेश करता है। अहंकार को खोकर समर्पण की नम्रता स्वीकार करना और उद्धत मनोविकारों को ठुकराकर परमेश्वर का नेतृत्व स्वीकार करने का नाम प्रार्थना है, जिसमें यह संकल्प भी जुड़ा रहता है कि भावी जीवन परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार पवित्र और परमार्थी बनाकर जिया जाएगा। ऐसी गहन अंतस्तल से निकली हुई प्रार्थना, जिसमें आत्म-परिवर्तन की आस्था जुड़ी हुई हो भगवान का सिंहासन हिला देती है। ऐसी प्रार्थना के परिणाम ऐसे अद्भुत होते है, जिन्हें चमत्कार कहने में कुछ हर्ज नहीं है।

चिकित्साशास्त्र पर नोबेल पुरस्कार विजेता एवं फ्राँस के लियोविश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. कैरल ने अपनी प्रत्येक सफलता के पीछे ईश्वर की अनुकम्पा को छिपा हुआ देखा हैं वे कहते थे- तुच्छ मानव-प्राणी उन्नति के उस स्तर पर नहीं पहुँच सकता जहाँ साधारण लोग आमतौर से नहीं पहुँचते। इन विशिष्ट साधन, विशिष्ट परिस्थितियों ओर विशेष सूझबूझ के पीछे उन्होंने सदा परमेश्वर का दिव्य सहयोग झाँकता देख उन्होंने अपनी चिकित्सापद्धति के साथ औषधियों से अधिक प्रार्थना को महत्व दिया। वे हर रोगी से कहते थे, सच्चे मन से प्रार्थना करो, अपनी भूलों के लिए पश्चाताप और भविष्य में निर्मल जीवन जीने की प्रणता के साथ यदि प्रार्थना करोगे तो वह जरूर सुनी जाएगी। सच्चा इलाज तो पश्चाताप है और ईश्वर चरणों में अपना समर्पण, जो सा कर सकेगा वह शारीरिक ही नहीं, आन्तरिक रोगों से भी छुटकारा पा लेगा।

महात्मा गाँधी ने अपने एक मित्र को लिखा था-राम नाम मेरे लिए जीवन अवलम्बन है, जो हर विपत्ति से पार कराता हैं जब तुम्हारी वासनाएँ तुम पर सवार हो तो नम्रता पूर्वक भगवान को सहायता के लिए पुकारों, तुम्हें सहायता मिलेगी।”

जब मन दुर्बल हो रहा हो, मनोविकार बढ़ रहे हो और लगता हो कि पैर अब फिसला-तब फिसला, तो सच्चे मन से प्रभु को पुकारना चाहिए। गज को ग्राह के चंगुल से छुड़ाने वाले भगवान-पतन से परित्राण पाने के लिए व्याकुल आर्त भक्त की पुकार अनसुनी नहीं करते है और उस मनोगत के रूप में अन्तःकरण में उतरते है, जिसे गरुड़ कह सकते है और जो पतनोन्मुख दुष्प्रवृत्तियों के सर्पों के उदरस्थ करते रहने का अभ्यासी हैं

भगवान को आत्म-समर्पण करने की स्थिति में जीव कहता है- तस्यैवाहम् (मैं उसी का हूँ) तवैवाहम् (मैं तो तेरा ही हूँ) यह कहते-कहते उसी में इतना तन्मय हो जाता है, इतना घुल−मिल जाता है कि अपने आप को विसर्जन, विस्मरण ही कर बैठता है और अपने का परमात्मा का स्वरूप ही समझने लगता हैं तब वह कहता है। त्वमेवाहम् (मैं तो तू ही हूँ) शिवोऽहम् (मैं ही शिव हूँ) ब्रह्मास्मि (मैं ही ब्रह्म हूँ)।

भगवान को अपने में और अपने को भगवान में समाए होने के अनुभूति की जब इतनी प्रबलता उत्पन्न हो जाय कि उसे कार्यरूप में परिणत किये बिना रह ही न सकें, तो समझना चाहिए कि समर्पण का भाव सचमुच सजग हो उठा। ऐसी शरणागति व्यक्ति को द्रुतगति से देवत्व की ओर अग्रसर करती है और यह गतिशीलता इतनी प्रभावकारी होती है कि भगवान को अपनी समस्त दिव्यता समेत भक्त के चरणों में शरणागत होना पड़ता है। यों बड़ा तो भगवान ही है, पर जहाँ तक प्रार्थना, समर्पण और शरणागति की साधनात्मक प्रक्रिया का सम्बन्ध है, इस क्षेत्र में भक्त को बड़ा ओर भगवान को छोटा माना जाएगा, क्योंकि अकसर भक्त के संकेतों पर भगवान को चलते हुए देखा गया हैं


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