आत्मविज्ञान की तो सही जानकारी हो

January 1999

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अध्यात्म-विज्ञान का सारा ढाँचा इसी प्रयोजन के लिए खड़ा किया गया है। मनुष्य अपने उच्चस्तर से अपनी दुर्बलताओं के कारण ही अधःपतित होता है और दुख, क्लेश भरा नरक भोगता है। मनुष्य को इस विश्व के साथ सम्पर्क बनाकर समानुभूति प्राप्त करने के तीन उपकरण मिले हुए है। यदि वह उनका ठीक तरह उपयोग जान सके तो उसे पग-पग पर यह अनुभव हो कि यह संसार कितना सुन्दर हो कि यह संसार कितना सुन्दर और जीवन कितना मधुर है। इन तीन उपकरणों के नाम है- अन्तरात्मा मन, इन्द्रिय समूह।

इन्द्रियों की बनावट ऐसी अद्भुत है कि दैनिक जीवन की सामान्य प्रक्रिया में ही उन्हें पग-पग पर असाधारण सरसता अनुभव होती है। पेट भरने के लिए भोजन करना स्वाभाविक है। भगवान की कैसी महिमा है कि उसने दैनिक जीवन की शरीर यात्रा भर की नितान्त स्वाभाविक प्रक्रिया को कितना सरस बना दिया है। उपयुक्त भोजन करते हुए जीव को कितना रस मिलता है और चित को उस अनुभूति से कैसी प्रसन्नता होती है।

आँख का साधारण काम है वस्तुओं को देखना ताकि हमारी जीवन-यात्रा ठीक तरह चलती रह सके। पर आँखों में कितनी अद्भुत विशेषता भर दी है कि वह रूप, सौंदर्य, कौतुक, कुतूहल जैसी रसभरी अनुभूतियाँ ग्रहण करके चित को प्रफुल्लित बनाती है। संसार में उत्पादन, परिपुष्टि, विनाश का क्रम नितान्त स्वाभाविक है। मध्यवर्ती स्थिति में हर चीज तरुण होती है और सुन्दर लगती है। क्या पुष्प, क्या मनुष्य हर किसी को तीनों स्थितियों में होकर गुजरना पड़ता है मध्यकाल सौंदर्यप्रधान लगता है। वस्तुतः यह तीनों ही स्थितियाँ अपने क्रम, अपने स्थान और अपने समय पर सुन्दर है। पर आँखों को सुन्दर-असुन्दर का भेद करके मध्य स्थिति को सुन्दर समझने की कुछ अद्भुत विशेषता मिली हैं। फलस्वरूप जो कुछ उभरता हुआ विकसित, परिपुष्ट दीखता है सो सुन्दर लगता है। सुन्दर-असुन्दर का तात्त्विक दृष्टि से यहाँ कुछ भी अस्तित्व नहीं है। पर हमारी अद्भुत आँखें ही है जो अपनी सौंदर्यानुभूति वाली विशेषता के कारण हमारे दैनिक जीवन से सौंदर्य वाला भाग देखतीं आनन्द अनुभव करतीं, उल्लसित और पुलकित होती है तथा चित को प्रसन्न करती है।

इसी प्रकार जननेन्द्रिय की प्रक्रिया है। प्रजनन मक्खी-मच्छरों कीट-पतंगों बीज-अंकुरों में भी चलता रहता है। यह सृष्टि का सरल स्वाभाविक क्रम है, पर हमारी जननेन्द्रिय में कैसा अजीब उल्लास सराबोर कर दिया है कि संभोग के क्षण ही नहीं-उसकी कल्पना भी मन के कोने-कोने में सिहरन, पुलकन, उमंग और आतुरता भर देती है। तत्त्वतः बात कुछ भी नहीं है। दो शरीरों के दो अवयवों का स्पर्श-इसमें क्या अनोखापन है? क्या अद्भुतता है? क्या उपलब्धि है? फिर स्पर्श का कुछ प्रभाव हो भी तो उसकी कल्पना से किस प्रकार, क्यों, किसलिए चित को बेचैन करने वाली ललक पैदा होनी चाहिए? बात कुछ भी नहीं है। जननेन्द्रिय की बनावट में एक अद्भुत प्रकार की सरसता का समावेश मात्र है, जो हमें सामान्य स्वाभाविक दाम्पत्य जीवन के वास्तविक या काल्पनिक प्रत्यक्ष और परोक्ष क्षेत्र में एक विचित्र प्रकार की रसानुभूति उत्पन्न करके, जीने भर के लिए प्रयुक्त हो सकने वाले जीवन को निरन्तर उमंगों से भरता रहता हैं

ऊपर जीभ, आँख और जननेन्द्रिय की चर्चा हुई, कान और नाक के बारे में भी इसी प्रकार समझना चाहिए। इन्द्रिय समूह अपने रसानुभूति की विलक्षणता इसलिए धारण किये हुए है। कि सरस, स्वाभाविक, सामान्य जीवनक्रम ऐसे ही नीरस ढर्रे का जीने भर के लिए ला हुआ प्रतीत न हो वरन् उसमें हर घड़ी उत्साह, उल्लास, हर, आनन्द बना रहे उसे उपलब्ध करते रहने के लिए जीवन की उपयोगिता, सार्थकता और सरसता का भान होता रहे। इन्द्रिय समूह हमें इसी प्रयोजन के लिए उपलब्ध है। यदि उनका उचित, संयमित, विवेकपूर्ण, व्यवस्थापूर्वक उपयोग किया जा सके, तो हमारा भौतिक-साँसारिक जीवन पग-पग पर सरसता, आनन्द उपलब्ध करता रह सकता है।

दूसरा उपकरण मन इसलिए मिला है कि संसार में जो कुछ चेतन है, उसके साथ अपनी चेतना का स्पर्श करके और भी ऊँचे स्तर की आनन्दानुभूति प्राप्त करे। इन्द्रियाँ जड़ शरीर से सम्बन्धित है। जड़ पदार्थों को स्पर्श करके उस संसर्ग का सुख लूटती है। जड़ का जड़ से स्पर्श भी कितना सुखद हो सकता है, इस विचित्रता का अनुभव हमें इन्द्रियों के माध्यम से होता है। चेतन का चेतन के साथ, जीवधारी का जीवधारी के साथ स्पर्श-संपर्क होने से मित्रता, ममता, मोह, स्नेह, सद्भाव, घनिष्ठता, दया, करुणा, मुदिता जैसी अनुभूतियाँ होती है। प्रतिकूल परिस्थितियों में द्वेष, घृणा जैसे भाव भी उत्पन्न होते हैं, पर उनका अस्तित्व है इसीलिए कि मित्रता के वातावरण में सम्पर्क, संसर्ग का आनन्द बिखरता रहे यदि अन्धकार न हो तो प्रकाश की विशेषता ही नष्ट हो जाय। वस्तुतः मन की बनावट दूसरों के सम्पर्क, सहयोग स्नेहभावों के आदान-प्रदान का सुख प्राप्त करने में है। मेले-ठेलों में, सभा-सम्मेलनों में जाने की इच्छा इसीलिए उठती है। उन जन संकुल स्थानों से व्यक्तियों की घनिष्ठता न सही समीपता का अदृश्य सुख तो अनायास मिलता ही है।

चूँकि इन्द्रिय सुख और जन-सम्पर्क की घनिष्ठता में सहायक एक और नया माध्यम सभ्यता के विकास के साथ-साथ बनकर खड़ा हो गया है, इसलिए अब प्रिय वह भी लगने लगा है-इस तीसरे मनुष्यकृत आकर्षण तत्व का नाम है-धन जिसमें स्वभावतः कोई आकर्षण नहीं। इसमें इन्द्रिय समूह या मन को पुलकित करने वाली कोई सीधी क्षमता नहीं है। धातु के सिक्के या कागज के टुकड़े भला आदमी के लिए प्रत्यक्षतः क्यों आकर्षक हो सकते है? पर चूँकि वर्तमान समाज व्यवस्था के अनुसार धन के द्वारा इन्द्रिय सुख के साधन प्राप्त होते है, मैत्री भी सम्भव होती है, इसलिए धन भी प्रकारान्तर रूप से मन का प्रिय विषय बन गया। अस्तु, धन की गणना भी सुखदायक माध्यमों से जोड़ ली गई है।

तीन शरीर को जीवात्मा धारण किये हुए है। तीनों की तीन रसानुभूतियाँ है। ऊपर दो की चर्चा हो चुकी। स्थूल शरीर की सरसता-इन्द्रियसमूह के साथ जुड़ी हुई है। आहार, निद्रा, भय, मैथुन जैसे सुख इन्द्रियों द्वारा ही मिलते है। सूक्ष्मशरीर का प्रतीक मन है। मन का सरसता मैत्री पर, जनसम्पर्क पर अवलम्बित है। परिवार मोह से लेकर समाज-सम्बन्ध नेतृत्व, सम्मिलन, उत्सव-सम्बन्ध नेतृत्व, सम्मिलन, उत्सव-आयोजन जैसे सम्पर्क परक अवसर मन को सुख देते है। घटित होने वाली घटनाओं को अपने ऊपर घटित होने की सूक्ष्म संवेदना उत्पन्न करके वह समाज की अनेक हलचलों से भी अपने बाँध लेता है और उन घटनाक्रमों में खट्टी-मीठी अनुभूतियाँ उपलब्ध करता है। उपन्यास, सिनेमा, अख़बार, रेडियो आदि मन को इसी आधार पर आकर्षित करते और प्रिय लगते है।

तीसरा रसानुभूति उपकरण है-अन्तरात्मा उसका कार्यक्षेत्र कारण शरीर है। उसमें उत्कृष्टता, उत्कर्ष, प्रगति, गौरव की प्रवृत्ति रहती है,जो उच्च भावनाओं के माध्यम से चरितार्थ होती है। मनुष्य की श्रेष्ठता और सन्मार्गगामिता प्रखर होती रहे, इसके लिए उसमें भी एक रसानुभूति विद्यमान है- उसका नाम है वर्चस्व, यश, कामना, नेतृत्व, गौरव-प्रदर्शन उस आकांक्षा से प्रेरित होकर मनुष्य अगणित प्रकार की सफलताएँ प्राप्त करता है, ताकि वह स्वयं दूसरों की तुलना में अपने श्रेष्ठ, पुरुषार्थी,पराक्रमी, बुद्धिमान अनुभव करके सुख प्राप्त करे और दूसरे लोग भी उसकी विशेषताओं, विभूतियों से प्रभावित होकर उसे यश, मान प्रदान करें।

संक्षेप में यह मनुष्य के तीन शरीरों की तीन रसानुभूतियों की चर्चा हुई। हमारी अगणित योजनाएँ, इच्छा, आकांक्षाएँ-गतिविधियाँ इन्हीं तीन मूल प्रवृत्तियों के इर्द-गिर्द घूमती है।

भूल मनुष्य की तब आरम्भ होती है, जब वह इन तीनों रसानुभूतियों को अमर्यादित होकर-अनावश्यक मात्रा में अति शीघ्र,बिना उचित मूल्य चुकाये प्राप्त करने के लिए आकुल-आतुर हो उठता है और लूट-खसोट की मनोवृत्ति अपनाकर अवांछनीय गतिविधियाँ अपना लेता है। विग्रह इसी से उत्पन्न होता है। पाप का कारण यही उतावली है। जीवन में अव्यवस्था और अस्त–व्यस्तता इसी से उत्पन्न होती है। पतन इसी भूल का परिणाम हैं अपराधी, दुष्ट और घृणित बनने का कारण उन उपलब्धियों के लिए अनुचित मार्ग को अपनाना ही है। उतावला व्यक्ति आतुरता में विवेक खो बैठता है और औचित्य को भूलकर बहुत जल्दी-अधिक मात्रा में उपर्युक्त सुखों को पाने के लिए असन्तुष्ट होकर एक प्रकार से उच्छृंखल हो उठता है। यह अमर्यादित स्थिति उसके लिए विपत्ति बनकर सामने आती है। सरल-स्वाभाविक रीति से जो शान्तिपूर्वक मिल रहा था-मिलता रह सकता था, वह भी हाथ से चला जाता है और शारीरिक रोग, मानसिक उद्वेग, सामाजिक तिरस्कार, आर्थिक अभाव आत्मिक शान्ति के संकटों से घिरा हुआ जीवन नरक बन जाता है। अधिक के लिए उतावला मनुष्य सरल-स्वाभाविक को भी खोकर उलटा शोक-संताप कष्ट-क्लेश एवं अभाव-दारिद्र्य में फँस जाता है। आमतौर से मनुष्य यह भूल करते है। इसी भूल को माया, अज्ञान, अविद्या नामों से पुकारते है। यह भूल ही ईश्वरप्रदत्त पग-पग पर मिलती रहने वाली सरसता से वंचित करती है और इसी के कारण जीवन ऊँचा उठने के स्थान पर नीचे गिरता है।

अध्यात्म विद्या का उद्देश्य मनुष्य के चिन्तन और कर्तृत्व को अमर्यादित न होने देने, अवांछनीयता न अपनाने के लिए आवश्यक विवेक और साहस उत्पन्न करना है। मनुष्य अपने अस्तित्व को, लक्ष्य को, व्यवहार को सही तरह समझे। सही मार्ग को अपनाकर सही परिणाम उपलब्ध करते हुए, प्रगति के पथ पर निरन्तर आगे बढ़ता चले। अपूर्णता से पूर्णता में विकसित हो। यही मार्गदर्शन करना-इसका व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत करना, आत्मविद्या का मूल प्रयोजन है।

स्थूलशरीर का ठीक तरह उपयोग कैसे किया जाय? इन्द्रियसमूह को व्यवस्थित और सन्तुलित कैसे रखा जाय? पारस्परिक सम्बन्धों में औचित्य की, मर्यादा की रक्षा करते हुए अधिकाधिक स्नेह-सद्भाव कैसे प्राप्त किया जाय? आत्मोत्कर्ष की प्रगति और श्रेष्ठता की स्थिति कैसे प्राप्त हो? इन सब प्रश्नों का समाधान ढूँढ़ने के लिए आत्मविज्ञान की ही सहायता लेनी पड़ती है। अन्तरात्मा, मन और इन्द्रिय समूह का प्रयोजन और उपभोग इसी विज्ञान के आधार पर जाना जा सकता है। साँसारिक वस्तुओं का समुचित उपयोग कर सकने की जितनी अधिक और जितनी सही जानकारी होगी, उतनी भौतिक जीवन में सुविधा होगी पर जो जितना अनजान होगा वह उतना ही अभावग्रस्त, आपत्तिग्रस्त और असफल रहेगा। ठीक इसी प्रकार सुखी, सन्तुष्ट और समुन्नत जीवन जीने के लिए आत्मविज्ञान की सही जानकारी का होना आवश्यक है। इसके बिना हमारा चेतन तत्व खिन्न, पतित और दुर्गति की स्थिति में ही पड़ा रहेगा।


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