शिष्यत्व पैदा करने वाली महाक्रान्ति

January 1999

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कबीरदास अपने समय के महान दार्शनिक और द्रष्टा पुरुष थे। उन्होंने अपने पदों द्वारा जहाँ एक ओर सामाजिक कुप्रथाओं पर कुठाराघात किया है, वहीं दूसरी ओर उनमें इतने गंभीर भावों का समावेश किया है कि उन्हें यदि ठीक-ठीक समझा जा सके, तो व्यक्ति के भीतर महान क्रान्ति घटित हो सकती है।

ऐसे ही एक पद में वे कहते है-

“गूँगा हूवा बावला बहरा हूवा कान। पाऊँथैं पंगुल भया, सतगुरु मार्या बान।”

सामान्य संदर्भ में इसका इतना ही अर्थ हो सकता है कि जो गूँगा था, वह बोलने लगा; जो लँगड़ा था, वह चलने लगा- ऐसा गुरु का चमत्कार है; किन्तु इतना साधारण अर्थ कबीर के पदों का नहीं हो सकता। इसमें निश्चय ही कोई गंभीर भाव छुपा हुआ है। जब इसकी दार्शनिक विवेचना की जाती है, तब स्पष्ट हो जाता है कि कवि का संकेत किस ओर है। वास्तव में कबीर पहले एक दार्शनिक विवेचना की जाती है, तब स्पष्ट हो जाता है कि कवि का संकेत किस ओर है। वास्तव में कबीर पहले एक दार्शनिक है, फिर कवि। इसलिए दर्शन का भरपूर प्रयोग उनने अपने पदों में किया है।

प्रस्तुत पद में गुरु की महिमा का बखान करते हुए वे कहते है कि जब तक उनका सहयोग, संरक्षण और मार्गदर्शन नहीं मिलता, तब तक व्यक्ति नानाप्रकार के बन्धनों में बँधा रहता है। उसे पाशमुक्त करने वाला व्यक्ति गुरु की महत्ता आध्यात्मिक जीवन में गुरु की महत्ता असाधारण हैं। वहीं है, जो हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलता है, बन्धनों से मुक्ति दिलाता है एवं परतंत्रता से स्वतंत्रता की ओर छलाँग लगाने की प्रेरणा देता है। यह सब यदि न हो, तो मनुष्य कारावास के कैदियों की तरह तड़पता-छटपटाता रहेगा, किन्तु यह भी सच है कि उक्त बन्धन यदि जन्म-जन्मान्तरों जितना दीर्घकालीन हुआ, तो फिर मनुष्य को, बन्दी को वह स्थिति सुखकर प्रतीत होने लगती है एवं वह उसी अवस्था में रस अनुभव करने लगता है। यह विचित्र मानवी स्वभाव है।

आज से लगभग सवा सौ वर्ष पूर्व फ्राँस के क्रान्तिकारियों ने फ्राँस स्थित बैस्टील का किला तोड़ दिया। उसमें वहाँ के जघन्य अपराधी थे। ऐसे ही अपराधियों के लिए वह कारागृह बना भी था। उसमें कई लोग चालीस वर्ष से बन्द थे, तो कई पचास वर्ष से। किसी-किसी की तो मृत्यु भी वहीं हो गई। वह बाहर की दुनिया कारावास के बाद देख भी नहीं सकें अँधेरी कोठरियों में रहते-रहते वे उसके इतने अभ्यस्त बन गए कि जब उस किले को तोड़ा गया और उन्हें मुक्त किया गया, तो बाहर निकलकर वे बहुत कष्ट और दुःख अनुभव करने लगे। उनकी आँखें प्रकाश के समक्ष चौंधियाने लगी, उनकी आँखें प्रकाश के समक्ष चौंधियाने लगी, उनमें रोशनी बर्दाश्त करने क क्षमता न रही। वे असह्य कष्ट अनुभव करने लगे।

साँसारिकता में लिप्त व्यक्ति की स्थिति भी ऐसी ही है। वह उसमें इस कदर डूब जाता है कि अपना सर्वस्व उसी को मान बैठता है। इससे पृथक् होने की कल्पना से ही दुःख और विषाद की अनुभूति करने लगता। कारण एक ही है कि वह पदार्थ को जीवन का अभिन्न अंग मानने लगता और सुख-दुख की तलाश उसी में करता है, जबकि सच्चाई इसके विपरीत हैं आनन्द भीतर की वस्तु है, उसे बाहरी वस्तुओं से जोड़ना उचित नहीं। यह मूर्च्छना की स्थिति है, जिसमें व्यक्ति आनन्द के अजस्र स्रोत आत्मचेतना को भुलाकर पदार्थसत्ता की महत्ता को सर्वोपरि स्वीकार लेता है। इस दशा से उबारना गुरु का काम है।

इसलिए कबीर कहते है-गूँगा हूवा बावला, बहरा हूवा कान। अर्थात् सर्वसाधारण के अन्दर कुछ है, जो बिलकुल गूँगा है। सद्गुरु के सम्पर्क में आकर उसकी मूकता अचानक मुखर हो उठती है, वह बोलने लगती है। उसे शब्द मिल जाते है, वह निनादित होने लगती है।

यह निनाद किसका है? मुखरता किसकी है? अध्यात्म विद्या के आचार्यों का कथन है कि इसे हृदय की, अंतःकरण की वाणी माना जाना चाहिए, जब तक वह अपरिष्कृत अवस्था में पड़ा रहता है, तब तक उसकी वाणी उसका नाद सुनाई नहीं पड़ता, किन्तु परिष्कार प्रक्रिया से गुजर कर जब वह पूर्णतया प्रखर होता है, जो वहाँ का अनहद नाद स्वयमेव सुनाई पड़ने लगता है और उसकी मूकता समाप्त हो जाती है।

कबीर कहते है कि मनुष्य का जो अंग सर्वसाधारण स्थिति में बोलता और विचारता है, सार उसमें नहीं है। वह तो एक प्रकार से अनर्गल प्रलाप है। उसकी तुलना विक्षिप्त के उन्माद से की जा सकती है। भौतिक दृष्टि से उसका भले ही महत्व हो, पर आध्यात्मिक जगत में हृदय की चर्चा होती है, जबकि भौतिक दुनिया मन के इर्द-गिर्द घूमती है। एक में हृदय का शासन है, तो दूसरा मन द्वारा शासित है। जहाँ मन का शासन है, वहाँ मलीनता अवश्य होगी। भौतिक संसार में इसी कारण से अनय, अत्याचार, पापाचार, दुराचार जैसी कितनी ही अवांछनीयताएँ संव्याप्त होती है, जबकि आध्यात्मिक संसार में हृदय का क्रिया-व्यापार होता है, इस कारण से वह इनसे मुक्त है।

रामकृष्ण कहा करते थे कि चील कितनी ही ऊपर आकाश में उड़ती रहे, फिर भी उसकी दृष्टि धरती पर पड़े मृत जानवर पर ही लगी रहती है। इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता कि उसका शरीर उत्तुंग ऊँचाइयों पर उड़ रहा है, पर मन फिर भी जमीन पर अटका रहता है, माँस के लोथड़े तलाशता रहता है। यह मन का स्वभाव ही है। उसे क्षुद्रता में -अधोगामी बनने में रस आता है। इसलिए मनीषियों का कथन है कि मन यदि ईश्वर -चिन्तन में निमग्न भी है, तो वह अपनी वासना पूर्ति का हिसाब-किताब उसके सामने प्रस्तुत करेगा और वही माँगेगा, जिसमें उसकी भौतिक संतुष्टि हो। उसकी यह माँग-चील के माँस के टुकड़े की तुलना में किसी भी कीमत जा सकती।

कबीर का कथन है कि जब सद्गुरु रूपी पारस का सान्निध्य प्राप्त होता है, तो अन्दर का वह हिस्सा बोलना प्रारंभ करता है, जो अब तक मौन था या यों कहें कि जिसे बोलने का मौका था या यों कहें कि जिसे बोलने का मौका ही नहीं दिया गया। यदि एक स्वस्थ आदमी की किसी पागल से मुलाकात हो जाए, तो यह निश्चित है कि वह उसे बोलने का अवसर न देगा। वह फूहड़ प्रलाप ही करता रहेगा और स्वस्थ व्यक्ति को उसकी बकवास सुनने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।

प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर दो हिस्से हैं- प्रलापी और शान्त, पागल और स्वस्थ, असभ्य और सभ्य, क्षुद्र एवं दिव्य। मनुष्य का असभ्य या क्षुद्र हिस्सा उसका मन है और हृदय उसका दिव्य भाग है। मन उस पर इस कदर हावी है कि वह बोल ही नहीं पाता, बोलना चाहता है, अपनी दिव्यता प्रकाशित करने को उत्सुक है, पर उसके लिए कोई अवसर ही नहीं है, जबकि केन्द्र वही है। मन तो परिधि है। संसार के क्रिया -व्यापार में उसकी आवश्यकता पड़ सकती है, लेकिन सत्य की शोध में अमृत-यात्रा में, ईश्वर-अनुसंधान में, मन से काम न चलेगा। वहाँ ‘हृदय’ चाहिए।

अब प्रश्न है कि यह हृदय व्यक्ति को कैसे मिले? उसे मुखर कौन बनाये और उसमें वाणी का संचार कैसे हो? रक्त-माँस का हृदय तो हर एक के पास है, पर यहाँ उस लप-डप करते माँस पिण्ड की चर्चा नहीं हो रही हो, जिसमें ममत्व की हिलोरें उठ रही हों, जहाँ प्रेम का शाश्वत साम्राज्य हो, जो सहयोग और सहकार के लिए मचल उठता हो, जहाँ पर-स्व में परिवर्तित हो जाता हो-ऐसे हृदय का विकास कैसे हो?

कबीर इसका इसका उत्तर देते हुए कहते है-सतगुरु मारया बान। अर्थात् गुरु की प्रेरणा, मार्गदर्शन, सान्निध्य और श्रद्धा से संभव है और उस कार्य से शक्य है, जिसे पूरा करने का दायित्व शिष्य के कंधों पर सौंपा है। इन्हें पाने और करने में यदि वह सफल हुआ, तो कबीर का उपलब्ध कर पाने में समर्थ होगा, जो वाणी सम्पन्न हो।

अब यदि हृदय मिल गया और उसे वाणी भी मिल गई, तो काम काफी आसान हो जाता है, उसे सुनना भर शेष रहता है। कान तो है ही, लेकिन अड़चन तने पर भी पूरी तरह समाप्त नहीं होती। हम भीतर की आवाज को नहीं सुन पाते, कारण कि जिस कान से उसे सुनने का प्रयास करते है, वह संसार के लिए तो उपयुक्त है, ध्यान के लिए नहीं। इसके लिए कोई ओर कान चाहिए, सुनने के लिए कोई और विधि एवं शैली चाहिए।

वह क्या हो? यह एक भिन्न तरीका है, जब पूरा व्यक्तित्व ही कान हो जाता है-बहरा हूवा कान। रोम-रोम और श्वास-श्वास जो बहरे पड़ गए है, वह कान की तरह ग्रहण और संवेदनशील बन जाएँ। नहीं, ऐसे काम नहीं चलेगा। उस विराट को सुनना ही हो तो पूरा कान ही हो जाना पड़ेगा। अर्थात् समग्र व्यक्तित्व को इतना शिष्ट और उत्कृष्ट बनाना पड़ेगा कि व्यष्टि और समष्टि चेतना में कोई फर्क ही न रह जाए। ऐसी स्थिति में शब्द ब्रह्म की अनुभूति कर पाना सरल ही नहीं, संभव भी बन जाता है। महावीर ने श्रावक की परिभाषा करते हुए यही कहा है कि जिसका समग्र व्यक्तित्व कान हो जाए, वही सच्चा श्रावक है। उसी प्रकार जिसका पूरा व्यक्तित्व आँख हो जाए, वह द्रष्टा है। जिसका पूरा व्यक्तित्व हृदय की पुलकन बन जाए, वह प्रेमी है निस्वार्थ और निर्विकार प्रेम इससे कम में संभव नहीं। इसलिए हमें अखण्ड बनना पड़ेगा, खण्ड-खण्ड से काम न चलेगा। इतना यदि हो सका, तो फिर शिष्य की अपंगता जाती रहेगी। अतएव कबीर कहते है-पाऊँ थैं पंगुल भया अर्थात् अब तक जो हिस्सा पक्षाघात की तरह पंगु बना हुआ, हिल-डुल न सकता था, वह अचानक चलने लगता है। यहाँ किसी चमत्कार की बात नहीं की गई है, अपितु आत्मजागरण की ओर इशारा किया गया है।

सतगुरु मारया बान। पर का यह अन्तिम चरण अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यह बाण क्या है? कोई साधारण धनुर्विद्या नहीं। सद्गुरु का ध्यान तो सदा निशाने पर, लक्ष्य पर, शिष्य पर ही लगा रहता है, पर कठिनाई यह है कि यदि लक्ष्य या शिष्य राजी न हुआ तो बाण चूक जाता है। अस्तु, तीर मारना यहाँ उतना सारगर्भित नहीं है, जितना उसे ग्रहण करना शिष्य में यदि श्रद्धा का चुम्बकत्व हो, तो बाण चाहे किसी भी अलक्षित दिशा में फेंक दिया जाए, वह शिष्य तक पहुँच जाएगा। उसे वह अपनी प्रबल श्रद्धा द्वारा खींच बुलाएगा। इसीलिए विशेषता और महत्ता यहाँ शिष्य की है। गुरु का तो हमेशा से प्रयास उसे ऊँचा उठाने का होता है, लेकिन शिष्य का सहयोग न मिले, तो उपर्युक्त पद चरितार्थ न हो सकेगा।

हम सच्चे शिष्य बनें-अध्यात्म का सम्पूर्ण सार इसी में है। हमारे अन्दर गुरु के प्रति श्रद्धा और समर्पण कितना है? यह तो अंतरंग पक्ष है, पर इसका एक हल्का-सा अनुमान उस कर्तव्यनिष्ठा और उच्च आदर्शों के प्रति प्रेम से लगाया जा सकता है, जो जीवनभर हमें बताया और सिखाया गया। यदि निज के अन्तराल में इसकी थोड़ी भी झलक-झाँकी मिले, तभी यह समझा जाना चाहिए कि कबीर के उपर्युक्त पर के तत्त्वदर्शन को हम आत्मसात् कर सके और शिष्यत्व की कसौटी पर खरे उतर सके, अन्यथा नहीं।


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