चित के त्याग से ही सर्वस्व का त्याग

January 1999

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अंगिरा के पुत्र सुमेध जब युवा हुए तो उनके मन में एक निश्चय जाग्रत हुआ। उन्होंने निश्चय किया, “ मैं जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होकर रहूँगा।” अपने प्रश्न के समाधान के लिए उन्हें अन्यत्र जाने की जरूरत ही नहीं थी। सुमेध अपने प्रश्न का उत्तर पाने के लिए अपने पिताश्री अंगिरा के सामने उपस्थित हुए।

पुत्र को एक विशेष मुद्रा में उपस्थित देखकर अंगिरा ने पूछा-बेटे अभी यहाँ उपस्थित होने का कारण बताओ “पिताश्री, मेरे मन में एक प्रश्न बहुत दिनों से उमड़-घुमड़ रहा है कि इस संसार -सागर से कैसे पार हुआ जा सकता है?”

“पुत्र!नाना अनर्थ रूपी संसार सागर से पार होने का एक ही उपाय है, सर्व त्याग!” महर्षि के इन वचनों में मानो स्वानुभूति सत्य की उद्घोषणा थी।

पिता का उपदेश सुनकर सुमेध ने सादर प्रणिपात किया और वन की ओर प्रस्थान किया।

महर्षि अंगिरा को पुत्र के वन गमन से कोई खेद नहीं हुआ, न कोई शोक हुआ और न कोई चिन्ता। पुत्र अच्छी और सच्ची राह पर जा रहा हो तो उससे किसी विचारवान पिता को प्रसन्नता ही हुआ करती है।

सुमेध को पितृगृह से गए आठ वर्ष बीत गए। कितना ही बड़ा ज्ञानी-विज्ञानी हो, लेकिन पिता के रूप में पुत्र की कुशलता जानने की इच्छा तो होती ही है। महर्षि जानना चाहते थे कि सुमेध इस समय किस दशा में है।

अंगिरा अपने पुत्र सुमेध का हाल-समाचार जानने के लिए तपोवन पहुँचे। पिता को सामने उपस्थित देखकर सुमेध अत्यन्त प्रसन्न हो गए। उन्होंने पिता को प्रणाम किया, उनकी अभ्यर्थना की और कहा-भगवान्! सर्व त्याग किए मुझे आठ वर्ष से कुछ अधिक ही हो गए, किन्तु मुझे अभी तक शान्ति नहीं मिली।”

महर्षि ने आदेश के स्वर में कहा-पुत्र सभी का त्यागी करो।” इतना कहकर वह अदृश्य हो गए। उनके अदृश्य होने पर सुमेध ने अपने शरीर पर से वल्कल भी उतार दिए। अब वह बिलकुल दिगम्बर-अवधूत बन गए। उन्होंने हिमालय स्थित वह आश्रम भी छोड़ दिया। धूप, शीत या वर्षा से बचने के लिए अब वे गुफा में भी नहीं जाते। एक स्थान पर वह नहीं रहते। उन अवधूत का अब न कोई आश्रय था, न आश्रम। अब वह क्षीणकाय हो गए थे।

सब कुछ छोड़ देने के बावजूद भी व्यक्ति का मन शांत नहीं होता। शान्ति का सम्बन्ध तो मन से है, वस्तु से नहीं। वस्तु दुखदायी भी हो सकती है और सुखदायी भी। सुख और दुख वस्तु में नहीं है, वह तो मन में है। सब कुछ छोड़ देने के बाद भी यदि लगता है कि मन शान्त नहीं हुआ तो निश्चित ही उसमें कोई फाँस फँसी रह गयी है।

इस तरह तीन वर्ष और बीत गए। महर्षि अंगिरा एक दिन फिर से सुमेध के सामने आए। इस बार उन्होंने पुत्र का स्नेहमय आलिंगन किया। सुमेध ने पिता से कहा-भगवान् मैंने आश्रम, वल्कल, कमण्डलु आदि सबका त्याग कर दिया है, किन्तु आत्मतत्त्व का ज्ञान मुझे अब तक नहीं हुआ है।”

महर्षि अंगिरा बोले-पुत्र चित ही सब कुछ है, तुम उस चित का ही त्याग करो। चित का त्याग ही सर्व त्याग कहा जाता है।”

महर्षि, सुमेध को उद्बोधित कर चले गए। सुमेध बैठकर सोचने लगे कि चित है क्या? और इसका त्याग कैसे किया जाय? बहुत सोचने-विचारने पर भी जब उन्हें चित का पता जाने की सोची। वे पिता से मिलने उनके आश्रम पहुँचे। प्रणाम के अनन्तर उन्होंने अपने मन को व्याकुल करने वाला प्रश्न पूछा-भगवन् आपने चित त्याग की बात कही थी, लेकिन चित है क्या? मुझे इसके स्वरूप के बारे में समझाइए।

महर्षि ने कहा-आयुष्मान् चित और कुछ नहीं, अपने अहंकार से लिपटे हुए संस्कार ही चित है। देह के प्रति जो अहंभाव है, यही त्याज्य है।” सुमेध के सामने एक समस्या और उलझ गयी। उन्होंने फिर पूछा-इस अहंकार का त्याग कैसे हो सकता है? मुझे तो यह असम्भव लगता है।”

अंगिरा हँस पड़े और बोले-पुत्र! अहंकार का त्याग तो एक सुकोमल पुष्प को मसल देने की अपेक्षा भी सुगम है। इस त्याग में कोई क्लेश है ही नहीं। जो वस्तु अज्ञान से उत्पन्न होती है, वह ज्ञान होने पर स्वतः नष्ट हो जाती है। एक ही चेतनसत्ता सर्वत्र व्याप्त है। उस साक्षी के अपरिचय के कारण देह में मोहवश अहंभाव हुआ है। साक्षी का परिचय होने पर स्वतः नष्ट हो जाएगा। जैसे रस्सी में सर्प की प्रतीति होती है, उसी प्रकार यह समस्त प्रपंच एक ही चेतनसत्ता में प्रतीत हो रहा है, वस्तुतः इसकी कोई सत्ता नहीं है। एक आदि-अनन्त-चैतन्य मात्र ही सत्य है। “

“एक ही चिन्मात्र सत्ता में यह दृश्यों क्यों हैं, कैसे हैं, इसका क्या स्वरूप है, यह बात अनिवर्चनीय है। क्योंकि जो वस्तु है ही नहीं, केवल भ्रम से प्रतीत हो रही है, उसका विवेचन सम्भव नहीं है। इस भ्रम में सदा सब समय निर्विकार रूप से जो अहं का ज्ञान है, वह अहं देह नहीं है, मन नहीं है। हे वत्स! देह में अहंभाव को त्याग का जो सबकी आधारभूत चितसत्ता है, ब्रह्म है, वही मैं हूँ। ऐसा निश्चय करो।”

महर्षि अंगिरा ने इस प्रकार सुमेध को उद्बोधित कर उसकी जिज्ञासा का समाधान कर दिया। सुमेध को उद्बोधित कर उसकी जिज्ञासा का समाधान कर दिया। सुमेध ने सम्पूर्ण अंतःकरण से पिता द्वारा दिए गए प्रकाश को ग्रहण किया। उनकी अहंता (अहंभाव) और ममता नष्ट हो गयी और वे शुद्ध आत्मतत्त्व में स्थित हो गए।


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