अहं व विद्वेष हैं अन्ततः घातक ही

January 1999

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उनके श्यामकर्ण अश्व की छापों से निर्जन वनप्रान्तर गूँज उठा। उस दिन भी वे नित्य की भाँति वनविहार के लिए निकल थे। वन में पहुँचे तो वहाँ वृक्ष के ऊपर एक पक्षी अत्यन्त कर्कश स्वर में बोलने लगा। उन्हें उसकी यह कर्कश ध्वनि अच्छी नहीं लगी। इन कर्कश स्वरों ने उनके सुप्त पड़े राज्याभिमान को जगा दिया। एक पल में वे प्रकृति प्रेमी इनसान से कौशाम्बी के राजाधिराज शूरसेन में बदल गए। उन्होंने इस पक्षी के कर्कश स्वरों को अपनी यात्रा में अपशकुन मानकर उस पर बाण छोड़ दिया। बाण के लगते ही वह पक्षी छटपटाता हुआ वृक्ष की टहनी से नीचे गिर पड़ा। महाराज उसके पास पहुँचे। पक्षी बाण के तीव्र प्रहार से छटपटा रहा था। उसे तीव्र वेदना हो रही थी। उसको तड़फता देखकर कौशाम्बी नरेश की हृदय पसीज उठा। उन्हें अपने व्यर्थ अभिमान पर पश्चाताप होने लगा।

वह पश्चाताप करते हुए आगे बढ़े, तो कुछ दूरी पर उन्होंने एक मुनिवर को ध्यान करते देखा। वह मुनि के पास पहुँचे और घोड़े से उतरकर उन्हें प्रणाम किया। ध्यान समाप्ति के बाद मुनिवर ने राजा को दया-धर्म का महत्व समझाया। उन्हें एक निरपराध पक्षी को मारने का पश्चाताप तो हो ही रहा था। मुनि के उपदेश ने उनकी भावना को और भी जाग्रत कर दिया। उन्होंने सोचा कि जीवन में शान्ति तो मुनि के बताए मार्ग पर चलने से प्राप्त हो सकती है। यह सोचकर उन्होंने राज्य का परित्याग करके प्रव्रज्या ग्रहण कर ली।

कौशाम्बी नरेश शूरसेन दीक्षा लेने के बाद महामुनि कौशाम्बी बन गए। मुनि बनने के बाद उन्होंने अध्ययन शुरू कर दिया। वे अल्प समय में अनेक शास्त्रों के ज्ञाता बन गए। तीव्र तपस्या के कारण उन्हें तेजोलेश्या की प्राप्ति हो गयी। ज्ञानी और तपस्वी मुनि जिज्ञासुओं को उपदेश देते हुए विचरने लगे।

पक्षी मरकर भील बना। एक बार राजर्षि कौशल्य किसी वन में भ्रमण करते हुए जा रहे थे। मार्ग में वह भील मिला। मुनि को देखते ही पूर्व जन्म के वैर के कारण उसका रोष जाग पड़ा। उसने मुनि को पकड़कर उन्हें पीटना शुरू कर दिया। कुछ समय तक तो मुनि उसके प्रहारों को धैर्यपूर्वक सहते रहे, परन्तु यह धैर्य स्थायी न रह सका। मुनिवर ने विचार किया- यह दुष्ट तो लाठी पर लाठी मार रहा है। मैंने तो इसका कोई नुकसान नहीं किया। यह अकारण ही मेरे प्राण लेना चाहता है। मुनि का क्षात्र तेज जाग उठा। वे अपने मुनि-धर्म को भूल गए। क्रोध के आवेग में मुनि ने तेजोलेश्या उस पर छोड़ दी। एक क्षण में भील जलकर उसी वन में सिंह के रूप उत्पन्न हो गया।

महामुनि कौश्ल्य भ्रमण करते हुए उसी वन में पुनः पहुँचे। उस सिंह की मार्ग में मुनि से भेंट हो गयी। मुनि को देखते ही वह आगबबूला हो उन पर टूट पड़ा। महामुनि ने अपना बचाव करने के लिए उस पर तेजोलेश्या का प्रयोग किया। मुनि के इस तप-तेज से झुलस कर सिंह वहीं राख का ढेर हो गया।

सिंह का जीवन मरकर हाथी की योनि में जन्मा। हाथी बड़ा हुआ और उसी वन में घूमने लगा। एक बार फिर मुनिवर कौशल्या वन भ्रमण करते हुए उसी स्थान पर पहुँचे और एक वृक्ष के नीचे ध्यान करने लगे। हाथी उधर से निकला। उसकी दृष्टि ध्यानस्थ मुनिवर पर पड़ी। पूर्वजन्म के वैर के कारण हाथी उन्मत्त हो मुनि पर झपट पड़ा हाथी की चिंघाड़ सुनते ही मुनिवर कौशल्य का ध्यान भंग हो गया। उन्होंने भयानक गर्जना कर दौड़ते आ रहें गजराज पर अपनी तेजोलेश्या छोड़ दी। तब शक्ति के प्रभाव से हाथी राख के ढेर में बदल गया।

हाथी मरकर साँड़ बना। वह साँड़ वन में घूम रहा था कि राजर्षि कौशल्य उसे फिर मिले। वैर के संस्कार गाढ़ से गाढ़तर होते जा रहे थे। साँड़ ने मुनि को सींगों से चीर डालने के लिए दौड़ लगायी, तो मुनि ने तुरन्त अपने का बचाया और तत्काल अपनी तेजोलेश्या का शस्त्र सम्भाला और उसे वहीं राख के ढेर में बदल दिया।

साँड़ मरकर सर्प की योनि में पैदा हुआ। संयोगवश सर्प की फिर मुनिवर से भेंट हो गयी। मुनि को देखते ही वह भयंकर फुफकार करते हुए उनकी ओर दौड़ा कि तभी मुनि ने फिर तेजोलेश्या से उसे वहीं समाप्त कर दिया।

सर्प मरकर एक ब्राह्मण के घर जन्मा। ब्राह्मण पढ़-लिखकर विद्वान हो गया। महर्षि कौशल्या भ्रमण करते हुए उसी ब्राह्मण के गाँव में पहुँचे और ग्रामवासियों के बीच उपदेश सुनाने लगे। मुनि के प्रभावशाली प्रवचन से सारा गाँव उनका प्रशंसक बन गया। किन्तु यह ब्राह्मण पूर्व जनम के द्वेषवश मुनिवर कौशल्य की सबके सामने निन्दा करने लगा। उन पर मनगढ़न्त दोष मढ़कर उन्हें लोगों के बीच अपमानित करता रहा। मुनि ने सहनशीलता का खूब परिचय दिया। मुनि की सहनशीलता से

उस ब्राह्मण का उत्साह बढ़ गया और वह उनकी भरपूर निन्दा करने लगा। एक बार मुनिवर कौशल्य गाँव वालों के बीच प्रवचन सुना रहे थे, ब्राह्मण युवक भी वहाँ उपस्थित हो गया। प्रवचन के बीच में वह मुनिधर्म की इतनी कटुनिन्दा करने लगा कि मुनिवर की सहनशीलता समाप्त होने लगी। उन्होंने सोचा कि यह मेरी सहिष्णुता का अनुचित फायदा उठा रहा है। इसको सजा मिलनी ही चाहिए। यही सोचते हुए उन्होंने फिर से तेजोलेश्या का अचूक अस्त्र उस पर छोड़ दिया और सभा के बीच में ही उसे भस्म कर डाला। लोगों के समझाने पर मरते-मरते ब्राह्मण में मन में शुद्ध विचार आ गए। विचारों की शुद्धता के कारण वह अगले जनम में वाराणसी नगरी में ‘महाबाहु’ नाम का राजा बना।

राजा महाबाहु एक बार अपने महल के झरोखे में बैठे हुए नगर का निरीक्षण कर रहे थे। उसी समय वही मुनिश्रेष्ठ राजपथ से गुजर रहे थे। उन पर दृष्टि पड़ते ही राजा के मन में आया कि इस मुनि को मैंने पहले भी कहीं देखा है? यह सोचते-सोचते उसे अपने पिछले सात जन्मों का स्मरण हो आया। इन सात जन्मों में वह किस प्रकार एक मुनि के द्वारा बार-बार भस्म किया गया, यह सोचकर उसके मन को बड़ा आघात लगा। वह विचार करने लगा- यह सब क्रोध का ही दुष्परिणाम है। क्रोध मनुष्य को पशु बना देता है और वह पशुवत् व्यवहार करने लगता है। स्वयं को दूसरों की दृष्टि में पतित बना देता है। क्रोध और ग्लानि से सद्भावनाएँ विकृत हो जाती है। पूर्वजन्मों में क्रोध के कारण ही मैं मुनि पर आक्रमण करता रहा और मुनि कषाय के वशीभूत होकर मुझे मार डालते रहे। अब मुझे बैर की लंबी परम्परा को समाप्त कर देना चाहिए। बैर बैर कभी शान्त नहीं होता। अबैर से ही बैर शान्त नहीं होता। अबैर से ही बैर शान्त होता हैं चिन्तन करता हुआ राजा उठा और उसने अपने सेवकों द्वारा मुनि का पता लगवाया, किन्तु उनका कहीं पता नहीं लगा। अंत में राजा ने श्लोक का एक चरण बनाकर नगर में यह उद्घोषणा करवाई कि जो भी इस श्लोक के दूसरे चरण को पूरा कर देगा, उसे एक लक्ष स्वर्णमुद्राएँ दी जाएँगी।

इनाम की घोषणा सुनकर हर व्यक्ति उस श्लोक के दूसरे चरण की पूर्ति करता और उसे राजा को सुनाता किन्तु राजा को उससे सन्तोष नहीं होता। प्रत्येक के मुख पर श्लोक की ही चर्चा थी। दुकानों में मित्रों के बीच, घरों में, मन्दिरों में-यही नहीं जहाँ भी दो-चार दस-बीस आदमी इकट्ठा होते, श्लोक के दूसरे चरण की पूर्ति की चर्चा करते।

इन्हीं महर्षि कौश्ल्य भ्रमण करते हुए वाराणसी पधारे। नगर के बाहर वह एक उद्यान में ठहरे। इधर से एक किसान जा रहा था, जो अपनी धुन में उस आधे श्लोक को ऊँची आवाज में गा रहा था-

“विहगः शबरः सिंहों, द्वीपी संढः फणी द्विजः।”

मुनिवर श्लोक सुनते ही विचार-मग्न हो गए। उन्हें अतीत की सारी घटनाएँ एक याद आने लगी। क्रोधवश किए दुष्कृत्यों का उन्हें भी अत्यन्त पश्चात्ताप होने लगा। उन्होंने सोचा कि मैं। तो मुनि था, मुनि तो अपने शत्रु के प्रति भी मित्रभाव रखते है। मैंने संसार के बंधनों का अन्त करने के लिए ही प्रव्रज्या ली थी। किन्तु कषायवश मैंने साँसारिक बन्धन बढ़ाए ही। जब तक मेरे मन में राग-द्वेष की परिणति रहेगी, तब तक मेरा उद्धार नहीं हो सकता।

मुनि ने तत्काल किसान को अपने पास बुलाया और उस आधे श्लोक की पूर्ति करके कहा-जाओ यह आधा श्लोक तुम राजा को सुनाना। तुम्हें अवश्य इनाम मिलेगा। मुनि ने श्लोक पूरा किया-

ये नामी निहताः कोपात्, सकथं भविता ह हा॥

अर्थात् हनत! जिसने उन सबको क्रोधवश मार डाला, अब भविष्य में उसका क्या होगा?

आधा श्लोक याद करके किसान सजा के पास पहुँचा और श्लोक की पूर्ति सुनायी। श्लोक की पूर्ति सुनते ही राजा आश्चर्यचकित रह गया। वह जिस व्यक्ति से मिलना चाहता था, उसी व्यक्ति ने यह श्लोक की पूर्ति की राजा ने किसान को एक लाख स्वर्ण मुद्रा देते हुए कहा- सच बताओ, यह श्लोक किसने बनाया है? किसान ने क्षमायाचना करते हुए कहा-महाराज! एक मुनिश्रेष्ठ ने, जो इस समय नगर के बाहर उद्यान में ठहरे हुए है, उन्होंने ही इस चरण की पूर्ति की हैं

राजा तत्काल उठा और मुनि के पास पहुँच गया। मुनि को वन्दन कर वह अपने अपराध की क्षमायाचना करने लगा। मुनि को भी अपने दुष्कृत्यों का पश्चाताप हो रहा था। उन्होंने राजा से क्षमायाचना की। दोनों ने कषाय-कल्मष को धोकर मा का आदान-प्रदान कर अपने हृदय को निर्मल बनाया और जन्म-जनम की बैर परम्परा को समाप्त कर दिया।


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