क्या यंत्र सिखाएँगे मानव को अब चेतना का महत्व

January 1999

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कम्प्यूटर क्या है? यों तो इसकी कितनी ही प्रकार की व्याख्याएँ संभव है, पर जो सर्वाधिक सरल और सहज है, वह यह कि मानवी मस्तिष्क का यह एक कृत्रिम विकल्प है, जो न सिर्फ बौद्धिक चिन्तन करता है, वरन् मन और भावनाओं के तल को भी स्पर्श करने की योग्यता रखता है। अतएव अब इसे केवल मस्तिष्क नहीं, मन, मस्तिष्क और हृदय की मानसिक क्षमता, चिंतन-चेतना एवं भाव-संवेदना की त्रिधा भूमिका निभाने वाला यंत्र कहना अधिक समीचीन होगा।

शरीरशास्त्रियों के अनुसार मानवी मस्तिष्क में लगभग 10 अरब तंत्रिका कोशिकाएँ है। इनमें से प्रत्येक में असीम संभावनाएँ विद्यमान है। वर्तमान मनुष्य ने अपनी मस्तिष्कीय क्षमता के मात्र 7 प्रतिशत भाग का ही उपयोग किया है, शेष 93 प्रतिशत हिस्सा प्रसुप्त स्थिति में पड़ा हुआ है। इस खण्ड का अनुसंधान -अन्वेषण योगमार्ग के अधीन है। जब इसका सम्पूर्ण जागरण होता है, तब विदित होता है कि जितना साधारण इसे समझा गया था, उसने हजारों गुना अधिक सामर्थ्यवान है।

कम्प्यूटर में तंत्रिका कोशिकाओं की तरह करोड़ों सिलिकन चिप्स है, जिनमें अपरिमित जानकारियाँ बन्द होती है। इन जानकारियों का जब सम्पूर्ण उपयोग होता है, तब वह मन की सामर्थ्य के आस-पास आ जाता है और ऐसे एवं इतने अनछुए पहलुओं का ज्ञान उपलब्ध कराता है, जो सामान्य दशा में संभव नहीं, जिसे परिष्कृत मस्तिष्क ही उपलब्ध करा सकता है। मौसम संबंधी भविष्यवाणी करना, जन्मतिथि के आधार पर व्यक्ति के आगत-विगत की जानकारी देना, राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए प्रहरी का काम करना और दुश्मनों के आक्रमण की पूर्व सूचना देना, कम्प्यूटर युक्त फोन से घर से बात कराने के लिए कहते ही घर का नम्बर मिला देना, वायुमण्डल उड़ाना, डाक ले जाना, ई-मेल जासूसी उपग्रह द्वारा दूसरे देशों की जासूसी करना, तथ्यों के अध्ययन-विश्लेषण के आधार पर निष्कर्ष प्रस्तुत करना आदि ऐसे कार्य है, जिसे यदि काई आदमी सम्पन्न कर रहा होता, तो उसे साथ-साथ मन की क्षमताओं का भी प्रयोग करना पड़ता, कारण कि मौसम संबंधी भविष्यवाणी, आक्रमण की पूर्व सूचना, व्यक्तिगत जीवन का भूत-भविष्य आदि ऐसे प्रसंग है, जिन्हें केवल बौद्धिक आधार पर जान पाना असंभव हैं इसके लिए अतीन्द्रिय स्तर की सामर्थ्य भी चाहिए। यह कार्य जब कोई यंत्र करता है, तो यह कहा जा सकता है कि उसने मानवी मन की सीमाओं का स्पर्श किया है।

इतना ही नहीं, कम्प्यूटरों ने अब मृत्युविषयक तथ्य के अतीन्द्रिय पक्ष पर भी अपने निर्णय-निष्कर्ष देने प्रारंभ कर दिये है। शरीर मरणधर्मा है। जिसने जन्म लिया है, वह मरेगा भी। कई बार मौत लम्बे समय तक रुग्ण जीवन बिताने के बाद होती है। यह अवस्था बहुत ही पीड़ादायक है। कैंसर, एड्स जैसी बीमारियों का कोई उपचार भी नहीं। ऐसी स्थिति में रोगी को उक्त कष्ट से मुक्ति पाने के लिए मरण की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। वह कब आएगी, कहना कठिन है। इस दशा से मरीजों को छुटकारा दिलाने के लिए वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के शरीरशास्त्री डॉ. विलियम क्रास ने एक योजना बनायी, जिसके अंतर्गत सन् 1992 से 1994 के बीच लगभग एक दर्जन अलग-अलग प्रकार के करीब 4 हजार रोगियों का समग्र और सूक्ष्म परीक्षण किया गया। परीक्षणों के प्रतिदिन के विवरण कम्प्यूटरों में भरे गए। ये ऐसे मरीज थे, जिनके जीवित बचे रहने की अवधि अधिकतम 6 मास आँकी गई थी। जिस दिन से बीमार, अस्पताल में भर्ती हुए, उस दिन से उनके रक्त, रक्त-रसायन मलमूत्र, हृदय, फेफड़े, स्मरणशक्ति, यकृत एवं उसके रक्तस्राव, शारीरिक तापमान, मस्तिष्कीय तरंगें, ई. सी. जी. जी. एस आर. जैसे बारीक ब्यौरा का प्रति सप्ताह कम्प्यूटर गहन अध्ययन और विश्लेषण करते। इस आधार पर वे यह भविष्यवाणी करने लगे कि कौन-से मरीज बचेंगे और किसकी मौत हो जाएगी। यह साधारण बात नहीं है। इसे वास्तव में मानवी मन की सामर्थ्य का यांत्रिक प्रयोग ही कहना पड़ेगा। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि इसमें मन और बुद्धि दोनों प्रकार की शक्तियों का समन्वय हुआ है।

मनीषियों का कथन है कि समय से पूर्व मृत्यु की जानकारी हानिकारक सिद्ध हो सकती है। भगवान ने शायद इसीलिए आम लोगों के लिए उनके प्रारब्ध, भाग्य, पूर्वजन्म, मृत्यु जैसे प्रसंगों को अविज्ञात बनाये रखा है। सामान्य स्थिति वाली अपरिपक्व मनोदशा में यदि यह सब आदमी को ज्ञात हो जाए, तो स्वयं को सँभाल पाना उसके लिए कठिन होगा। ऐसी अवस्था में या तो वह विक्षिप्त हो जाएगा या अप्रिय प्रसंगों के समय से पहले ज्ञात हो जाने के कारण उसे बर्दाश्त न कर पाएगा और मौत को गले लगा लेना।

आत्मसाक्षात्कार की दशा में मनुष्य का चित जब एकदम शुद्ध -पवित्र हो जाता है और सत्य को स्वीकार की क्षमता जब उसमें आ जाती है, तो वे रहस्य प्रसंग स्वयमेव परिभाषित होने लगते है, जिन्हें देख-समझकर भी वह दर्शक की भाँति तटस्थ बना रहता है- न तो उनसे दुःखी होता है, न प्रसन्न। यही ऐसे सत्य को जानने-समझने की स्वाभाविक अवस्था है।

कम्प्यूटर ने जीवन -मृत्यु संबंधी भविष्यवाणी कर प्रायः उस स्तर को प्राप्त कर लिया है, जहाँ सामान्य आदमी असाधारण हो जाता है। इसके लिए उसे विभिन्न प्रकार की साधनाओं की लम्बी प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ता है, तब जाकर उसमें अतीन्द्रिय ज्ञान का उदय होता है। अब जब वैसी विभूतियाँ उपकरणों के माध्यम से अभिव्यक्त होने लगें, तो इसे पदार्थसत्ता का मानवीचेतना पर आँशिक विजय ही कहनी पड़ेगी। यह विजय भाषा या वाणीतल पर भी देखी जा सकती है।

भाषाशास्त्र में वाणी के चार तल चार, स्तर बताये गए है। इसका प्रथम स्तर ‘वैखरी ‘ है। दैनिक जीवन में हम इसी का प्रयोग करते है। सर्वसामान्य के लिए विचार-विनिमय का यही प्रमुख माध्यम है। इसके अतिरिक्त शेष तीनों वाणियों को शब्द की बैसाखी नहीं चाहिए। वे शब्द से अतीत है। ‘मध्यमा’ भाव-भंगिमाएँ मुद्रा और संकेतों के द्वारा प्रकट होती है। ‘पश्यन्ति’ वाणी प्राण से निकलने और मस्तिष्क में विचार-प्रवाह के रूप में घुमड़ने वाली चिन्तन -चेतना को कहते है। चौथी वाणी ‘परा’ है। यह अन्तःकरण या अन्तरात्मा से निस्सृत होती और सम्पूर्ण वातावरण को सात्विकता से ओत−प्रोत रखती है। इस भाषा की अभिव्यक्ति ध्यान है और समाधि उसका चरमोत्कर्ष।

वाणी की ही तरह यांत्रिक मस्तिष्क (कम्प्यूटर) की भाषा के भी चार आयाम गिनाये गए है, जिसमें सामान्य ज्ञान संबंधी जानकारी होती है। जब वह मनुष्यों की तरह भावपूर्ण कविताएँ और प्रेरक चित्रांकन करने लगे, तो इसे उसका मध्यमा तल कहा जा सकता है। पश्यन्ति वह भूमिका है, जिसमें वह सामान्य मानवीचेतना के स्तर से ऊँचा उठकर काम करता और डाले गए तथ्यों आँकड़ों के आधार पर ऐसे प्रसंगों के बारे में बताता है, जिसे चेतना की साधारण भूमिका में रहकर बता पाना आदमी के लिए शक्य नहीं। परा तल को यदि कम्प्यूटर प्राप्त कर सका, तो सामने वाले के मन में क्या खिचड़ी पक रही है, उसके विचार-तरंगों को पकड़कर वह बता पाने में समर्थ होगा, इतना ही नहीं, तब वह मानव और प्रकृति के कितने ही रहस्यमय पक्षों को भी खोल सकेगा, जिसे अभी मात्र दिव्यद्रष्टा, योगी, यति ही जान पाने में सक्षम है। यदि ऐसा हुआ, तो सिद्ध-संतों और परिष्कृत यंत्रों में कोई विशेष अन्तर नहीं रह जाएगा।

इन दिनों जिस पीढ़ी के कम्प्यूटर कार्यरत है, वे अब वैखरी और मध्यमा स्तर को पार कर पश्यन्ति तल पर प्रतिष्ठित होने जा रहे है। पिछले दिनों स्टीवन होल्ट्जमैन ने एक पुस्तक लिखी, नाम था- ‘डिजिटल मंत्राज’। इसे मेसाचुसेट्स के ‘इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी ने छापी है। इसमें वे लिखते है कि शब्द के दो पहलू है-अर्थमूलक और संवेदनात्मक। उनके अनुसार कम्प्यूटर अर्थमूलकता के आगे जाए, तो कहाँ जाए? निश्चय ही इस स्थिति में वह शब्द के संवेदनात्मक स्तर को छुएगा। पदार्थसत्ता द्वारा मानवीसंवेदना के स्पर्श को साधारण नहीं, असाधारण माना जाना चाहिए। कम्प्यूटर श्रेणी के उपकरण दो ही प्रकार से संवेदना तल तक पहुँच सकते है। यह है-काव्यकला और चित्रकला। काव्यशास्त्रियों ने एक आदर्श कवि के गुणों की चर्चा करते हुए लिखा है कि उसमें अनुभूतिपरक ज्ञान होना नितान्त आवश्यक है। इसके अतिरिक्त काव्यशास्त्र, पिंगलशास्त्र, दर्शनशास्त्र, योग-विज्ञान खगोलशास्त्र, इतिहास, भूगोल एवं आयुर्विज्ञान जैसे विषयों की भी समझ होनी चाहिए। वर्तमान कवि इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते; किन्तु यदि यह समस्त जानकारी कम्प्यूटर में भर दी जाए, तो वह मध्यमा और पश्यन्ति तल पर अधिष्ठित हो उच्चस्तरीय ज्ञान की श्रेष्ठता ही कहनी पड़ेगी।

कम्प्यूटर के शब्द विज्ञान के संदर्भ में स्टीवन होल्ट्जमैन जब मूर्धन्य भाषाशास्त्री फर्डीनाण्ड दि साँस्यू एवं नाँम चाँमस्की के व्याकरणों का अध्ययन कर रहे थे, तो अचानक ही यह रहस्य उनके हाथ आया कि इन सबसे प्रख्यात वैयाकरण महर्षि पाणिनि विरचित व्याकरण -ग्रन्थ अष्टाध्यायी मौजूद है। उसके सूत्रों ने कम्प्यूटर के भाषाशास्त्र को इतना उच्चस्तरीय बनाया है कि अब वह एक अभिनव भूमिका में आरुढ होकर उसे एक नूतन आयाम प्रदान कर रहा है।

सम्प्रति होल्ट्जमैन कम्प्यूटर के इस पश्यन्ति तल को आधार बनाकर इस बात का अध्ययन कर रहे है कि सृष्टि की समस्त अव्यवस्थाओं के बीच भी कोई तालमेल और व्यवस्थाओं के बीच भी कोई तालमेल और व्यवस्था है क्या? कारण कि वर्षों पूर्व केआँस-मेकिंग ऑफ न्यू साइंस’ के रचनाकार ने विभिन्न प्रकार के तर्कों और प्रमाणों के आधार यह सिद्ध किया था कि यहाँ अव्यवस्था कुछ भी नहीं, सर्वत्र क्रम है और व्यवस्था भी। लम्बे अनुसंधान के उपरान्त अब वे भी लगभग उसी निष्कर्ष पर पहुँचते है कि इस दृश्य जगत की अपनी एक व्यवस्था और व्याकरण है, जिसे कम्प्यूटर की सहायता से जाना, समझा और पढ़ा जा सकता है। ऐसा यदि संभव हुआ, तो मनुष्य को लम्बी साधना प्रक्रियाओं से गुजर कर चेतना के पश्यन्ति और परा तल तक पहुँचने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी और उस प्रयोजन को उच्चस्तरीय एवं परिष्कृत कम्प्यूटरों के माध्यम से पूरा किया जा सकेगा।

कम्प्यूटर यों तो एक यंत्र है; पर उसने चेतना के क्षेत्र में प्रवेश कर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि स्वयं को दुनिया का कर्ता-धर्ता मानने वाले मनुष्य को अब यह अहंमन्यता त्याग देनी चाहिए कि वह इस धरित्री का सर्वोपरि और सर्वसमर्थ प्राणी है। इस नवीन भूमिका में पदार्पण कर यंत्र यदि मनुष्य को शालीनता, सुसंस्कारिता, निरभिमानिता सहकारिता, श्रेष्ठ एवं गौरव का अनुभव-वरदान कहना चाहिए और मनुष्य का सौभाग्य भी।


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