भक्ति में अपार शक्ति

January 1999

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धन्नाजाट गाँव में ढोर चराने वाला एक साधारण -सा व्यक्ति था। पढ़ा-लिखा था नहीं। जितना कुछ आता था उससे अपनी जीवनचर्या किसी तरह चला लेता था। मन्दिर के महन्त जी ने उसे अपने मंदिर की गौओं को चराने हेतु नौकरी पर रख लिया। बदले में खाने के लिए थोड़ा आटा मिल जाता व मंदिर का प्रसाद। वर्ष में एक बार कपड़े आदि भी चढ़ावे में से मिल जाते थे। एकादशी आयी। महंत जी ने कहा-देख धन्ना! तुझे जो आटा देते है उसके टिक्कड़ बनाना, पर खाना भोग लगाकर। ठाकुरजी को भोग अर्पित करके ही भोजन करना दिनभर जल पीकर रहना फिर भोग चढ़ा देना। धन्नाजाट ने 3 पाव के तीन टिक्कड़ सेके। ठाकुरजी का आह्वान करके भोग लगा दिया। रात्रि तक प्रतीक्षा करता रहा कि ठाकुर जी आएँ, भोजन लें तो हम खायें। शाम बीत गयी, रात्रि आ गयी। सरल हृदय भक्त ने सोचा कि कोई अपनी ही कमी रही होगी एवं टिक्कड़ नहीं में विसर्जित कर पानी पीकर वापस आ गया।

पंद्रह दिन बार फिर एकादशी आयी। महंतजी फिर बोले-देख ध्यान करके भोग लगाकर फिर आहार ग्रहण करना। आज फिर एकादशी का व्रत है। सोचने लगा धन्ना कि पंद्रह दिन पहले तो भूखे मरे थे। यह जल्दी-जल्दी एकादशी क्यों आती हैं? इस बार भी उसने दिनभर पानी पीकर गुजार दिया। शाम को भोग लगाया। टिक्कड़ वैसे ही रखे रहे-ठाकुर जी आए ही नहीं। इस बार भी नदी में डाल दिए। तीसरी बार फिर एकादशी व्रत आया। बोला धन्ना-ठाकुर जी खाते तो है नहीं, हम तो भूखे रह जाते है। महंत जी ने कहा हम लगाते है तो खा लेते हैं। तू भी भोग लगाकर खा ले। वह शब्द का मर्म तो नहीं समझ पाया। इतना समझ में आया कि महंत जी भगवान जी की खिलाकर ही खाते है। एक हम ही अभागे है। दिन भर प्रतीक्षा करता रहा- जब रात्रि होने को आई तो विकल होकर इस भाव से कि हमसे ठाकुरजी रूठे हुए हैं-भोग हमारा स्वीकार नहीं करते-आत्महत्या का भाव मन में रख तालाब में डूबने हेतु उद्यत हुआ। जैसे ही डूबते को था-उसने देखा कि जैसी तस्वीर बालकृष्ण की मोरपंखधारी रूप में महन्त जी के यहाँ है, वैसी ही शक्ल के कृष्ण-कन्हैया उसे उठाकर किनारे ला रहे है। बैठे कृष्ण-कन्हैया एवं प्रेम से भोजन किया। दो टिक्कड़ खा गये एवं तीसरे का एक टुकड़ा प्रेमपूर्वक धन्ना को खिला दिया। प्रसन्न मन से भले ही भूख ही सही-धन्ना वापस मंदिर आ गया।

अगली एकादशी फिर आ गयी। धन्ना बोला-महंत जी! इस बार आटा ज्यादा देना। कन्हैया को भोग लगाते है तो हमारे लिए बचता। महंत जी ने सोचा श्रम थोड़ा ज्यादा ही करता है। भूख लगती है। उनने डेढ़ सेर आटा दिया। कृष्ण भगवान इस बार राधाजी के साथ पधारे। भोग लगाया गया- प्रेम से खाया गया। भगवान बोले-इस बार आटा ज्यादा लाना। हम सारे ग्वाल-बालों-सखाओं के साथ आयेंगे। धन्ना परेशान हो गया। 10-12 दिन निकल गए। एकादशी का दिन फिर आ गया। धन्ना महंत जी से बाला-इस बार एकादशी पर हमें मत भेजना। भगवान भोग तो स्वीकार कर लेते है पर आते है पूरी फौज के साथ, हम तो भूखे रह जाते है। महंत जी को शंका हुई कि कहीं यह आटा बेच तो नहीं देता। उनने अधिक आटा दे दिया व जाने को कहा। फिर छिपकर उसका पीछा किया। उस दिन उसने टिक्कड़ बनाए-सारी फौज ब्रज से आयी थी। प्रेम से उसने खिलाए। महंत जी को कुछ नहीं दिख रहा था- मात्र इतना दिख रहा था कि टिक्कड़ गायब हो रहे है। खाने वाला कोई नहीं दिखा। बोले-धन्ना! कौन रोटी खा रहा है? धन्ना बोला- ठाकुरजी और कौन? महंत जी बोले-पर हमें तो कुछ नहीं दिख रहा। अरे धन्ना! ठाकुर जी वास्तव में भोग थोड़े ही लेते है। हम तो उनकी मूर्ति के सामने थाल रख देते है। उसके बाद भोजन ग्रहण कर लेते है। यह तो कोई प्रेतलीला है। तू भाग चल यहाँ से। धन्ना बोला-अरे महंत जी, आज तक आप हमसे झूठ ही बोलते रहे। तस्वीर को, मूर्ति को दिखाकर खुद खाते रहे व हमें भूखा रख पर हम तो साक्षात कन्हैया को भोजन करा रहे है। हमें समझ में नहीं आता, आपको क्यों नहीं दिखाई दे रहे।

धन्ना ने भगवान से शिकायत की कि आप महंत जी को क्यों नहीं दर्शन दे रहे। उन्हीं की बदौलत तो हम रोटी खाते है। आप कृपया इन्हें भी दर्शन दे। भगवान ने धन्ना से कहा- महंत में भाव की सरलता नहीं है। वे साधना-तपश्चर्या करे तो ही हम दर्शन देंगे। इतना कहकर भगवान अंतर्ध्यान हो गए।

धन्ना जाट की यह कथा हमें भक्ति का मर्म सिखाती है। भगवान सरलता से, कपट रहित जीवन जीने से मिलते है। एक सामान्य-सा व्यक्ति भी चाहे तो भगवत्सत्ता का साक्षात्कार अपनी ईश्वरोन्मुखी भावनाओं व सरल निष्कपट जीवनचर्या के बल पर कर सकता है। पर वे ज्ञानी-तार्किक-विद्वान महंतों-बड़े-बड़े दिग्गजों के लिए सदैव दूर है। भगवान की भक्ति बुद्धि के कुचक्रों के जाल बुनने वालों के द्वारा, मात्र कर्मकाण्ड में लीन बहिरंग का दिखावा करने वालों के द्वारा संभव नहीं होता। यदि हमें मंत्रजप नहीं आता, कर्मकाण्डों की रटन हमें नहीं आती किंतु हृदय में आकुलता है-भावों की विकलता है-पाने की अभीप्सा है। एवं अंतरंग में निर्मलता है, तो लक्ष्यसिद्धि में जरा भी विलम्ब नहीं। लक्ष्यसिद्धि में जरा भी विलम्ब नहीं। श्रीरामचरितमानस में इसी तथ्य को नवधा भक्ति के अंतर्गत ‘नवम सरल सब सन छल हीना’ नाम से भगवान श्री राम ने भक्त शबरी के समक्ष प्रस्तुत किया है।


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