अबला नहीं, रणचण्डी

January 1999

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लाड़-प्यार में उसे सब ‘रतन’ कहकर पुकारते थे। वैसे उसका नाम था रतनकुमारी। जैसलमेर के राजा राजसिंह की वह इकलौती सन्तान थीं। जैसा नाम वैसा ही गुण। वह बचपन से ही साहसी, समझदार और निर्भीक थी। बालपन से ही उसने शास्त्र शिक्षा के साथ शस्त्र शिक्षा का भी अभ्यास किया था। बचपन के वे पल पलक झपकते ही बीत गये। सुख का काल बीतने में क्या पता चलता है। छोटी-सी ‘रतन’ बड़ी हो गयी। राणा राजसिंह को चिन्ता ने घेर लिया। एक दिन उन्होंने राजपुरोहित को बुलाकर कहा-ब्राह्मण देवता! अब रतन सयानी हो गयी हैं उसके लिए उपयुक्त वर खोज लाइए।

जो आज्ञा महाराज! इतना कहकर पुरोहित जी चले गए।

राणा राजसिंह को एक ओर पुत्री के विवाह की चिन्ता घेरे हुए थी, दूसरी ओर दिल्ली का बादशाह औरंगजेब अपनी विशाल सेना सहित जैसलमेर पर आक्रमण कर उसे जीतने के लिए दिल्ली से प्रस्थान कर चुका था। वह जैसलमेर से कुल पाँच कोस ही दूर रह गया था कि राणा राजसिंह को युद्ध की चुनौती मिली।

बादशाह की चुनौती मिलते ही राजसिंह ने तुरन्त ही मंत्रीपरिषद और मुख्य सभासदों की बैठक आमंत्रित कर स्थिति पर विचार किया। अंत में उन सब लोगों ने निर्णय किया कि राणा जो स्वयं अपने विश्वासी सरदारों के साथ दुर्ग छोड़कर बाहर निकल जाएँ, और छापामार गोरिल्लापद्धति अपनाकर यवन सेना को हैरान व परेशान करें। कारण कि बादशाह औरंगजेब की विशाल वाहिनी के समक्ष हम मुट्ठी भर राजपूत आमने-सामने कत तक टिक पाएँगे। यवन सेना दुर्ग को घेर लेगी तो दुर्ग वासी बिना मौत मारे जाएँगे।

प्रश्न उपस्थित हुआ कि दुर्ग की रक्षा का भार किसे सौंपा जाए? राणा के कोई पुत्र नहीं था। सेनापति इतना बहादुर और क्षमता वाला नहीं था कि उसका भरोसा किया जा सकें। क्या किया जाए? एक गम्भीर सवाल था। राणा राजसिंह चिन्ता में पड़ गए। उनके मुख की दीप्ति विलीन हो गयी। उन्होंने सरदारों-सामंतों को सम्बोधित करते हुए कहा-जो वीर प्रतिज्ञा करे कि मैं अंतिम श्वास तक दुर्ग की रक्षा करूँगा, मैं उसके भरोसे यह दुर्ग सौंपकर युद्ध हेतु मैदान में जाना चाहता हूँ। राणा के आह्वान पर सभी सामन्त मौन रहे। सबका मस्तक नीचे की ओर झुक गया। एक भी सरदार उत्तरदायित्व लेने आगे नहीं आया। यह देखकर जैसलमेर नरेश राजसिंह क्रोधित हो उठे, वह बोले-क्या जैसलमेर नरेश राजसिंह क्रोधित हो उठे, वह बोले-क्या जैसलमेर शूरवीरों से खाली है।? यहाँ ऐसा कोई भी शूरवीर नहीं है, जो दुर्ग की रक्षा का भार ग्रहण कर सके।

सोने की थाली में पान का बीड़ा रखकर स्वयं राणा उसे एक-एक सरदार के सामने ले गए। वह कहते जा रहे थे- हैं कोई अपनी माँ का सपूत? आज समय है अपनी वीरता के प्रदर्शन का, अपना दायित्व निभाने का? माँ के आँचल की लाज रखने का! लेकिन राणा की ये चुनौतियों बेअसर रहीं। किसी ने अपनी दृष्टि ऊपर नहीं उठाई। उनके होंठ भगवान की प्रार्थना के लिए फड़के और वे हारे-थके से जाकर अपने राज-सिंहासन पर बैठ गए।

सेनापति राणा के सम्मुख आया और बोला-महाराज आप यह बीड़ा मुझे दे दें। राणा ने बुझे मन से कहा- मुझे यह बीड़ा किसी को तो देना ही है। परन्तु मुझे इस बात का दुःख है कि क्या जैसलमेर का पानी इतना अधिक निस्तेज हो गया है कि मेरे सरदारों का ऊष्ण रक्त भी ठण्डा हो गया। यह कहते हुए वह क्रोध और भावावेश में थर-थर काँपने लगे। उन्होंने निःश्वास छोड़ते हुए पुनः कहा-धिक्कार है जैसलमेर के शूरो-सामंतों को।

वह आगे कुछ और कहते, इतने में विद्युत वेग से राजकुमारी रतन वहाँ आ पहुँची। उसके हाथ में चमकती तलवार और कंधों पर धनुष और तरकश था। सभी सरदार निर्निष दृष्टि से राजकुमारी रतन को देखते रह गए। रतन ने राणा राजसिंह की चरणरज माथे से लगाते हुए कहा- आप ऐसे कातर वचन न कहें पिताश्री! आप निश्चिन्त होकर युद्ध के लिए प्रस्थान करें। दुर्ग की रक्षा का उत्तरदायित्व मुझे सौंपे। मैं शरीर के रक्त की आखिरी बूँद तक अपनी मातृभूमि की रक्षा हेतु अर्पित रहूँगी। जब तक मेरे लिए शरीर में प्राण रहेंगे, तब तक किसी शत्रु की मजाल नहीं है, जो वह जैसलमेर के दुर्ग में पाँव रख सके।

अपनी लाड़ली कन्या की यह वीर वाणी सुनकर राणा गदगद हो गए। उनके नेत्रों में हर्ष के आँसू उमड़ आए। अपनी पुत्री को शाबाशी देते हुए वह बोले-शाबाश बेटी! परन्तु ऐसा कैसे हो सकता है? मैं तो तुम्हारे हाथों में मेंहदी रचाने के लिए लालायित हूँ, वे रक्त से रंगे जाएँ, इसकी तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकता हूँ।

रतन ने अपनी खुली तलवार की चमक निहारी तत्पश्चात सरदारों के निस्तेज तत्पश्चात सरदारों के निस्तेज मुख की ओर देखते हुए बोली-पिताजी नारी के साहस और शौर्य को आप कम करके न आँके। नारी आदिशक्ति माँ भवानी का अभिन्न अंश है। आप मुझ पर विश्वास करें। आप के नाम को मैं कलंक नहीं लगने दूँगी। आप निश्चिंत मन से दुर्ग की रक्षा का भार मुझे सौंपें।

रतन पुनः बोली-पिताजी अबला कही जाने वाली नारी प्रसंग उपस्थित होने पर सबला भी बन जाती है। आज मैं यह प्रतिज्ञा लेती हूँ कि जिस समय तक मेरे ऊपर दुर्ग की रक्षा का दायित्व रहेगा, तब तक मैं अविवाहित रहूँगी। मैं दुर्ग रूपी धरोहर की रक्षा का उत्तरदायित्व आपको पुनः सौंपूँगी अथवा अपनी जन्मभूमि की रक्षा में अपने शरीर का बलिदान दे दूँगी।

लाचार होकर राणा राजसिंह ने दुर्ग की रक्षा का भार अपनी बेटी रतन को सौंप दिया। अन्य सरदारों-सामंतों में भी इससे नया उत्साह उत्पन्न हुआ।

बादशाह औरंगजेब की सेना के साथ मुट्ठी भर राजपूतों ने बहादुरी के साथ युद्ध किया। उन्होंने यवन सैनिकों का भारी संख्या में संहार किया और उन्हें विजयी नहीं बनने दिया। बादशाह की फौज दुर्ग पर अधिकार करने के लिए आगे बढ़ी, परन्तु जैसलमेर का दुर्ग बहुत मजबूत था। उसके सारे द्वार राजकुमारी रतन कुमारी के आदेश से बन्द कर दिए गये थे। दुर्ग के सारे द्वारों के ऊपर के बुर्जों पर अनुभवी एवं विश्वासी सैनिकों की नियुक्ति की गयी थी, ताकि वे दुश्मन की किसी चाल या लालच में न आ सकें। इन वीर सैनिकों के लिए दुश्मनों की चाकरी की तुलना में स्वतन्त्रता हेतु बलिदान होना अधिक मूल्यवान था।

दुर्ग पर घेरा मुगल सेना को काफी समय बीत चुका था। परन्तु दुर्ग का एक कंकड़ भी टस से मस नहीं किया जा सका था। अपनी असफलता का अनुभव कर शाही सिपहसालार ने विचार किया कि जब बल से काम ही हो रहा है, तो छल का आश्रय लिया जाय। उसने जैसलमेर के एक राजपूत सैनिक को भारी लालच देकर अपने पक्ष में मिलाना चाहा। किंतु वह सैनिक देशभक्त था। उसने सारी बातें राजकुमारी को बता दीं।

राजकुमारी रतन को भी यवन सेनापति के साथ एक नई चाल चलने की इच्छा हुई। चालबाज़ को चालबाजी से ही परास्त करना चाहिए। उसने उस राजपूत सैनिक की सूचना के अनुसार तैयारी प्रारम्भ कर दी।

सायंकाल का समय था। दुर्ग के चारों ओर से यवन सेना लुके-छिपे ढंग से आगे बढ़ रही थी। मानो रतन को इस आक्रमण की कोई सूचना ही नहीं, ऐसा दर्शाते हुए उसने सेना के बढ़ने का कोई प्रतिकार नहीं किया। मुगल सैनिक किले तक पहुँच गए। वे दुर्ग की दीवार पर चढ़ने लगे। जब वे आधी दूर तक चढ़ आए, तब रतन ने अपने वीर सैनिकों को उन पर आक्रमण का आदेश दिया। तुरन्त ही दुर्ग की बुर्जियों से बाणों की वर्षा होने लगी। उबलते तेल की तीक्ष्ण धार से उनको जलाया जाने लगा। इस अचानक प्रतिकार से यवन सैनिकों में भारी भय व्याप्त हो गया। वे जान बचाने के लिए भागने लगे। अपनी इस बुरी हार से मुगल सेनापति को भारी धक्का लगा। वह सोचने लगा कि यदि उसकी इस असफलता की समूचा बादशाह को मिली, तो उसकी खैर नहीं।

सेनापति ने दूसरा कपट जाल बिछाया। उसने एक द्वार रक्षक को अपने पक्ष में मिलाने के लिए भारी मात्रा में सोना देते हुए लालच दिया कि तुम्हें यह कार्य होते ही दस गुना सोना दूँगा। परंतु रक्षक भी मातृभूमि का अनन्य भक्त था। उसने सेनापति से प्राप्त स्वर्ण रतन के समक्ष रखकर सारी बातें बतला दीं।

चूड़ावत जी! आपकी देश-भक्ति के लिए मैं आपका धन्यवाद करती हूँ। राजकुमारी रतन रतन उससे कहने लगी- हम लोगों के पास इस समय भारी अर्थसंकट है। इसलिए आप यवन सेनापति से भारी मात्रा में सोना प्राप्त करें। उसे गरज है इसलिए वह आपकी माँग मानेगा। उससे कहें कि वह अपने 50 सैनिकों को लेकर आए।

परन्तु.......। द्वार रक्षक के मन में संदेह उभरा। किंतु वह आगे कुछ कहता, इससे पहले ही रतन ने उसे समझाते हुए कहा- चूड़ावत जी! आप हिम्मत न हारें। अपने दुर्ग के नीचे वाले भाग में भूलभुलैया है। आप जैसे भी सम्भव हो उन्हें बहकाकर वहाँ पहुँचा दें। द्वाररक्षक राजकुमारी का अभिप्राय समझकर मुसकाता और वहाँ से चल दिया।

इधर रतन पूर्ण सावधान थी। उसने अपने सैनिकों को आदेश दे रखा था कि यवन सेनापति जैसे ही अपने सैनिकों के साथ दुर्ग के भूल-भुलैया में प्रवेश करे, वैसे ही तुम लोग प्रवेश द्वार बाहर से बन्द कर देना।

यवन सेनापति मन-ही-मन अनेकों दिवास्वप्न देखता हुआ दुर्ग की ओर बढ़ा, दुर्ग का द्वार खुला था। उसने द्वाररक्षक की माँग के अनुसार सोना तथा धन आदि दिया और कहा राजपूत वीर, तुम्हारी इस सेवा के बदले में बादशाह तुम्हें मालामाल कर देंगे। द्वाररक्षक ने भी कुछ ऐसे भाव प्रदर्शित किए मानो वह बहुत खुश हुआ हो। दुर्ग के गुप्तमार्ग में प्रवेश करते ही द्वाररक्षक ने अपनी मशाल बुझा दी।

अँधेरे में यवन सेनापति को यथार्थ का भान हुआ। उसने सारे प्रयास कर डाले, परन्तु वहाँ का एक शब्द भी दीवारों के बाहर नहीं गया।

दूसरी तरफ राणा राजसिंह ने भी पीछे से यवनों के ऊपर छापा मारा। भारी संख्या में मुगल सैनिक मारे गए। बादशाह औरंगजेब ने लाचार होकर महाराणा से सन्धि की। इकरारनामें पर दस्तखत हुए। यवन सेना कलंकित मुख लेकर विदा हुई।

विजयी महाराणा ने दुर्ग में प्रवेश किया। उनका स्वागत करने के लिए राजकुमारी रतन पूजा की थाली लेकर सामने आयी। महाराणा ने अपनी वीर पुत्री को गले से लगाया और भरे कंठ से बोले-मेरी रतन! जिस देश में तुम्हारी जैसी वीर पुत्रियाँ है, वह देश कभी भी गुलामी नहीं भोगेगा। बेटी तुम्हें देखकर आज हमें अनुभव हुआ- नारी केवल गृह की शोभा ही नहीं, वह देश और समाज की संरक्षक भी है। महाराणा के इस स्वर के साथ ही सरदारों ने भी राजकुमारी की जयनाद किया। भारत की नारी की गरिमा की जय-जयकार से आकाश गुँजित हो गया।


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