सच्चे अर्थों में महाराजा

January 1999

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अवन्ती नरेश भोज सायं-भ्रमण करते हुए गहन वन में पहुँचे। उस समय सूर्यास्त में थोड़ा ही समय बाकी था। सूर्य की स्वर्णिम रश्मियाँ वृक्षों के पत्तों को सुनहरे रंग में रंग रही थी। इस सुनहरी आभा से महाराजाधिराज भोज का शरीर भी रह-रहकर दमक उठता। एकाकी भ्रमण कर रहे महाराजा ने सामने से आते हुए लकड़हारे को देखा। उसके सिर पर लकड़ियों का भारी गट्ठर था। देह से पसीना चूँ रहा था, कपड़े फटे-पुराने व मैले-कुचैले थे। ऐसा लग रहा था, जैसे उसने कई दिनों से स्नान नहीं किया हो। फिर भी उसके चेहरे पर तेज था। स्वस्थ व सुडौल शरीर उसकी परिश्रमशीलता को प्रकट कर रहा था। राजा भोज ने उसे ध्यान से देखा, किन्तु उसके मुख से ऐसा लगा जैसे उसने उन्हें देखा ही न हो। अपनी मस्ती में झूमता हुआ वह व्यक्ति अपने घर की ओर बढ़ा जा रहा था। उसकी इस मस्ती को देखकर महाराज को बहुत विस्मय हुआ। उन्होंने लकड़हारे का मार्ग रोका और पूछा-तुम कौन हो?

लकड़हारा अपने रास्ते पर चलता हुआ आनन्दमग्न हो बोल उठा-मैं महाराजाधिराज हूँ। क्या तुम मुझे नहीं जानते? और अपनी बात की प्रतिक्रिया जाने बिना वह आगे कदम बढ़ाने लगा।

महाराज भोज के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। वह सोचने लगे-वाह कैसा अद्भुत व्यक्ति है, जो अवन्ती नरेश के सामने भी अपने को निश्चिन्तता से महाराजा कहता है। भोज उसके मार्ग के ठीक बीच में खड़े हो गए और विस्मय के साथ बोले-यदि तुम महाराजाधिराज हो, तो बतलाओ तुम्हारी आय क्या है? अल्हड़ से लकड़हारे ने कहा-प्रतिदिन छह टके।

अब तो भोज का आश्चर्य और भी बढ़ गया। वह सोचने लगे, प्रतिदिन लाखों स्वर्ण मुद्राओं की आय के बावजूद भी मुझे शान्ति नहीं है और यह छह टके में भी स्वयं को महाराजाधिराज कहता है। उन्होंने अगला प्रश्न किया-तो बतलाओ, तुम्हारे खर्च का क्या हिसाब है? यदि तुम महाराजाधिराज हो तो खर्च की भी व्यवस्था होगी? उसका ब्यौरा भी तो बतलाओ।

लकड़हारे ने भारी बोझ को नीचे गिरा दिया और ताल ठोक कर खड़ा हो गया। उसने कहा-मेरे छह टके का लेखा-जोखा भी बहुत व्यवस्थित है। मैं प्रतिदिन एक टका अपने बोहरे को, एक टका अपने आसामी को, एक टका मंत्री को तथा एक टका खजाने को देता हूँ। केवल एक टका अतिथि-सत्कार में व्यय करता हूँ।

आश्चर्य ने और अधिक आश्चर्य को उभार दिया। राजा भोज ने उससे सवाल किया-तुम्हारा वोहरा कौन है?

लकड़हारे ने सहजता से उत्तर दिया-मेरे माता-पिता उन्होंने खून-पसीना एक करके मेरा भरण-पोषण किया था। आखिर इसीलिए कि बुढ़ापे में मैं उनकी सेवा करूँगा। बोहरा आसामी को इसी आशा में ही तो ऋण देता है कि समय पर ब्याज सहित मूल राशि भी लौट आएगी।

तुम्हारे आसामी कौन है? राजा ने कुछ तेज स्वर में पूछा।

लकड़हारे ने उसी मस्ती में कहा-मेरे पुत्र तथा पुत्रियाँ। अभी वे कमा नहीं सकते। अतः उनके भरण-पोषण का सारा दायित्व मेरे ऊपर है। बड़े होकर वे मेरे ऋण को चुकायेंगे।

राजा भोज ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा-बहुत सुन्दर। परन्तु तुम्हारा मंत्री कौन है?

मन्त्री का कार्य होता है- मंत्रणा देना, सुख-दुःख में साथ देना तथा उदासी व चिन्ता के समय धैर्य बँधाना।

सर्वतोभावेन समर्पित होकर रहना। ऐसा व्यक्ति सहधर्मिणी के अतिरिक्त दूसरा कौन हो सकता? लकड़हारा दूसरा तत्काल उत्तर देते हुए स्पष्ट किया-मेरी पत्नी ही मेरी मंत्री है।

राजा भोज का अगला प्रश्न था-तुम्हारे पास खजाना भी है?

लकड़हारे ने बीच में ही बात को काटते हुए कहा-क्यों नहीं? खजाने के बिना भी भला किसी का काम चलता है? मेरा एक टका नियमित इसमें जाता है, ताकि आड़े वक्त पर काम आए। उसने अपने कथन को चालू रखते हुए कहा- एक टका मैं अपने शरीर पर भी खर्च करता हूँ। भूख-प्यास व शीत ताप आदि के निवारण के लिए अन्न तथा वस्त्र आदि की मुझे भी अपेक्षा होती है। अतिथि सत्कार भी मेरा परम धर्म है। मैं उसे कभी नहीं भूलता हूँ। क्यों? समझे मेरा सारा लेखा-जोखा

लकड़हारे ने घूर कर राजा भोज को देखा और कहा-क्यों मैं हूँ न महाराजाधिराज? तुमने नाहक मेरा समय बर्बाद कर दिया। उसने लकड़ियों का गट्ठर उठाया और अपने घर की ओर प्रस्थान करने लगा।

लकड़हारे की चाल में वही मस्ती थी, उसके मुख पर आनन्द की अनोखी आभा थी। उसने यह जानने की रत्ती भर चिन्ता नहीं की कि वह जिस व्यक्ति से बात कर रहा है, वह आखिर है कौन?

महाराज भोज के पाँव भी अपने राजमहल की ओर मुड़ चले। चलते-चलते वह सोच रहे थे, जो व्यक्ति परिश्रम से कमाता है, आय से अधिक व्यय नहीं करता। एक-एक पैसे का व्यवस्थित हिसाब रखता है, वही सुखी है। ठीक ही तो कह रहा था यह लकड़हारा-जो निश्चिन्तता से जीता है, व्यवस्था में रहता है, चिन्ता को नहीं ओढ़ता-सही मायने में वही महाराजाधिराज है।


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