भगवान बचाते आए हैं सदा से भक्तों की लाज

January 1999

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पति के अल्पायु में ही चल बसने से उसने अपना जीवन जप-तप-व्रत एवं ध्यान में ही लगा दिया था। वह तपोमयी बनकर अपना वैधव्य संयम से व्यतीत करने लगी और सत्कर्मों में लीन होकर सदा परमात्मा का स्मरण करती रहती। इसी कर्मठता पड़ गया। यह नाम इतना प्रचलित एवं प्रसिद्ध हुआ कि सभी लोग उसका मूल नाम ही भूल गए।

राजस्थान के बागर गाँव के निवासी विप्र पुरुषोत्तमदास की वह इकलौती पुत्री थी। पिता ने उत्साह के साथ अपनी पुत्री का विवाह किया। विवाह होने पर वह ससुराल गई। उस समय उसके हृदय में अनेक आशाएँ थी और थी पतिसेवा की अनोखी लगन। परंतु विधाता का विधान कुछ भिन्न ही था। क्रूर काल के प्रहर से कर्मठीबाई के पति का शीघ्र ही देहांत हो गया। परिवार में हाहाकार मच गया। उस पर तो मानों यह वज्रपात ही था। इस घटना से वह इतना विक्षिप्त हो गयी कि वह अपना मार्ग ही निश्चित नहीं कर पा रही थीं। उसको सुदीर्घ वैधव्य जीवन व्यतीत करना था। उसका अपार सौंदर्य आज उसका शत्रु बन गया। ऐसे में उसने आध्यात्मिक साधनाओं का आश्रय लिया और जीवन को तपोमय बनाकर कठोर तपस्या आरम्भ कर दी।

शुरुआत में तो उसने ससुराल में ही साधना प्रारम्भ की। परन्तु ससुराल में सभी स्वजनों के काल-कवलित हो जाने की वजह से उसने पीहर में पिता का आश्रय लिया। दुर्भाग्यवश यहाँ भी एक-एक करके सब चल बसे। भगवान की ऐसी लीला का भेद कर्मठीबाई नहीं समझ पायी। अन्त में सन्त हरिदास जी ने उसे समझाया कि भगवान श्रीकृष्ण अनाथों के नाथ है और निराधारों के आधार हैं। तू उन पर विश्वास रखकर उनकी भक्ति कर। सब ठीक होगा।

सन्त हरिदास के वचनों से कर्मठीबाई का साहस बँधा। वह तप, संयम एवं व्रत में लीन रहकर निर्मल जीवन व्यतीत करने लगी। उसके सौन्दर्य के साथ तप मिश्रित हो जाने से भक्तिमती कर्मठीबाई का जीवन अत्यन्त प्रभावशाली बन गया। संत हरिदास के स्वर्गवासी बनने के बाद वह श्रीवन में जाकर निवास करने लगी और महाप्रभु हित हरिवंश जी की शिष्या बन गयी। उन्होंने यहाँ एक कुटिया में भगवान श्रीकृष्ण की सुमनोहर मूर्ति स्थापित की और नित्य निरन्तर उनकी भक्ति में मग्न रहने लगी। यहाँ वह नित्य श्रीमद भागवत् का पाठ करती और सत्संग करती।

कर्मठीबाई के लिए उनका रूप लावण्य शत्रु बन गया। अनेकों लोग उन्हें तरह-तरह से सताने लगे। उस समय दिल्ली में शहंशाह अकबर का शासन था। उनके आदेश से मथुरा में हसन बेग की एक उच्च अधिकारी के रूप में नियुक्ति हो गयी। एक बार जब वह श्रीवन आया तब उसने स्नान करती हुई नवयुवती कर्मठीबाई को देखा। उसके रूप-लावण्य को देखते ही वह अपनी सुध-बुध भुला बैठा। उसका मन हाथ में नहीं रहा। उसने गुप्तचरों से पता लगवाया तो उसे ज्ञात हुआ कि वह एक बाल-विधवा ब्राह्मणी है। उसके ससुराल और पीहर में कोई नहीं होने से वह श्रीवन में रहती है। यह सुनकर वह अत्यन्त प्रसन्न हो गया और उसे अपने चंगुल में फँसाने के लिए प्रयत्न करने लगा।

हसन बेग ने इस कार्य के लिए दो दुष्ट स्त्रियों को प्रलोभन देकर अपने वश में किया। धन के लोभ में वे आकर इस कार्य में जुट गई। येन-केन-प्रकारेण कर्मठीबाई को फँसाने के लिए वे उसके साथ मिलने-जुलने लगीं।

उन दुष्ट स्त्रियों ने कर्मठीबाई को अपने जाल में फँसाने के लिए साध्वी महिलाओं का वेश धारण किया और वे दोनों उनके निवास स्थान पर आई। हाथ जोड़कर उन दोनों ने ‘जय श्रीकृष्ण ‘ कहकर कर्मठीबाई का अभिवादन किया। कर्मठीबाई तो सात्विक नारी थी। उन्होंने इन दोनों को साध्वी जानकर आसन दिया और पूछा आप दोनों कहाँ से आ रही है?

बहिन! हम दोनों बहिनें है। उनमें से एक अपने स्वर को अत्यधिक मधुर बनाकर कहने लगीं-हम वैसे तो उज्जैन की निवासी है, पर आत्मशान्ति के लिए वृन्दावन में निवास कर रही है। भगवान श्रीकृष्ण के गुणगान में ही हमें अपना जीवन व्यतीत करना है। कुटिया में बैठी-बैठी थक जाने के कारण वृन्दावन में निवास करने वाले संतों के साथ सत्संग करती है। आज प्रातः आपका नाम सुनकर आपके दर्शनार्थ उपस्थित हुई हैं।

कर्मठीबाई ने गदगद होकर कहा, आप दोनों से मिलकर मन में प्रसन्नता हुई। जब-जब समय मिले, तब-तब आप दोनों आती रहना आपके सत्संग से मुझे भी आनन्द आएगा।

इस तरह कर्मठीबाई के साथ इनकी घनिष्ठता हो गईं। एक दिन वे दोनों तनिक विलम्ब से आई। कर्मठीबाई ने विलम्ब से आने का कारण पूछा तो वे बोलीं-आज प्रातः एक सन्त आ गए थे। उनका आतिथ्य करने में समय लग गया। सन्त सचमुच ही दर्शन करने योग्य है।

तब मैं भी उनका दर्शन करना चाहूँगी। उसने बड़ी ही सहजता से कहा।

अवश्य, इस समय तो वे आराम कर रहे होंगे। आप मध्याह्न के पश्चात् तीन बजे आना। तीन बजे से पाँच बजे तक महात्मा जी से सत्संग करेंगी। अत्यन्त आनन्द होगा।

अच्छा तो मैं ठीक तीन बजे आपकी कुटिया पर पहुँच जाऊँगी। कर्मठीबाई ने कहा।

वे दोनों कुटिल स्त्रियाँ अपना पाँसा सीधा पड़ने के कारण प्रसन्न होती हुई हसन बेग के पास पहुँची और उसे सारा वृत्तांत बता दिया। आज तीन बजे कर्मठीबाई हमारी कुटिया में छिप जाएँ। जब वह आएगी, तब उसे भीतर बिठाकर हम दोनों बाहर निकलकर बाहर से कुटिया का द्वार बन्द कर देंगी।

योजना सुनकर हसन बेग बाग-बाग हो गया। वह शीघ्र आकर कुटिल स्त्रियों की कुटिया में छिप गया। समय होने पर कर्मठीबाई वहाँ आई। उन्होंने पूछा बहिन सन्त कहाँ है?

तनिक बैठो बहिन! उनमें से एक ने धूर्ततापूर्ण कहा-महात्मा जी अभी आ रहे है। आप इस आसन पर बैठों, मैं देख आती हूँ कि वे अभी तक क्यों नहीं आए?

कर्मठीबाई आसन पर बैठ गयी। महात्मा जी को बुला लाने के बहाने वह धूर्त स्त्री बाहर गयी और बाहर जाकर उसने द्वार बन्द कर दिया। कर्मठीबाई अभी तक इस सारे षड्यंत्र से पूर्णतया अनभिज्ञ थी। द्वार बन्द होते ही नर-पिशाच उनकी ओर बढ़ा। फिर तो वह सारी बातें समझ गयी कि यह तो उसे फँसाने के लिए रचा गया एक षड्यन्त्र है। भागने के लिए उन्होंने चारों ओर दृष्टि डाली तो द्वार बन्द था। बाहर निकलने का कोई मार्ग नहीं था। कर्मठीबाई घबराकर भगवान से प्रार्थना करने लगी, हे अन्तर्यामी दीन-दुखियों के रक्षक प्रभु! आज मेरी लज्जा आपके हाथ है। मुझ असीम अबला की रक्षा करो भगवन्।

हसन बेग कामान्ध बनकर उनके निकट आकर खड़ा हो गया। वह उनकी ओर एकबारगी झपटा हुआ बोला, मैं तुझे बनाकर सुख से रखूँगा। तू मुझसे दूर मत जा।

कर्मठीबाई ने उस नराधम को कहा, तू मुझसे दूर रह। जब तक मेरी देह में प्राण है, तब तक तो मेरा स्पर्श तक नहीं कर सकेगा। मैं तपस्विनी हूँ। तू मेरे शाप से जलकर भस्म हो जाएगा।

हसन बेग यह सुनकर ठठाकर हँसा और पैशाचिक क्रूरता के साथ कहने लगा, तुझे यहाँ बचाने वाला कोई नहीं है। तू क्यों अपना यौवन तपाकर नष्ट करने पर तुली है?

नराधम!तू मुझे छोड़ दे। यदि तूने आगे बढ़ने का प्रयास किया तो मैं शेरनी की तरह तुझ पर टूट पड़ूंगी।

कर्मठीबाई का विकराल रूप देखकर हसन बेग तनिक चौंका, पर कामान्धता से विवश उसने उसे पकड़ने के लिए अपने हाथ बढ़ाए कि इतने में उसे कर्मठी के बदले सचमुच ही एक सिंह दिखाई दिया। सिंह की भयानक दहाड़ सुनकर उसकी काम-वासना काफूर हो गयी। वह काँपने लगा। सिंह से बचने के लिए उसने भागने का प्रयास किया, परन्तु द्वार तो बाहर से बन्द था। भयभीत बना वह चिल्लाता रहा-खोलो-द्वार खोलो, पर कौन सुनता वे दोनों धूर्त महिलाएँ तो द्वार बन्द करके दूर चली गयी थीं। द्वार नहीं खुलने के कारण हसन बेग ने पीछे मुड़कर देखा तो एक भयानक सिंह उसकी ओर झपटने के लिए तत्पर खड़ा था। सिंह को अपनी ओर झपटने का मुद्रा में देखकर हसन बेग अचेत हो गया। कुछ समय के बाद वे दोनों धूर्त महिलाएँ कुटिया के समीप आयी। उन्होंने द्वार खोला तो हसन बेग को भीतर अचेत पड़ा देखा, परन्तु वहाँ कर्मठीबाई दिखाई नहीं दी।

कुछ क्षणों के बाद हसन बेग होश में आया। उसने भयभीत नजर से चारों ओर देखा ओर उन दुष्ट महिलाओं से कहा, मुझे यहाँ से दूर ले जाओ अन्यथा सिंह मुझे चीरकर खा जाएगा। हसन बेग ने काँपते हुए समस्त वृत्तांत उन्हें कह सुनाया।

कर्मठीबाई तो अपने भजन में व्यस्त भी। उसने किसी से बदला लेने की भावना नहीं रखी। हसन बेग अपने किए पर पश्चाताप करता हुआ उनके पास आया और क्षमा याचना करने लगा।

उदार हृदय कर्मठीबाई ने उसे क्षमा कर दिया और कहा, आज तक भगवान ने किसी भक्त की लाज नहीं जाने दी। वे भला मेरी लाज भंग होती हुई कैसे देख सकते थे? भगवान अपने भक्तों को अनेक रूपों में बचाते है, कोई उन्हें पुकार कर तो देखें।

हसन बेग ने प्रायश्चित करते हुए अपार धनराशि उन्हें अर्पित करनी चाही। पर उन्होंने उक्त धनराशि सन्तों की सेवा में व्यय करने का निर्देश देते हुए कहा- भक्त का सर्वस्व तो उसके भगवान ही होते है। उसे धन अथवा यश से क्या प्रयोजन?


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