अवरोध क्यों आते हैं? प्रयास क्यों असफल होते हैं।

February 1987

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इन दिनों हम बीसवीं सदी के अन्तिम चरण में रह रहे हैं। सन् 2000 में यह शताब्दी समाप्त हो जायेगी। यह सन् 1987 है। मात्र 13 वर्ष का समय बीतने-बीतते इक्कीसवीं सदी आ धमकेगी। शताब्दियों के अन्त में पिछले दिनों भी आश्चर्य भरे परिवर्तन होते रह हैं। इस बार तो इस मध्यान्तर में कुछ ऐसा होने जा रहा हैं। इस बार तो इस मध्यान्तर में कुछ ऐसा होने जा रहा है, जिसे अनुपम, अद्भुत और अभूतपूर्व कहा जा सके।

बीसवीं सदी को प्रगति की अवधि भी कह सकते हैं और साथ ही भयानक अवगति भी। पिछले दिनों विज्ञान और बुद्धिमान के दो देवताओं ने अपने चमत्कार दिखाये हैं, वे सशक्त भी रहे हैं और भयानक भी। दिन का अधिपति सूर्य और रात्रि का स्वामी चन्द्रमा कहा जाता है। पर राहु केतु अपने दाँव पर इनसे भी बलिष्ठ सिद्ध होते हैं। ग्रहण काल में वे इन दोनों को ग्रस लेते हैं। सम्पन्नता और शक्ति सभी को अभीष्ट है। इन्हें देने और छीनने में शताब्दी की उपरोक्त उपलब्धियों का बढ़ा-चढ़ा हाथ है। विज्ञान ने वे सुविधा साधन प्रदान किये हैं जिनकी पूर्वजों ने सभी कल्पना तक न की होगी। प्रत्यक्षवाद ने मान्यताओं के धुर्रे उड़ा दिये और चिन्तन को नये सिरे से सोचने की सामग्री दी। यह दोनों ही उत्साहवर्धक रहे और आश्चर्यचकित करने वाले भी। किन्तु जिस प्रकार दीपक तले अँधेरा और उसके धुएँ में कालिख पाई जाती है, उसी प्रकार आधुनिक उपलब्धियों के साथ-साथ कुछ ऐसा भी घुला रहा जिसे अवाँछनीय एवं अनुपयुक्त भी कहा जा सकें।

विज्ञान ने हमें जल, थल, नभ पर द्रुतगति से गमन करने की क्षमता दी। तार, रेडियो टेलीविजन, जैसे संचार साधन भी। साथ ही उसने बिजली बारूद, वैभव और विनाश के परस्पर विरोधी सरंजाम भी जुटाये। कल कारखाने खड़े किये। कम्प्यूटर और यंत्र मानव बनाये। इन उपलब्धियों पर गर्व किया जा सकता है, क्यों कि इनके पीछे इतना अध्यवसाय ओर शक्ति साधन है, कि उसे पुरातन काल के देव दानवों के साथ तुलना की जा सकती है।

दर्शन, अन्वेषण, प्रतिपादन के संदर्भ में भी यही हुआ है। चिर पुरातन मान्यताओं में से कितनी ही हवा में उड़ा दी गईं, कितनी ही संदिग्ध बना दी गई। कितनों को नये सिरे से नये ढाँचे में ढाला गया और सोचने का अभिनव आधार खड़ा किया गया। यों अशिक्षितों और पिछड़े क्षेत्रों में अन्धविश्वास अभी भी है, पर उसकी जड़ें खोखली होने लगी हैं। लोग समझने लगे हैं कि “बाबा वाक्यं प्रमाण” ही सब कुछ नहीं है। लकीर के फकीर बन कर सदा सर्वदा नहीं रहा जा सकता। तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण को साक्षी रखकर हर प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ा जाने लगा। इसे प्रत्यक्षवाद भी कह सकते हैं और बुद्धिवाद भी। शिक्षा के साथ ऐसे तत्वों को समावेश हुआ, जिनसे विश्व प्रवाह के संबंध में अभिनव आधारों को समावेश होता चला गया।

यह सब प्रशंसनीय है। सृष्टि आदिकाल से लेकर प्रगतिक्रम जिस गति से चल उसकी तुलना में इन दिनों की गति को चमत्कारी जादुई-कल्पनातीत ही कहा जा सकता है। यह सभी बातें ऐसी है। जिनके कारण मानवी प्रतिभा के ज्वालामुखी फटने जैसे विकास का यशगान ही किया जा सकता है और अभिनन्दन भी।

यदि इन उपलब्धियों के सदुपयोग की बेला में श्रद्धा सद्भावना का नीति और औचित्य का समावेश रहा होता तो प्रस्तुत साधनों से समूचा जन समुदाय अपेक्षाकृत अधिक सुखी और समुन्नत स्थिति में पहुँच चुका होता। जब पूर्वज स्वल्प साधनों साधनों में सुखी और समुन्नत जीवन जीते रहे तो कारण नहीं कि इन शताब्दियों की उपलब्धियाँ उसे हर क्षेत्र में अधिक सुविकसित न बना सकी होतीं।

दुरुपयोग से अमृत भी विष बन जाता है। रसोई घर में काम आने वाले चाकू, हँसिया जैसे छोटे से उपकरण किसी का सहज ही प्राण हरण कर सकते हैं। इसे बुद्धि के दुरुपयोग का तो कहना ही क्या? वह न केवल स्वयं उल्टा सोचती है, वरन् समूचे प्रभाव क्षेत्र को भी उसी अनौचित्य के मार्ग पर घसीट ले जाती हैं। हस्तगत सुविधा सामग्री का ऐसा दुरुपयोग करती है कि उससे लाभदायक परिस्थिति एवं सामग्री उलट कर ऐसे प्रहार करती है। जिससे शरीर अशक्त बने, मन बौराये, बुद्धि अनौचित्य का समर्थन करे, कुकर्मों में रुचि बढ़े। इसका प्रतिफल भी सुनिश्चित रूप से ऐसा ही होना चाहिए जिससे विग्रह खड़े हों, दुर्व्यसन पीछे पड़े और संकटों, उद्वेगों के पर्वत सामने आ खड़े हों। समस्यायें उत्पन्न हों, उलझनें इस प्रकार उलझें कि सँभालने में ही न आवें।

इन दिनों जिधर भी नजर पसार कर देखा जाय, उधर ही सुविधाओं की तुलना में संकटों की भारी भरमार दीख पड़ने लगी। संतुष्ट लोगों की तुलना में असंतुष्टों का वर्ग कहीं अधिक विस्तृत है। सुखिया की तुलना में दुखिया कई गुने अधिक विस्तृत है। सुखिया की तुलना में दुखिया कई गुने अधिक हैं। यह आश्चर्य की ही बात है। विज्ञान और बुद्धिवाद अपनी चमत्कारी सामर्थ्य के बावजूद मनुष्य जाति की ऐसी सेवा न कर सके जबकि उनमें से प्रत्येक अकेले ही बहुत कुछ कर सकता था।

शारीरिक रुग्णता, मानसिक उद्विग्नता, आर्थिक दरिद्रता, पारिवारिक विश्रृंखलता, सामाजिक अराजकता, धार्मिक विडम्बना का ऐसा दैत्य सर्वत्र व्याप्त है, जितना कि इससे पूर्व-आदिमकाल से लेकर अब तक कभी देखने को नहीं मिला। जिनके साथ में नेतृत्व और साधन हैं वे अपनी समझ बूझ के अनुसार निराकरण के उपाय भी करते हैं, पर परिस्थिति काबू में नहीं आती। सुलझने के स्थान पर उलझनें और भी अधिक उलझ जाती हैं।

ऐसा क्यों होता है? इसका कारण समझने वाले समझते हैं कि पदार्थों की कमी पड़ गई है, व्यवस्था लड़खड़ा गई है, कूटनीति या कानूनों में कमी पड़ रही है, आवश्यकताओं की तुलना में उपकरण या अफसर कम हैं आदि-आदि। इस समझ के अनुसार अधिक धन की आवश्यकता समझी जाती है। अधिक टैक्स लगते हैं। विशालकाय योजनाएँ बनती हैं। महंगाई और बढ़ा हुआ टैक्सेशन दोनों परस्पर सम्बद्ध है। आजीविका बढ़ती है तो महंगाई उसके प्रभाव को समाप्त कर देती है। जिधर मैत्री और सहयोग के हाथ बढ़ाये जाते हैं उधर से ही वे झटक दिये जाते हैं। भीतरी और बाहरी-राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय वैयक्तिक और सामाजिक कठिनाइयों का अभाव नहीं दीखता। यद्यपि उनके निराकरण का उपाय सोचने और प्रयास करने में किसी प्रकार की कमी नहीं दीख पड़ती।

इस असमंजस भरे भटकावों का कारण एक ही है साधनों और परिस्थितियों को ही सब कुछ मानना। उन्हीं की पूर्ति और व्यवस्था में लगे रहना। इससे सामर्थ्य तो जुटते रहती है, पर वह क्षेत्र छूट जाता है जिसके कारण उलझनें उभरती हैं। संकट गहराते है। पुरुषार्थ तो चलता रहता है, पर सफलता के दर्शन नहीं होते। वह विस्मृत एवं उपेक्षित पक्ष, विचारणा का परिशोधन जन मानस का परिष्कार।

इन दिनों विचार भी गड़बड़ाये हुए हैं और वातावरण भी बिगड़ा हुआ है। पर देखना यह है कि इन दोनों के बीच कोई प्रत्यक्ष संबंध तो काम नहीं कर रहा है। गंभीरता को साथ लेकर निरीक्षण, परीक्षण करने पर एक ही निष्कर्ष हाथ आता है कि मनःस्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदाता है। चिन्तन प्रधान है। चरित्र उसी आधार पर बनता है। व्यक्तित्व का गया गुजरा स्तर ही ऐसी रीति नीति अपनाता है, जिसमें बोये हुए विषवृक्ष के कड़ुवे फल खाने पड़ें, उगाई हुई नागफनी के काँटे पैरों में गड़ने लगें।

समझ जाना चाहिए कि मनुष्य अपने आप में पूर्ण है। उसके पास ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेंद्रियां और मस्तिष्कीय विभूतियों का इतना बड़ा भण्डार है कि उसी के सहारे वह बहुत कुछ कर सकता हैं। बहुत कुछ बन और बदल सकता है। किन्तु यदि सद्विचारों का अभाव हो तो सम्पदा और समर्थता का बढ़ा-चढ़ा अम्बार भी ऐसे प्रयास करेगा, जिससे समाधान हाथ आना तो दूर उल्टा संकटों का प्रकोप ही बढ़ता चले। इतिहास साक्षी है कि विचारवानों ने स्वल्प साधनों और विषम परिस्थितियों के रहते हुए भी स्वयं ऊँचे उठे और दूसरों को आगे बढ़ाने में सफल हुए हैं। बुद्ध गान्धी जैसे व्यक्तित्वों ने अपने आपको धन्य बनाया और विषमता से भरे वातावरण को आश्चर्यजनक रीति से बदल दिया। संसार की महान क्रान्तियाँ विचारों की प्रचण्डता के साथ व्यापक हुई हैं और सफल बनी हैं। तोप तलवारों की ताकत मात्र रक्तपात कर सकती है, पर उसमें इतनी क्षमता नहीं कि न्याय माँगने वाले साहसी संकल्प के बढ़ते कदमों को पीछे मोड़ सकें। पिछली दो शताब्दियों में हुई राजक्रान्तियों का विश्वव्यापी सुविस्तृत इतिहास है। इन सफलताओं के पीछे संकल्प शक्ति ही काम करती दृष्टिगोचर होती हैं। राजतंत्रों के दुर्ग ढह गये। जमींदार, साहूकारों की सामन्ती शान धूलि चाटने लगी। दास-दासी पकड़े जाने और हाट बाजारों में पशुओं की तरह बिकने की प्रथा भी अब संसार भर में मिट गई। यद्यपि उन असहाय लोगों के पास अपने मालिकों से लड़ झगड़ कर त्राण पा सकने की सामर्थ्य नहीं थी। पर विश्व के लोकमत ने उस प्रचलन को सहन नहीं किया फलतः लम्बे समय से चली आने वाली उस प्रथा को अपने आप अपनी मौत करते देखा गया। यह विचार शक्ति के कुछ उदाहरण हैं। यदि इस धारा को विनाशकारी बाढ़ न बनने दिया जाय और उसे सिंचाई के लिए अनुबंधित किया जाय तो परिणाम निश्चित रूप से वैसा ही सुखद होगा जैसा कि सिंचाई वाले क्षेत्र में अच्छी उपज के रूप में हस्तगत होता हैं।


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