चिन्तन-चेतना में उत्कृष्टता उभरे

February 1987

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साधन और सहायता मिलने की आवश्यकता को झुठलाया नहीं जा सकता वे हों तो कार्य में फुर्ती भी होती है और उपलब्धियाँ भी अधिक बड़ी मात्रा में हाथ लगती है। इसलिए साधनों की व्यवस्था करने के प्रयास सदा से चलते रहेंगे, चलते रहने भी चाहिए। किन्तु उनकी सफलता के लिए यह आवश्यक है कि वस्तुस्थिति को समझा जाय। निदान के अनुरूप उपचार किया जाय। यह समझा जाय कि व्यक्तित्व को प्रभावी प्रतिभावान बनाने के लिए उसकी चिन्तन क्षमता उत्कृष्ट स्तर की होनी चाहिए। समाज का ढाँचा सुसम्पन्नता और सुसंस्कारिता से भरा पूरा तभी हो सकता है कि उसके प्रचलन नीतिमत्ता पर अवलम्बित हों। यह मूर्धन्यों का काम है कि चिन्तन का वातावरण वे समझाकर बदल सकते हैं या प्रताड़ना देकर अथवा दोनों के समन्वय से बात बनती है। उपाय जो भी कार्यान्वित किये जायँ, पर उनका लक्ष्य यह होना चाहिए कि मानवी आदर्शवादिता को नष्ट-भ्रष्ट होने से बचाया जाय, और उसे फलने फूलने का अवसर मिलने दिया जाय। यह जिस अनुपात में बन पड़ेगा, उसी के अनुरूप प्रतिकूलताएँ अनुकूलता में बदल जायेगी। संकट के शीतकालीन हिमखण्ड गलेंगे और उसके उपरान्त बसंत का ऐसा आगमन होगा जिसमें सर्वत्र वृक्ष वनस्पतियाँ फूलती, फलती और अपनी शोभा सुषमा का प्रदर्शन परिचय प्रस्तुत करती हुई, दृष्टिगोचर होने लगे।

साधनों का अपना महत्व है सुविधा सामग्री का सहायता से बहुत कुछ उत्पादित-उपार्जित किया जाता है, पर बात इतने पर ही रुक जाती है। आदर्शवादी पुरुषों का समन्वय हुये बिना उसके अग्रगामी हो सकने का सुयोग्य ही नहीं आता।

उदाहरण के लिए भारतीय कृषक समाज की आर्थिक स्थिति का सर्वेक्षण किया जा सकता है। खाद, पानी, बीज आदि के प्रबन्ध में सरकार ने बहुत कुछ किया है। फलतः उत्पादकों की आजीविका बढ़ी है। महंगाई का सबसे अधिक लाभ भी उन्हीं को मिला है। पचास वर्ष पूर्व वस्तुओं के जो भाव थे और अब बढ़कर वे कहाँ के कहाँ पहुँचे। इसका हिसाब लगाने से प्रतीत होगा कि महंगाई का सबसे अधिक लाभ कृषि उत्पादकों को मिला है। महंगाई के अंक उनके अधिक लाभान्वित होने का संकेत करते हैं। इतने पर भी उनकी स्थिति नाम मात्र को ही सुधरी है। गरीबी, अशिक्षा, पिछड़ापन आदि के कुचक्र में वे पहले की तरह घिरे हुए हैं। उनमें से मुट्ठी भर लोग भी सुसम्पन्न कहला सकने की स्थिति में नहीं पहुँच पाये हैं।

ऐसा क्यों हुआ? क्यों होता है? इसका कारण मिल पाने के लिए बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। तथ्य अपने मुँह बोलते हैं और वस्तुस्थिति को अनायास ही खोलकर रख देते हैं। मूढ़ मान्यताओं ने रूढ़िवादिताओं ने उनकी गाढ़ी कमाई को हाथों हाथ छीन लिया और फुलझड़ी की तरह जलाकर स्वाहा कर दिया। विवाह शादियों के ठाट-बाट दैन दहेज, प्रदर्शन की प्रतिस्पर्धा बढ़ी जो हाथ में आया था, दूसरे हाथ से बर्बाद हो गया। मृतक भोज, जैसी प्रथाओं ने भी कम बर्बादी नहीं कराई। नशेबाजी की लत पहले की अपेक्षा अधिक बढ़ी है और उपार्जन इन्हीं खाई खड्डों में गिरकर विलुप्त हो गया। फूट, पार्टीबाजी, मुकद्दमाबाजी के रूप में सर्वनाशी अहंकार फूटा। समर्थता ने आतंक का बाना पहना और चोरी उठाईगिरी, डकैती हत्या का सिलसिला उन गाँवों में भी पड़ा जहाँ मुद्दतों से कभी कोई अवाँछनीय घटनाक्रम घटित नहीं हुआ था।

अनियन्त्रित प्रजनन ने जनसंख्या में आश्चर्यजनक अनुपात से अभिवृद्धि की। फलतः छोटे कुटुम्ब बड़े हो गये। शान और शेखी में परिश्रम से जी चुराया गया। फैशन का खर्च बढ़ा। फलतः किसान की वह आमदनी जो सँभालकर रखी गई होती तो परिवार को अच्छी शिक्षा दिला सकती थी। उन्हें स्वस्थ रख सकती थी। ऐसे ही मसखरी में उड़कर बर्बाद हो गई जो सुयोग मिला था, वह बिना पानी बादल की तरह अपनी झलक झाँकी दिखाकर आँखों से ओझल हो गया। नई पीढ़ियाँ कड़े परिश्रम से बचती हैं। तनिक-सी पढ़ाई पढ़कर शहरों की ओर आराम की नौकरी तलाश करने भागती हैं। किसी प्रकार वे बच्चे जहाँ-तहाँ गुजारा तो कर लेते हैं, पर घर के सभी सदस्य मिल जुलकर एक जुट परिश्रम करते और खेती का लाभ कई गुना बढ़ा कर सम्पन्नता स्वच्छता, और सम्मान अर्जित कर सकते थे। उस सभी से वंचित रह जाते हैं। इसे कहते हैं सुविधाओं के होते हुये भी दुर्बुद्धि के कारण उनका समुचित लाभ न उठा पाना।

यही हर क्षेत्र में हो रहा है। कमाई की दृष्टि से अधिकाँश क्षेत्रों को महंगाई होते हुए भी अधिक सुविधा साधन प्राप्त हैं। इतने पर भी फैशन और दुर्व्यसनों के फेर में इस कमाई का देखते-देखते पलायन हो जाता है और अच्छी आजीविका रहते हुए भी तंगी भुगतते और ऋणी रहते अधिकाँश लोग देखे जाते हैं। बढ़ी हुई तृष्णाएँ और आवश्यकताएँ जब साधारण रीति से पूरी नहीं हो पाती तो अपराधी दुष्प्रवृत्तियाँ अपनानी पड़ती है। शोषण, अपहरण, आक्रमण का सहारा लेना पड़ते हैं। सम्पन्न परिवारों के सुशिक्षित लोग भी जब डकैती जैसे अनाचारों में संलग्न पाये जाते हैं, तो यही सोचना पड़ता है कि उतनी आवश्यकता नहीं जितनी सत्साहस की।

देश के कर्णधारों का चिन्तन नए विशेष ढाँचे में ढल गया है, कि प्रगति के लिए सम्पन्नता बढ़ाने भर से काम चल जायगा। वे यह भूल जाते हैं कि बढ़ी हुई सम्पन्नता का उपयोग यदि अनर्थ कृत्यों में होने लगा तो वह दरिद्रता से भी महंगी पड़ेगी। इसलिए घोड़ा खरीदते समय उसकी लगाम और जीन का भी प्रबंध करना चाहिए अन्यथा वह उच्छृंखल होकर किसी भी दिशा में धर दौड़ेगा और किसी भी खाई खड्ड में सवार को ले गिरेगा।

साधनों का संवर्धन करते समय इस तथ्य पर पूरा-पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए कि उपलब्धियों का सही सदुपयोग बन पड़े, ऐसे दूरदर्शी विवेक से भरा पूरा प्रशिक्षण जन-साधारण को मिल रहा है या नहीं। व्यक्तित्वों को परिष्कृत किया जा रहा है या नहीं। चिन्तन चरित्र और व्यवहार को आदर्शवादिता के रंग में रंगों जा रहा है या नहीं? उपार्जन और चिन्तन का अविच्छिन्न युग्म है। यह दोनों जब साथ-साथ रहेंगे तभी प्रसन्नता का वातावरण बनेगा। जैसे एक हाथ से ताली नहीं बजती। एक पहिए की गाड़ी दूर तक नहीं चलती, उसी प्रकार इन दोनों में से किसी एक को लेकर चल पड़ने पर अभीष्ट की उपलब्धि नहीं हो सकती और न उज्ज्वल भविष्य का आधार खड़ा किया जा सकता हैं।

इस तथ्य को यदि गंभीरतापूर्वक समझा जा सके और उसकी पूर्ति का प्रयास किया जा सके तो ही यह आशा की जा सकती है कि अगली शताब्दी में जिस सम्पन्नता एवं प्रसन्नता की आशा की जाती है उसकी पूर्ति हो सकेगी। अन्यथा आज के समृद्ध देशों की तरह दुर्व्यसन की जहाँ भी गुंजाइश होगी वहाँ चढ़ दौड़ेंगे और बाहरी चमक-दमक पर पॉलिश फेरते रहने के साथ-साथ भीतर ही भीतर खोखलापन उत्पन्न करते रहेंगे। द्वितीय महायुद्ध में फ्राँस, जर्मनी के आगे एक सप्ताह भी न टिक सका। इसका एक ही कारण था, कि उसकी बाहरी चमक-दमक तो बढ़ी-चढ़ी थी, पर भीतर ही भीतर वह खोखला हो चुका था। आक्रमण होते ही वहाँ की प्रजा को पलायन ही करना पड़ा, जबकि रूस ने अपनी एक-एक इंच भूमि की रक्षा के लिए अपने जवान की लाशें बिछा दी। अणुबमों का प्रहार सहकर भी छोटा-सा जापान इने–गिने वर्षों में विश्व की बड़ी शक्ति बन गया है। यह उस देशवासियों के उत्कृष्ट चिन्तन और समर्थ पराक्रम का प्रतिफल है। इजराइल का उदाहरण सामने है। बेतुके रेगिस्तान में रहकर भी चारों और से विरोधियों के बीच रहता हुआ भी अपने अस्तित्व की रक्षा कर रहा हैं इसे उसकी आन्तरिक दृढ़ता ही कहना चाहिए।

प्राचीन भारत का इतिहास महानता से भरा हुआ है। उन दिनों जीवनयापन जितने ही साधन थे। कुबेर भण्डारी ने घरों में स्वर्णघाट गाढ़ नहीं रखे थे, किन्तु फिर भी उनकी चारित्रिक गरिमा इतनी बड़ी थी - दृष्टिकोण इतना सुधरा हुआ था, कि यहाँ के नागरिकों को देव मानव कहा जाता था। उसी देवत्व ने न केवल अपनी धरित्री को ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ बनाया था वरन् विश्व वसुंधरा के हर कोने में सभ्यता, सुसंस्कारिता के साथ-साथ भौतिक प्रगति का भी पथ-प्रशस्त किया था। ऋषि मनीषी तो भोज पत्र के वस्त्र पहनकर - कंद मूल पर निर्वाह चलाकर, गुफा झोंपड़ियों में समय बिता लेते थे, पर पुरुषार्थ इस स्तर का करते, जिसे मुक्त कंठ से सराहा जाता रहे। यह परीक्षित तथ्य है। खरे सोने को हजार बार परखा जा सकता है। विचारणा की उत्कृष्टता के समर्थन में विश्व के महामानवों का इतिहास भरा पड़ा है। मनुष्य भले ही सैनिक, व्यवसायी, शिल्पी, कलाकार, साहित्यकार, धर्मोपदेशक, ज्ञानी, तपस्वी कुछ भी क्यों न रहा हो, उसकी वरीयता तभी निखरी और उभरी है, जब वह अन्तस् की दृष्टि से प्रखर, प्रतिभावान और प्रामाणिकता से सुसम्पन्न रहा हो।

अगले दिनों जिस सर्वतोमुखी प्रगति की हम योजना बनाते और अपेक्षा करते हैं, उसके लिए साधनों के बलबूते ही लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकेंगे। उसको भावनात्मक विचारणा की भी अनिवार्य आवश्यकता पड़ेगी।


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