धर्मतंत्र द्वारा आस्था क्षेत्र का परिमार्जन

February 1987

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लम्बी गुलामी के उपरान्त भारत में स्वाधीनता के वातावरण में साँस ली। इसे पिछली पीढ़ी के राजनेताओं का प्रत्यक्ष पुरुषार्थ माना जा सकता है। भले ही उनके साथ आध्यात्मिक पुरुषार्थों का भी अदृश्य पुरुषार्थ जुड़ा रहा हो। स्वतंत्रता प्राप्ति के कारणों, योजनाओं कर्तृत्वों परिस्थितियों की चर्चा करना इन पंक्तियों में अप्रासंगिक होगा। उस विवेचना का कार्य इतिहासकारों पर छोड़ देना चाहिए। हमें तो इतना भर समझना है कि स्वतंत्रता के उपरान्त जो दायित्व देश के कंधों पर आया है, उसका निर्वाह किस प्रकार किया जाए? कौन करे? रहने वाली त्रुटियों का संशोधन परिमार्जन किस प्रकार किया जाए? जन जन में वह भावना कैसे भरी जाय जिससे पिछले दिनों खोदी गई खाई को पाट सकना संभव हो सके।

सत्ता हाथ में आने पर शासकों ने प्रमुख उत्तरदायित्व दो संभाले हैं। एक देश की सुरक्षा को बनाये रखने के लिए अपने को समर्थ स्थिति में गिने जाने योग्य बनाना। दूसरा कार्य भार यह भी कंधे पर था कि बिगड़ी हुई आर्थिक स्थिति को संभाला जाय। फैली ही अव्यवस्थाओं को नियोजित करना भी शासन तंत्र का ही काम है।

पूर्व पीढ़ी ने स्वतंत्रता प्राप्त की। वर्तमान पीढ़ी उसकी सुरक्षा और प्रगति के लिए उपाय कर रही है। इससे इस दिशा में प्रयत्नों के अनुरूप सफलता भी मिल रही है। आशा की जानी चाहिए कि कुशलता, तत्परता ओर दूरदर्शिता के साथ प्रयोग करने पर शासन के पास जो साधन हैं,उनका सदुपयोग और बढ़ती आबादी के नियंत्रण न हो पाने पर भी देश को ऊंचा उठाने का क्रमिक अवसर मिलता जायेगा।

जो नहीं हो सका है वह पूरा करना धर्म तंत्र का काम है। शासन की तरह ही धर्मतंत्र का भी महत्व है। शासन भौतिक जगत को प्रत्यक्ष कठिनाइयों को संभालता है ओर उत्पादन, नियमन की व्यवस्था करता है। इसके अतिरिक्त भी अन्य पक्ष हैं, जो इससे भी अधिक महत्वपूर्ण हैं। वह है व्यक्तित्व का निखार और समाज का भावनात्मक अभ्युदय।इस दिशा में आवश्यक प्रगति होने की त्रिविधि क्रान्तियों के रूप में भी विवेचना की जा सकती है।

बौद्धिक क्रान्ति, नैतिक क्रान्ति और सामाजिक क्रान्ति वे दिशाधाराएं हैं जिनमें व्यक्ति की प्रतिभा, प्रामाणिकता निखरती है ओर समाज का सर्वतोमुखी उत्कर्ष होता है। व्यक्ति और समाज की मध्यवर्ती इकाई है- परिवार। यह भी अपना सुनियोजन चाहता है। व्यक्ति परिवार और समाज तीनों ही पक्ष अपना अपना कर्तव्य, दायित्व कैसे पालें? हिल मिल कर कैसे रहें? एक दूसरे को आगे बढ़ाने, ऊंचा उठाने में किस प्रकार सहायक सिद्ध हों? इसकी भावना उत्पन्न करना और विधि प्रयोग बताना धर्म तंत्र का काम है। श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा उसी के सहारे उत्पन्न होती है और सुदृढ़ बनती है।

मनुष्य तीन हिस्सों में बंटा हुआ है, चिंतन, चरित्र और व्यवहार। शरीर और मन को मिला कर यही प्रयोजन पूरे करने पड़ते हैं। इन क्षेत्रों को साफ सुथरा रहना चाहिए। इनमें से एक में भी विकृतियों का समावेश नहीं होने देना चाहिए। जहाँ भी गड़बड़ी दीख पड़े वहाँ बुहारी लगानी चाहिए और जो कचरा दीख पड़े उसे कूड़े के ढेरों में पटकना चाहिए।

बौद्धिक क्रांति के अंतर्गत चिन्तन की अवाँछनीयताओं का उन्मूलन आता है। मनोविकारों की सुविस्तृत श्रृंखला इसी स्तर की होती है। जिसमें से प्रत्येक को खोजा जाना चाहिए और एक एक करके निकाल फैंकने में जुट जाना चाहिए। भय, चिन्ता, कृपणता, भीरुता, अनगढ़ महत्वाकांक्षा, ईर्ष्या, निराशा आदि ऐसी ही मानसिक विकृतियाँ हैं, जिनके रहते कोई चैन से नहीं बैठ सकता। श्मशान में प्रेम पिशाच की तरह स्वयं डरता और दूसरों को भी डराता रहता है। स्वयं जलता ओर दूसरों को जलाता है। मानसिक उद्वेग शारीरिक रोगों में परिणित होते हैं। मेधा बुद्धि पर बुरा असर डालती है। सनकें बन कर अर्धविक्षिप्त जैसी मनःस्थिति बना देती है। ऐसे व्यक्ति सदा दिग्भ्रांत रहता है उन बातों को सोचता है जिन्हें नहीं सोचा जाना चाहिए।

चिन्तन का प्रभाव चरित्र पर पड़ता है। चरित्रनिष्ठा ही नैतिकता है। नीतिवान और चरित्रवान एक ही स्थिति के दो नाम है। कर्तव्य उत्तरदायित्व का निर्वाह, सज्जनता का अवधारण, शिष्टाचार अनुशासन का परिपालन है। उसके निर्मल निष्कलंक होने पर व्यक्तित्व प्रामाणिक परिष्कृत होता है। उस पर विश्वास किया और सहयोग दिया जाता है। इन्हें प्राप्त करने पर किसी का भी प्रगति की दिशा में चलना स्वाभाविक है। नीति विरुद्ध आचरण करने वाले, मर्यादाएं तोड़ने ओर वर्जनाओं का व्यतिरेक करने वाले छल कपट रचते और दुष्ट कर्मों में लिप्त रहते हैं। ऐसे को प्रथम आक्रमण में थोड़ा लाभ मिल भी सकता है, पर अन्ततः विश्वास खो बैठने पर इतने घाटे में रहते हैं जिसकी पूर्ति किसी भी प्रकार नहीं हो सकती। जिसने चरित्र खोया समझना चाहिए कि उसने सब कुछ खो दिया।

नीति क्षेत्र में मर्यादाओं का, वर्जनाओं का व्यतिरेक न करने देने की व्रतशीलता के निर्वाह को नैतिक क्रान्ति कहते हैं और चिन्तन क्षेत्र को अनगढ़ता को- अवाँछनीयता को उखाड़ फेंकना बौद्धिक क्रान्ति के नाम से जाना जाता है। इन्हें सम्पन्न करना धर्मतंत्र का काम है। शासन इसके लिए कानून की छोटी मर्यादाओं में ही आँशिक रूप से किसी को प्रतिबंधित कर सकता है। अन्यथा मौलिक नागरिक अधिकारों की दुहाई देकर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में कुछ भी करते रह सकता है। इनका निराकरण आस्थाओं में आदर्शवादिता का समावेश करने से मान्यताओं की उच्चस्तरीय दार्शनिकता का समन्वय करने से ही संभव हो सकता है। धर्मधारणा का मूलभूत प्रयोजन यही है।

धर्म यों आज अनेकानेक सम्प्रदायों में बंट गया है और प्रथा प्रचलनों, पूजापरक कर्मकाण्डों को ही समग्र धर्मतत्व समझा जाने लगा है, पर यह भी अर्थ का अनर्थ करना है। धर्म उस तत्व दर्शन का नाम है जो व्यक्ति को आदर्शवादी, चिन्तन, चरित्र और व्यवहार से अवगत अभ्यस्त होने के लिए बाधित करता है।

व्यक्तित्व का कार्यक्षेत्र एक कदम बढ़ाने पर परिवार को अपनी परिधि में लपेटता है और दूसरा कदम बढ़ने पर वह समूचे समाज पर छा जाता है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उसका जन्म और परिपोषण परिवार में ही होता है। इसलिए इस समुदाय में रहने वाले सभी सदस्यों के बीच सराहनीय अनुकरणीय स्नेह सहयोग रहना चाहिए। सभी एक दूसरे के लिए अपना बहुत कुछ निछावर करें और बदले में न्यूनतम प्रतिदान की इच्छा रखें। तभी घनिष्ठता और आत्मीयता अक्षुण्ण रह सकती है। सुसंस्कृत परिवार ही नर-रत्नों की खदान होते हैं। उन्हीं के आँगन में स्वर्गीय स्नेह सौजन्य, उभरता उछलता रहता है। यह स्थिति उत्पन्न करना धर्म तंत्र के प्रवचनों शास्त्रों, पुराणों एवं कर्मकाण्डों को आधार मान कर प्रशिक्षण कार्य से ही संभव हो सकता है।

व्यक्तित्व का विकसित रूप समाज है। समाज व्यक्ति को प्रभावित करता है और व्यक्ति समाज को। दोनों के बीच जितना अधिक सामंजस्य सौमनस्य होगा उतना ही उपयुक्त वातावरण बनेगा। आदान-प्रदान का नीति युक्त सिलसिला चलेगा। समाज में अनेकों कुरीतियाँ, मूढ मान्यताएं अनीतियाँ प्रचलित पाई जाती हैं। इसका कारण भी विवेक बुद्धि की दूरदर्शिता की, न्याय निष्ठा की कमी है। समाज में इस स्तर के दुष्कृत्यों को हटाया जाना ही उचित है। यह कार्य भी शासन क्षेत्र की परिधि में एक सीमा तक ही आता है। परमार्थ परायणता, न्याय निष्ठा, सेवा सहायता की सत्य प्रवृत्तियां जब पनपती हैं तब सामाजिक सुव्यवस्था के अक्षुण्ण रहने की स्थिति बनती है। इस आस्था को जगाने में धर्म की ही प्रधान भूमिका होती है, हो सकती है परस्पर किसी प्रकार हंसते, हंसाते, मिल बाँट कर खाते हुए जीवन जिया जाना चाहिए। यही सामाजिक धर्म शिक्षा है। उसमें समझदारी, ईमानदारी ओर बहादुरी का ऐसा पाठ पढ़ाया जाता है, जिससे मनुष्य में देवत्व उभर सके और इसी धरती पर स्वर्ग का वातावरण बन सके।

कभी धर्म, पूजा-उपासना और परलोक की चर्चा में ही निरत रहता था, पर अब उसकी परिधि में वे सभी आधार सम्मिलित किये जा रहे हैं जो मनुष्य के चिन्तन, चरित्र ओर व्यवहार को परिष्कृत, सुव्यवस्थित करते हैं। इस दृष्टि से धर्मोपदेशक ही नहीं वरन् वे साहित्यकार, कलाकार, लोकसेवी भी पुरोहित कहे जा सकते हैं जो आदर्शवादी आस्थाओं को उभारने में अपने अपने ढंग से योगदान देते हैं।

बहुत समय से धर्म, निहित स्वार्थों के चंगुल में फँसा रहा है पुरोहित देवताओं के एजेन्ट बन भावुकजनों को किन्हीं प्रपंचों के सहारे लूटते खाते रहे हैं, पर अब विज्ञ वर्ग ने समझा है कि धर्मधारणा एक उच्चस्तरीय प्रेरणा है जिससे मनुष्य स्वयं महान बनता और अपने समीपवर्ती वातावरण में महानता का बीजारोपण करता है।

पेड़ जड़ों की गहराई, मजबूती और खाद पानी सोखने की शक्ति के सहारे सुदृढ़ होता और फलता फूलता है। मनुष्य की जड़े उसकी आस्था भूमि-अन्तरात्मा में है। क्षुद्रता और महानता-अवगति और प्रगति वहीं सन्निहित रहती है। इसे सींचना संजोना धर्म का दायित्व है। भौतिक क्षेत्र की सम्पदाओं का कितना ही महत्व क्यों न हो, वह अन्तःकरण की विभूतिवान उत्कृष्टता से बढ़ कर नहीं हो सकता। जो इस स्तर पर सुसम्पन्न है वही वस्तुतः प्रगतिशील है।

राजनैतिक और आर्थिक क्रांतियों का वर्तमान में क्रिया−कलाप शासन द्वारा सुसंचालन बना रहेगा, ऐसी आशा की जानी चाहिए, साथ ही यह विश्वास भी संजोया जाना चाहिए कि राजतंत्र का पूरक धर्मतंत्र भी अपनी जिम्मेदारियाँ निबाहने से पीछे न रहेगा। बौद्धिक, नैतिक, सामाजिक क्रान्ति की त्रिविध धाराओं को प्रवाहित करने में हिमालय जैसी भूमिका सम्पन्न करेगा। त्रिवेणी की तीनों धाराएं मिलकर तीर्थराज संगम बनता है। धर्मतंत्र की त्रिविध क्रांतियों द्वारा नवयुग का आधार खड़ा होगा,इस तथ्य को हम अगले ही दिनों प्रत्यक्ष देख सकेंगे।


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