कराची में एक सार्वजनिक अस्पताल बन रहा था। निर्माता उसके लिए दान माँग रहे थे। दस हजार देने वाले के नाम का पत्थर अस्पताल की दीवार पर लगाने की घोषणा थी।
एक उदार दानी मानकदास ने दस हजार में से एक रुपया कम दिया ताकि उनके दान का विज्ञापन न हो और पुण्य क्षीण न हो।
लुहार और सुनार की दुकानें आमने-सामने थी। उनमें लोहे और सोने की दिन भर कुटाई होती।
एक दिन लोहे की चिनगारी उचटकर सुनार की दुकान में जा घुसी। रात के सुनसान में सोने की खपच्ची ने लोहे के टुकड़े से कहा-भाई हम तुम दोनों ही अभागे हैं जो दिन भर पिटते हैं।
इस पर लोहे के टुकड़े ने उदास होकर कहा-बहिन मैं तुम से अधिक अभागा हूँ क्योंकि मुझे अपनी बिरादरी वालों द्वारा ही पीटा जाता है, जब कि तुम अनय जाति के औजारों द्वारा पिटती हो।