महाभारत में नर संहार के पाप से खिन्न होकर-पुण्यार्जन के लिए पाण्डव तीर्थ यात्रा पर निकले। इसके लिए सर्वप्रथम उन्हें महर्षि व्यास का आशीर्वाद प्राप्त करना उपयुक्त लगा। वे उनके आश्रम में पहुँचे।
व्यासजी इस आगमन पर प्रसन्न हुए। आतिथ्य किया। सफलता का आशीर्वाद दिया। साथ ही अपना तूँबा उन्हें थमाते हुए एक नया काम भी सौंपा कि वे जहाँ भी जायँ इस तूँबा को पवित्र जलाशयों का स्नान करायें और जिस देवालय का दर्शन करें उसे भी वह लाभ देते रहें। जब तीर्थ यात्रा से लौटें तो तूँबा उन्हें वापस कर दें।
पाण्डवों ने ऐसा ही किया। वे कई वर्षों तक परिभ्रमण में रहे। लौटे तो फिर व्यास आश्रम पहुँचे। और तूँबा लोटा दिया आदेशानुसार उसे तभी तीर्थों में स्नान और दर्शन कराया गया था।
लौटने पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए व्यास जी ने तूंबा को तोड़ा और उसका एक-एक टुकड़ा पाण्डवों को खाने के लिए दिया। इतने तीर्थों के सान्निध्य में उसकी स्थिति में परिवर्तन सामान्य असामान्य बनी ही होगी। प्रसाद देते समय उनका यही भी कथन था।
तूँबा पुराना था। कड़ुवा भी। चखा तो स्वाद और जीभ दोनों से वह अप्रिय लगा। गले न उतरा तो वे इधर-उधर थूकने लगे।
दूसरे दिन प्रभात प्रवचन में व्यास जी ने कहाँ- तात! तूँबा की तरह शरीर को तीर्थ दर्शन कराने भर से अभीप्सित लाभ नहीं मिलता। परिवर्तन स्थान का नहीं मन का होना चाहिए। पाप के बदले पुण्य कर्मों की योजना बनाओ। इसी में खेद घटेगा ग्लानि मिटेगी।
पाण्डव परमार्थ प्रयोजन में रत हो गए और उससे सन्तोश समाधान उपलब्ध हुआ।