दिव्य सम्भावना सुनिश्चित है।

February 1987

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इस अंक के प्रतिपादनों को परामर्श की भाषा में लिखा गया है। लोगों को ऐसा करना चाहिए इस मार्गदर्शन के पीछे जन-जन का कर्त्तव्य बोध उजागर किया है, पर वस्तुतः यह समूचा प्रतिपादन सुनिश्चित भविष्यवाणियों की तरह है। उन्हें अकाट्य एवं विश्वस्त संभावनाएँ मानकर चला जा सकता है।

इस कथन प्रतिपादन के पीछे उच्च स्तरीय अध्यात्म की वे अनुभूतियाँ हैं, जिनमें घटित होने वाले घटनाक्रम का पूर्वाभास संजोया गया है। इसमें किसी व्यक्ति विशेष, अतिरिक्त घटनाक्रम का उल्लेख नहीं है, वरन् विश्व की भवितव्यता का निरूपण है और बताया गया है कि प्रचण्ड प्रवाह किस दिशा में चल पड़ा है और भविष्य में जाकर कब, किस लक्ष्य तक पहुँच कर रुकेगा।

नवयुग के फलितार्थ होने की सही अवधि इक्कीसवीं सही है। महाकाल की असीम अवधि में युग की इतिहास की दृष्टि से सैकड़ों क्या हजारों वर्षों का भी कोई महत्व नहीं होता। राजतंत्र को प्रजातंत्र तक पहुँचने में हजारों वर्ष लगे हैं। मनुष्य को सभ्यता, शिष्टाचार, अनुशासन व्यवस्था गढ़ने में भी बहुत समय लगा है। बोलना और लिखना सीखने में न जाने कितनी पीढ़ियाँ गुजरी होंगी। पर तब काल की गति धीमी थी। अब उसमें तीव्रता आ गई है। विकास कहें या परिवर्तन, तेजी से हो रहा है। इसका प्रभाव किसी व्यक्ति समुदाय या क्षेत्र तक सीमित नहीं रहा सकता। उससे समूचा विश्व प्रभावित होगा। इच्छा या अनिच्छा से उसके सभी निवासियों को प्रवाह के साथ बहने के लिए समय के साथ चलने के लिए विवश होना पड़ेगा।

आमतौर से व्यक्तियों के प्रयास ही परिस्थितियों को प्रभावित करते और उनमें उथल-पुथल पैदा करते हैं राजक्रांतियां सामाजिक क्रान्तियाँ, औद्योगिक क्रान्तियाँ कुछ प्रतिभाशाली व्यक्तित्वों अथवा समुदायों के प्रभाव से ही उत्पन्न हुई हैं। उनका श्रेय भी अमुक व्यक्तियों या योजनाओं को ही मिला हैं किन्तु कई बार ऐसा भी होता रहा है, कि उमंगे उठीं और उनने चमत्कारी कार्य कर दिखाये और समूचे संसार में असाधारण परिवर्तन करके दिखा दिये। वैज्ञानिक आविष्कारों के सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है। बिजली, रेडियो, टेलीफोन, रेल, जहाज, अणु विस्फोट जैसे कार्य तो कुछ व्यक्तियों ने ही सम्पन्न किये, पर उनका प्रभाव समूचे संसार पर पड़ा। परिस्थितियों में आकाश-पाताल जैसा अन्तर हो गया। इस वैज्ञानिक क्रान्ति के लिए कोई बड़ी योजनाएँ नहीं बनी थीं। कुछ छोटी प्रयोगशालाओं में ही वे आविष्कार उपजे थे, पर उपयोगिता को देखते हुए उनका प्रचलन संसार भर में होने लगा। इक्कीसवीं सदी की युग क्रान्ति को भी इसी स्तर की माना जा सकता है। इस क्रान्ति को दार्शनिक क्रान्ति कहा जायेगा और उससे विश्व का समूचा वातावरण, समूचा उपक्रम, प्रचलन प्रभावित होगा। जिस प्रकार पाँच सौ वर्ष पुरानी दुनिया की आज के समय के साथ संगति बिठाने पर आश्चर्यजनक परिवर्तन प्रतीत होता है। इसी प्रकार बीसवीं सदी में चल रही, चलती आ रही परिस्थितियों में अब जमीन आसमान जैसा अन्तर इक्कीसवीं सदी में होने जा रहा है, उसी की रूपरेखा इस अंक में प्रस्तुत की गई है। यह सब कैसे होगा? कौन करेगा? परिवर्तन लाने वाली घटनाएँ कहाँ घटित होंगी? क्या मोड़ लेंगी? सफलता, असफलता का उन्हें कब-कब कहाँ-कहाँ किस प्रकार सामना करना पड़ेगा? यह भी इस भविष्य कथन के साथ यदि उल्लेख रहता तो शायद पाठकों को अधिक रोचक और कौतूहलवर्धक लगता, पर उसकी चर्चा जानबूझ कर नहीं की गई है। लिखा वही गया है जो अवश्यम्भावी है।

पूछा जा सकता है कि इन भविष्यवाणियों के आधार क्या है? आमतौर से ग्रह गणित, ज्योतिष को ऐसे कथनों का आधार माना जाता है, पर वास्तविकता यह है कि जो भविष्य कथन की विद्या जानते हैं, वे उन संभावनाओं को प्रकटन नहीं करते। जो करते हैं, वे जानते नहीं। यदि मृत्यु काल सही बताया जा सके तो लोगों की स्वतंत्र बुद्धि और स्वतंत्र क्रिया ही समाप्त हो जाये। लोग मृत्यु से पूर्व किये जाने वाले कार्यों को निपटाने में लग जाये। इसी प्रकार यदि वस्तुओं की तेजी मंदी का सही कथन कोई कर सके तो वह उसी व्यापार में लगाकर दस पाँच दिन में ही करोड़पति बन सकता है। पर ऐसा होता कहाँ हैं? मनीषियों ने व्यक्तिगत भविष्य बनाने का निषेध भी किया है। इससे व्यर्थ चिन्ता बढ़ती है और पुरुषार्थ में व्यवधान पड़ता है।

इस अंक में प्रस्तुत भविष्यवाणियों का पहला आधार है - अदृश्य जगत का वह सूक्ष्म प्रवाह जो कुछ नई उथल पुथल करने के लिए अपने उद्गम से चल पड़ा है और अपना उद्देश्य पूरा करके ही रहेगा। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए अनेकानेक प्रतिभाओं को हनुमान, अर्जुन की तरह अपने प्रभाव में लेकर निश्चित प्रयोजन के निमित्त उन्हें बलपूर्वक लगा देगा।

दूसरा आधार है - हमारा निज का संकल्प, जो किसी उच्च सत्ता की प्रेरणा से महाकाल की चुनौती की तरह अवधारित किया गया। नवनिर्माण के लिए अपनी निजी क्षमता को इन्हीं तीन वर्षों में विशेष रूप से पैनाया और तीक्ष्ण किया गया है। इसका प्रयोग भी सूक्ष्म जगत की दिव्य चेतनाओं को झकझोर कर खड़ा कर देने में किया जायेगा। साथ ही अनर्थों को निरस्त करने के लिए उनके साथ कटकटा कर जूझा जायगा। यह उभयपक्षीय प्रयोजन हमारी सूक्ष्म सत्ता ही सम्पन्न कर सकेगी। इसलिए हमने अपने स्थूल शरीर से काम लेना प्रायः बन्द कर दिया है। उसके साथ एक हल्का तंतु ही जुड़ा रखा है। जब उसकी भी आवश्यकता न रहेगी तो एक झटके से इसे भी तोड़कर अलग कर देगा।

महान् और व्यापक क्षेत्र की महती उथल-पुथल में सूक्ष्म शक्ति ही काम करती है। स्थूल शरीर उसे सीमित रखता ओर एक छोटे क्षेत्र तक ही काम करते रहने के लिए बाधित करता है। इसलिए शरीर के साथ सहयोगी जैसा साधारण मोह तो है हुए भी उसे गले में पत्थर की तरह नहीं बाँधे रखा जा सकता। स्थिति अभी भी वह बन चली है कि स्थूल शरीर एक स्मृति सौगात की तरह एक कोने में रखा रहे और सूक्ष्म शरीर से वह कार्य होता रहे जिसे अदृश्य जगत के व्यापक क्षेत्र में सूक्ष्म शरीर से ही किया जा सकता है। अपना निज का पुरुषार्थ और आत्म विश्वास भी इन भविष्यवाणियों का दूसरा आधार है। इस कथन के बारे में निश्चिन्त हम इसलिए हैं, कि उस प्रयोजन में हमसे भी कहीं अधिक बड़ी और समर्थ सत्ता इस कार्य को आगे बढ़कर कर रही है। हमें तो उन्हीं के प्रचण्ड तूफानी प्रवाह में तिनके पत्ते की तरह उड़ना पड़ रहा है, फिर भी उसका कुछ मूल्य तो होगा ही? इस निजी मूल्य और उच्चस्तरीय सहयोग के आधार पर इस अंक में प्रस्तुत वे भविष्यवाणियाँ की जा रही हैं जिनका उल्लेख इस अंक में हुआ है। यों आज की निराशाजनक परिस्थितियों में उतना बड़ा परिवर्तन निकट भविष्य में ही खड़ा हो जाना असंभव जैसा लगता है। तो विश्वासी विश्वास कर सकते हैं कि संसार के इतिहास में अनेक बार असंभव लगने वाले प्रसंग की प्रत्यक्ष होते रहे हैं। महापुरुषों की उपलब्धियाँ एवं महान घटनाओं की संभावनाएँ ऐसे ही असमंजस भरे वातावरण में फलित होती रही है।

जो घटित होने वाला है उस सफलता के लिए श्रेयाधिकारी-भागीदारी बनने से दूरदर्शी विज्ञजनों में से किसी को भी चूकना नहीं चाहिए। यह लोभ मोह के लिए खपने और अहंकार प्रदर्शन के लिए ठाटबाट बनाने की बात सोचने और उसी स्तर की धारणा, रीति-नीति अपनाये रहने का समय नहीं है। औसत नागरिक स्तर का निर्वाह और परिवार को बढ़ाने की अपेक्षा स्वावलम्बी बनाने का निर्धारण किया जाय तो वह बुद्धिमता भरा लाभदायक निर्धारण होगा। जिनसे इतना बन पड़ेगा वे देखेंगे कि उनके पास युग सृजन के निमित्त कितना अधिक तन, मन, धन का वैभव समर्पित करने योग्य बच जाता है, जब कि लिप्साओं में ग्रस्त रहने पर सदा व्यस्तता और अभाव ग्रस्तता की ही शिकायत बनी रहती है। श्रेय संभावना की भागीदारी में सम्मिलित होने का सुयोग्य, सौभाग्य जिन्हें अर्जित करना हमारी ही तरह भौतिक जगत में संयमी सेवाधर्मी बनना पड़ेगा। सादाजीवन उच्चविचार का मंत्र अपने रोम-रोम में जमाना पड़ेगा। इतना कर सकने वाले ही अगले दिनों की दिव्य भूमिका में हमारे छोड़े उत्तराधिकार को बहन कर सकेंगे। पीछे रहकर भी हमें बल देते रह सकेंगे।


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