ब्रह्मचारी दयानन्द (Kahani)

February 1987

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

राजा ने अपने महल में अंधेरा न घुसने देने के लिए बड़ी सेना लगा दी, पर रात होते ही अंधेरा सब ओर छा गया। रुका ही नहीं प्रतिरोध बेकार चला गया।

पुरोहित ने सलाह दी कि सेना पर जितना खर्च किया जाता है, उतना प्रकाश फैलाने के साधन बनाने में लगाया जाय। वैसा ही किया गया। उजाला होते ही अंधेरा चला गया। उसे रोकने वाली सेना वापस चली गई।

उन दिनों शिक्षार्थी विद्या शुल्क जमा नहीं करते थे। पर साथ ही इतने कृतघ्न भी नहीं थे कि जिस आश्रम में लम्बी अवधि तक रहकर ज्ञान और निर्वाह प्राप्त किया हो, उसका ऋण न चुकाएं। लौटने पर नाम गुरुकुल का स्मरण रखते और अपनी कमाई का एक अंश नियमित रूप से भेजते।

शिक्षा सम्पूर्ण होने पर शिष्य गुरु से उनकी आवश्यकताएं पूछते और उनकी पूर्ति का संकल्प लेकर वापस लौटते।

उस दिन विरजानन्द के गुरुकुल से विद्याध्ययन के उपरान्त दयानन्द चलने लगे तो चर्चा उस सम्बन्ध में हुई कि गुरु आकाँक्षा एवं आवश्यकता की पूर्ति के लिए उन्हें क्या करना है?

ब्रह्मचारी दयानन्द की प्रतिभा से विरजानन्द प्रभावित थे। उनने कहा- सामान्य लोगों की तरह न जीकर तुम समय के कुप्रभाव को उलटने में लग सको तो कितना अच्छा हो।

शिष्य ने गुरु इच्छा पर अपनी इच्छा निछावर कर दी और उसी दिन संन्यास लेकर समाज सुधार के कार्यों में निरत हो गए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles