इक्कीसवीं सदी में नई भी कई समस्याएँ उत्पन्न होंगी, जो अभी तो सिर्फ सिर चमका रही हैं, पर आगे चलकर उनकी प्रौढ़ता दृष्टिगोचर होने लगेगी। इन दिनों जो अंकुर मात्र है, वे अगले दिनों विशाल वृक्षों के रूप में बढ़े चढ़े आकार में दृष्टिगोचर होंगे।
उदाहरण के लिए ईंधन की समस्या को ही लिया जाय। जब आबादी थोड़ी थी तब गोबर के उपले और अरहर की लकड़ियों से सीधे साधे ढंग की रसोई पक जाती थी। जंगली टेढ़े मेढ़े मात्र जलावन के स्तर वाले पेड़ पौधे ही इस काम आ जाते थे। जब ईंधन की कोई समस्या नहीं थी पर अब बड़ी बड़ी मशीनें बनने लगी। हैं वे चलती तो ईंधन से ही हैं यह ईंधन बहुत करके तेल और कोयले से उपलब्ध होता रहा है। अब बिजली का भी उत्पादन होने लगा है और वह भी बहुत हर तक घरेलू तथा कारखाने के ईंधन की आवश्यकता पूरी करने लगी है। पर इनके उद्गम स्रोत जब अगले दिनों सूख जायेंगे तब ऐसा गतिरोध उत्पन्न होगा कि इस ईंधन के अकाल का दबाव अन्य सभी प्रकार के दुर्भिक्षों से बढ़ चढ़कर भयावह सिद्ध होगा। न खाना पकेगा। और न कारखाना चलेगा। गोबर अब तो खाद के काम आता है और बेकार पेड़ों से कागज बनाने का काम लिया जाता है।
इक्कीसवीं सदी में ऐसे यंत्र बन जायेंगे जो सूर्य किरणों के बिखराव को केन्द्रीभूत करके उसे बिजली की तरह वितरित किया जा सका। समुद्र की लहरे और ज्वार भाटे भी इस उत्पादन में योगदान दे सकते हैं। इस प्रकार प्रकृति की शक्ति वर्षा को ही केंद्रीभूत किया जायेगा और उसी को मिल बाँट कर ईंधन के काम में लाया जायेगा। फिर इन दिनों अत्यधिक ऊर्जा खर्च करने का अपव्यय जो अभ्यास में आया है उसमें भी कटौती होगी। हर व्यक्ति को समझना पड़ेगा कि ईंधन सम्पदा की मानवी क्षमता सीमित रह गई है, उसे किफायत के साथ ही उपयोग में लाना चाहिए।
पशुओं का मलमूत्र तो गोबर गैस प्लान्ट में प्रयुक्त होने ही लगेगा। अगले दिनों लगभग इतनी मात्रा में उत्पन्न होने वाला मनुष्य का मलमूत्र भी दुर्गन्ध और कुरुचि बीमारी फैलाने की अपेक्षा गोबर गैस की तरह ही प्रयुक्त होने लगेगा। उससे खाद की प्रचुर मात्रा में मिलेगी, गंदगी भी कटेगी और प्राकृतिक खाद की उपयोगी मात्रा भी खेतों को अधिक परिमाण में प्राप्त होगी। ईंधन इस प्रकार समय की आवश्यकता को किसी प्रकार पूरा कर सकेगा।
वनस्पति पशुओं से बचेगी। उनसे मनुष्य को इमारती लकड़ी और कागज जैसी वस्तुओं को बनाया जा सकेगा। मनुष्य को दूध पीने की आदत घटानी पड़ेगी और तिल मूँगफली, सोयाबीन आदि के घोल से उस प्रयोजन की पूर्ति करनी पड़ेगी। पशु चर्म के लिए जिन वस्तुओं पर निर्भर रहना पड़ता है। वे प्लास्टिक जैसी वस्तुएँ होंगी। जिस प्रकार कपास का स्थानापन्न नाइलान का धागा निकल आया है, उसी प्रकार धातुओं की कमी पड़ने पर उनके स्थान पर ऐसे रासायनिक पदार्थ उपज पड़ेंगे कि उनसे धातुओं की आवश्यकता पूरी हो सके। इन दिनों बड़े कारखाने और विशाल युद्धों के लिए विनिर्मित होने वाले हथियार ही लोहे की तिहाई की ही आवश्यकता पड़ती है। अगले दिन महायुद्ध को निरस्त कर देंगे। इसी प्रकार बड़े कारखाने बढ़ चढ़कर छोटे कुटीर उद्योगों में दबल जायेंगे। ऐसी दशा में लोहे की उपयोगिता सीमित ही रह जायेगी। उसकी पूर्ति पुरानों को नये में ढालकर अथवा जहाँ तहाँ से कुरेदबीन कर की जाती रहेगी।
वस्त्रों के लिए जितना अम्बार अब खड़ा करना पड़ रहा है, उतना भविष्य में न रहेगा। सभी एक जैसी सीधी सादी पोशाकें पहनेंगे। तरह-तरह के डिजाइन और फैशन उस बदले हुए जमाने में हेय समझे जाने लगेंगे। फिर बक्सों भरे कपड़े कोई न रखेगा। धोने सुखाने और पहनने के लिए जितना फेर आवश्यक होगा, उतने ही कपड़े बनेंगे और सीये जाया करेंगे। फैशन के नाम पर जितना पैसा तरह-तरह की डिजाइनें बनाने में बेशकीमती स्तर का जखीरा जमा करने में खर्च करना पड़ता है, उतने की जरूरत ही न पड़ेगी। कपड़ा उद्योग हैण्डलूम के हिस्से में एलाट कर दिया जायगा इससे बेकारी भी दूर होगी, अपव्यय भी बचेगा और बेकार की शान-शौकत में लोगों में जो अनुकरण की ललक पैदा होती है, उसकी भी जड़ कट जायगा।
युटोपिया के नाम पर भविष्य कथन का विवरण जिन लेखकों ने विस्तारपूर्वक वर्णन किया है, उसमें उन्होंने प्रायः एक बात लिखी है कि भौतिक विज्ञान के अनेकानेक आविष्कार होंगे, उनसे मनुष्य की सुविधाएँ और सामर्थ्य अतिशय बढ़ जायेंगी। थल की भाँति जल और नभ पर भी आधिपत्य हो जायगा। इस कथन में अधूरापन यह है कि वर्तमान परिस्थितियों के बदलने पर नई परिस्थितियों के साथ संगति कैसे बैठेगी? सारे काम मशीनें करने लगीं तो मनुष्य का शरीर ही नहीं दिमाग भी निकम्मा हो जायगा। सुविधाओं के सहारे एक सीमा तक ही उन्नति संभव होती है, इसके उपरान्त अधःपतन का सिलसिला चल पड़ता है और मनुष्य लुँज पुँज हो जाता है। ऐसी दशा में स्वाभाविक है, कि दुर्बलता, रुग्णता, विलासिता और आकाँक्षा अभिलाषा इस सीमा तक बढ़ती चली जायँ, तो उसे उत्थान न कहकर पतन मानना पड़े। लोग प्रसन्न रहने के स्थान प उद्विग्न रहने लगें। तब फिर जिस उज्ज्वल भविष्य का सपना देखा गया है वह ठीक उल्टी स्थिति में पहुँचकर विपत्तियों का कारण बने।
मानव सत्ता शरीर नहीं आत्मा है। शारीरिक सुविधा साधनों का उपयोग तभी तक है जब तक कि वह चेतना को समुन्नत बनाने की सहायता करता है। यदि उसके विपरीत हुआ, चेतना आलसी, प्रमादी, अनाचारी और पतनोन्मुखी होती चली गई तो उसका प्रभाव परिणाम न केवल अन्तरात्मा के लिए वरन् बाह्य परिस्थितियों की दृष्टि से भी अनुपयुक्त एवं कष्टकारक ही होगा कि चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में उत्कृष्टता का अधिकाधिक समावेश होगा और जीवनचर्या के साथ सादगी सहकारिता का अंश बढ़ता चला जायगा। यही वास्तविकता है। भविष्य कथन वे ही सार्थक माने जायेंगे जो आविष्कारों और सुविधा साधनों की बात करें और मानवी सज्जनता और सुव्यवस्था की संभावना पर अधिक चिन्तन एकाग्र करें। अगली शताब्दी में मनुष्य भावनाओं का धनी होगा, भले ही उसकी सम्पन्नता कम ही क्यों न हो? मिल−बांट कर खाने वाले थोड़े साधनों में भी प्रसन्नता और प्रगतिशीलता का आधार खड़ा कर लेते हैं। जबकि विपुल विभूतियाँ रहने पर भी कृपणता से घिरे हुए लोग बेचैन रहते और बेचैन करते रहते हैं। अगले दिनों सद्गुण सत्कर्म और सत्स्वभाव में अभिवृद्धि होगी। उन आविष्कारों और सुविधा साधनों को हेय ठहराया जायगा जो मनुष्य को जादूगर स्तर की कुछ भी बुला लेने और कुछ भी भगा देने की कला सिखाता है।
मानवी गौरव गरिमा को अक्षुण्ण रखना आवश्यक समझा जायगा तो मर्यादा में बँधना और वर्जनाओं से बचना पड़ेगा। संयमशीलों की जीवनी शक्ति बढ़ती है। वे सुपाच्य सात्विक खाते और सीना बहाने वाला श्रम करते हैं। ऐसी दशा में उन्हें न दुर्बलता घेरती है न रुग्णता सताती है और न असमय की अकाल मृत्यु ही आती है।
अगले दिनों मनुष्य बलिष्ठ होगा। पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह हाथी की तरह विशालकाय चीते की तरह धावक और हिरन की तरह छलाँगें लगाने लगेगा। वरन् अर्थ यह है कि आदर्शों के परिपालन की उसकी साहसिकता असाधारण होगी। वह लोभ और मोह का भय और दबाव का सामना कर सकेगा। उनके आकर्षक दबाव से विचलित न होगा, वरन् अपनी प्रत्येक कृति में उस विशिष्टता का परिचय देगा जिसका धीर, वीर, गंभीर लोग प्रमाण प्रस्तुत किया करते हैं।
शरीरगत सुविधाएँ अभी भी कम नहीं हैं। आलसियों की तरह उन्हें अपनाया ही न जाय और अनाड़ियों की तरह दुरुपयोग किया जाय तब तो बात दूसरी है, अन्यथा साधनों की दृष्टि से पूर्वजों की तुलना में हम कहीं अधिक सुविधा भरी स्थिति में हैं। यदि पूर्वज रहे होते तो आज की दुनिया उन्हें स्वर्ग जैसी मोहक और बुद्धिमान लगती। हम भी इक्कीसवीं सदी के लोगों को आविष्कार के धनी होने या अपेक्षाकृत अधिक साधन सम्पन्न देख सकते हैं, पर इससे बनेगा कुछ नहीं। अन्तरंग यदि प्रसन्न और सम्पन्न न हो तो ऊपरी चमक दमक केवल भ्रम ही उत्पन्न कर सकती है।
साक्षर बनने की शिक्षा चिरकाल से उपलब्ध है। स्कूलों और कालेजों में हमारे बच्चे बहुत-सी जानकारियाँ प्राप्त करते हैं और बहुज्ञ प्रतीत होते हैं। अवसर मिलता है तो अफसर भी बन जाते हैं और कई प्रकार के कौशल दिखाकर सम्पन्नता भी बटोरते हैं। येन, केन प्रकारेण प्रख्यात भी हो जाते है, पर इतने भर से कोई ठोस उपलब्धि हाथ नहीं लगती। बहुरूपिये, नट बाजीगरों जैसे, कौतूहल उत्पन्न करते रहे हैं, पर वह सूत्र हाथ नहीं आते जिनके सहारे कि महान बना जाता है।
अगले दिनों ऐसी शिक्षा का प्रबंध करना पड़ेगा जिससे मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप एवं कर्त्तव्य-दायित्व का गंभीरता पूर्वक भान करे। साथ में ऐसा आचरण भी करे जो आत्मा की पुकार, परमात्मा के संकेत एवं युगधर्म की चुनौती स्वीकार ने के लिए विवश कर सके। ऐसी शिक्षा स्कूली पाठ्यक्रम में छात्रों के लिए सम्मिलित रहेगी। अध्यापकों को अपना चरित्र उसी ढाँचे में ढला हुआ सिद्ध करना पड़ेगा यह नियमित पढ़ाई की बात हुई जिसे स्कूली शिक्षा कहते हैं। यह आवश्यक तो है पर पर्याप्त नहीं धर्मोपदेशकों, कर्णधारों, नेतृत्व कर सकने की स्थिति में पहुँचानी पड़ेगी। जिसके सहारे अपने व्यक्तित्व को विभूतिवान् प्रतिभावान् चरित्रवान् और कर्त्तव्य परायण सिद्ध कर सकें। ऐसी शिक्षा के लिए हमें अभी से तैयारी करनी होगी, जिससे कि अगली शताब्दी का जो समुदाय आदर्शवादी कर्मनिष्ठ और सिद्धान्तों के प्रति आस्थावान, दृढ़व्रती दृष्टिगोचर हो सके।