हिरण्याक्ष का वध करने के उपरान्त भी जब भगवान वाराह अपने लोक को वापिस नहीं लौटे तो वहाँ चिन्ता होने लगी। देवता व्याकुल हुये और शंकर जी को उन्हें तलाश करने भेजा गया।
शंकर जी ने भू लोक में उन्हें सर्वत्र खोज डाला। देखा तो वे अपना परिवार बनाये बैठे हैं। स्त्री-बच्चों के समक्ष क्रीड़ा संलग्न हो रहे हैं। शूकरी और उसके शिशु शावक उन्हें अपना विनोद साधन बनाये हुये हैं।
वापस ब्रह्मलोक चलने की प्रार्थना जब वाराह जी ने अस्वीकार कर दी और अपना क्रीड़ा विनोद छोड़ने को तैयार न हुए तो क्रुद्ध शंकर जी ने त्रिशूल से उनका पेट फाड़ डाला। शरीर क्षत-विक्षत हो गया तो विवश होकर वाराह भगवान अपने लोक जा पहुँचे।
प्रतीक्षा में चिन्तित बैठे देवताओं ने जब विलम्ब का कारण पूछा तो उनने कहा - “शरीर और उसकी ममता बड़ी प्रबल है। जीवधारी उसी में लिप्त होकर लक्ष को भूल जाते हैं, सुख साधनों के छूटे बिना उस माया से छुटकारा नहीं मिलता। अन्य शरीर धारियों की तरह मेरी भी दुर्गति हुयी। शंकर जी ने उस माया को विदीर्ण न किया होता तो मेरे लिए भी वापस लौटना कठिन था।
शिवजी हँस पड़े, उनने कहा-देवताओं! अब तुम समझे होंगे कि मेरे विरक्त विचरण का रहस्य क्या है। आसक्ति के बंधनों में बंधे हुये जीव, त्याग का आधार न लें तो उनका छुटकारा भी सम्भव नहीं। आसक्ति ग्रस्त वाराह जी की जब यह दुर्गति हुई तो दूसरों के बारे में कहना ही क्या है?