सूर्योदय होने से पहिले, अंधकार गहराता है। ज्यों-ज्यों अन्त निकट आता है, त्यों-त्यों जोर लगाता है॥1॥
चोर, लुटेरों की गतिविधियाँ, अंतिम दाँव लगाती हैं। अंधकार की दुष्प्रवृत्तियाँ, और अधिक इठलाती है॥
पर सूर्योदय की तैयारी, नभ में चलती रहती है। नव-प्रकाश की अथक-साध, प्राची में पलती रहती है।
चीर निराशा-निशा, आशा का मुर्गा बाँग लगाता है। सूर्योदय होने से पहिले, अंधकार गहराता है॥2॥
निसंदेह युग की विभीषिकाओं ने जाल बिछाया है। दुश्चिंतन ने, दुराचरण ने, अंतिम दाँव लगाया है।
स्वार्थ सिद्धि की दुरभि संधियाँ दुष्षड़यंत्र रचाती है। टूट रहा विश्वास, आस्थाएँ उठती जाती है।
शोषण, उत्पीड़न, कुँठा से मनुज जकड़ता जाता है। सूर्योदय होने से पहिले, अंधकार गहराता है॥3॥
लेकिन भारत के पौरुष में नवयुग लेता अँगड़ाई। इक्कीसवीं सदी की करने, सृजन शक्ति से अगुआई।
तप संकल्पित हुआ देश का, नूतन सृष्टि रचाता है। तरुणाई हुलसी, सद्चिंतन-सदाचरण की ही वरन्।
युग का विश्वामित्र कहीं पर नूतन सृष्टि रचाता है। सूर्योदय होने से पहिले अंधकार गहराता है॥4॥
नवयुग में सम्मान न शोषण का होगा, होगा श्रम का। धर्म और विज्ञान विलग हैं, पता न होगा, होगा श्रम का।
वैज्ञानिक-विकास ‘समता का स्वर्ग’ धरा पर लायेगा। आध्यात्मिक विकास मानव का सुप्त-देवत्व जगायेगा।
शिव संकल्पों, सृजन शक्ति के बल पर नवयुग आता है। सूर्योदय होने से पहिले, अंधकार गहराता है॥5॥
जाति-पाँति का, ऊँच-नीच का भेद न होगा नव युग में। वैज्ञानिक-संहार न होगा, वैज्ञानिक-विकास होगा। नैतिकता, आध्यात्मिकता का कहीं नहीं हास होगा॥
“प्रज्ञा युग’ आने वाला है। यह स्वर धीर बंधाता है। सूर्योदय होने से पहिले, अंधकार गहराता है॥6॥
*समाप्त*