प्रस्तुत समस्याओं का एक ही निराकरण

February 1987

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दृष्टि पसार कर जिधर भी देखा जाय, उधर ही असंतोष, उद्वेग, विग्रह, कष्ट संकट विभिन्न रूपों में विभिन्न क्षेत्रों में इस प्रकार मँडराते दीखते हैं जैसे मरे हुए पशु की लाश को गिद्ध, कौए, चील, कुत्ते, सियार आदि घर कर बैठते हैं। कुरुचि, दुर्गंध, व्यवधान से वह क्षेत्र बुरी- तरह घिरा हुआ है।

व्यक्ति के निजी जीवन में रुग्णता, दरिद्रता, आशंका, अविश्वास डेरा डाले हुए हैं। विलास वैभव की महत्वाकांक्षाएं आकाश चूमती हैं; पर प्रतिभा, प्रमाणिकता, उदार सहकारिता के बिना वह सम्पत्ति भी वेश्याओं के यहाँ, दुर्व्यसनों में दवादारु में, मुकदमे, रिश्वत आदि में ही खर्च होती है। मुफ्त में गुलछर्रे उड़ाने कि लिए यदि उत्तराधिकारियोँ के लिए सम्पत्ति के साथ-साथ अपना व्यक्तित्व भी गवाँ बैठते हैं। हराम की कमाई भी पारे के विष की तरह किसी को हजम नहीं होती।

विलासिता रुग्णता की जड़ है। जीभ के चटोरे अपना पेट खराब कर लेते हैं और अपच की सड़न रक्त के साथ मिलकर चित्र विचित्र रोग उत्पन्न करती है। जीवनी शक्ति का बेहिसाब क्षरण करती है। लम्पट व्यक्ति कभी मूत्र मार्ग से अपना ओजस तेजस और वर्चस बहा कर खोखले बनते रहते हैं। अनिद्रा, विस्मृति, थकान, उद्विग्नता से मस्तिष्क बेचैन रहता है। मानसिक असन्तुलन ज्ञान तन्तुओं को उत्तेजित करता और रक्तचाप, मधुमेह, धड़कन जैसे रोगों को आमंत्रित है। नशेबाज अपनी जिन्दगी में एक तिहाई कटौती कर लेते हैं। आवेशग्रस्त क्रोधी, अतिवादी चिन्तनतंत्र की विकृति कर लेते हैं। जिन पर फैशन का प्रदर्शन का ठाट बाट का सजधज का भूत सवार है उनका अहंकार समय और धन ही बर्बाद नहीं करता वरन् समझदारों की दृष्टि में ओछा बचकाना भी सिद्ध होता है। अपव्यय के लिए धन लुटाते रहने वाले के चरित्र पर भी अपव्यय के लिए धन लुटाते रहने वाले के चरित्र पर भी संदेह किया जाता है। मेहनत की कमाई सोच समझ कर खर्च की जाती है। एक-एक पाई को सदुपयोग की कसौटी पर कसकर खर्चा जाता है। जो सजधज में बेहिसाब लुटाता है उसके बारे में सहज अनुमान लगाया जाता है कि यह मुफ्तखोरी या बेईमानी की-हराम की कमाई रही होगी। शालीनता के साथ सादगी जुड़ी हुई है। सादाजीवन उच्चविचार की उक्ति सौ टंच खरी हैं अपव्ययी ही प्रायः आर्थिक तंगी का कर्जदार होने का रोना रोते है। यदि संभलकर चला जाय तो उपरोक्त सभी झंझटों से बचा जा सकता है और व्यक्तिगत जीवन में मनुष्य सुखी रह सकता है।

शरीर के उपरान्त परिवार का नम्बर आता है। अधिक सन्तानोत्पादन करने वाले लम्पट व्यक्ति अपनी अर्थव्यवस्था, पत्नी का स्वास्थ्य, बच्चों का भविष्य और कुटुम्बियों पर संकट बढ़ाते हैं। जिन्हें दूसरोँ से अधिक पाने और बदलें में कम से कम देने की स्वार्थान्धता छाई रहती है, वे कुटुम्बियों के साथ भी हिल-मिल कर नहीं रह सकती। पत्नी बच्चों तक से पटरी नहीं बैठती। भाई भावजों के माता-पिता के साथ खींच तान बैठती। भाई भावजों के माता-पिता के साथ खींच तान रहती है। सौजन्य सहकार के अभाव में कोई परिवार फलता फूलता नहीं देखा गया। जो मीठा नहीं बोल सकते, शिष्टाचार नहीं निभा सकते। दूसरों की मान मर्यादा का ध्यान नहीं रखते। ऐसे लोगों का घर एक प्रकार का मुसाफिर खाना या भेड़ों का बाड़ा ही समझा जाना चाहिए। एक घर में तो जले में कैदी भी रहते हैं। पारिवारिकता का तात्पर्य है- दूसरों की सुसंस्कारिता का संवर्धन - शालीनता और प्रगतिशीलता का मार्गदर्शन। आवश्यक नहीं कि अंश-वंश के लोगों को ही कुटुम्बी माना जाय और उन्हीं की उचित अनुचित माँगों को पूरा करने रहने के लिए खपते रहा जाय।

व्यक्तिगत एवं पारिवारिक जीवन गरीबी में रहते हुए भी सद्गुणों के आधार पर सुखपूर्वक हँसते हँसते जिया जा सकता है, इन क्षेत्रों में अशान्ति छाई रहने का एकमात्र कारण है- गुण, कर्म, स्वभाव में निकृष्टता का घुसा होना। शिक्षा, सम्पदा, सुन्दरता के अभाव में किसी को नीचा नहीं देखना पड़ता। मरघट के भूत की तरह वे ही जलते जलाते रहते हैं जिनमें मानवी गरिमा के अनुरूप सौजन्य कम दिखाई पड़ता है।

समाज की संरचना, पारिवारिकता के सिद्धान्त पर हुई है। उसकी सादा और संतुलित आदान-प्रदान चलाते रहने में ही सुव्यवस्था बनी रहती है। दूरदर्शी विवेकशीलता विद्यमान हो तो कुरीतियों, रूढ़ियों, अन्ध परम्पराओं के पैर कैसे टिकें? ठगी और विश्वासघात की अपराधी मनोवृत्ति को प्रश्रय न मिले तो सामाजिक विग्रहों और अपराधों की विभीषिका क्यों कर अराजकता जैसी स्थिति उत्पन्न करे समता, ममता और एकता की मानवी गरिमा यदि अक्षुण्ण बनी रहे तो पारस्परिक सहयोग में आँच आने का कोई कारण नहीं हो सकता। हरामखोरी, कामचोरी,सीनाजोरी से ही विघटन और उत्पात उत्पन्न होते हैं। जब जंगल में हिरन और पेड़ों पर पखेरू हिल मिलकर रह सकते हैं तो कोई कारण नहीं कि मनुष्य सुख बाँटने और दुःख बँटाने में कृपणता बरते।

जाति भेद, लिंग भेद के आधार पर चल रही विषमता ऊँच नीच की भावना मानवी आचार संहिता के विपरीत है मौलिक अधिकारों की उपलब्धि सभी को होनी चाहिए। न कोई किसी का दास बने न स्वामी। धरती माता के सभी पुत्र समान सुविधा प्राप्त करें। सभी को सम्मान और सद्भाव मिले। न कोई किसी का शोषण करे और न किसी को अनीतिजन्य उत्पीड़न का शिकार बनना पड़े। दबाव और प्रलोभन के शिकंजे में कस कर कोई किसी बोधित न करे। न्याय, नीति कर्त्तव्य, अधिकार के क्षेत्र में सभी को समानता का लाभ मिले। तभी समझना चाहिए कि मानव बिरादरी की सहकारी सामाजिकता का ठीक प्रकार निर्वाह हो रहा इस संदर्भ में यदि विषमता बरती जाती है तो समझना चाहिए कि एक दूसरे पर झपटने वाले भेड़ियों और कुत्तों का समुदाय ही मानवी कलेवर ओढ़ कर रह रहा है। मनुष्यों के बीच जंगल का कानून नहीं चल सकता, मत्स्य न्याय नहीं अपनाया जा सकता। जिसकी लाठी उसकी भैंस की नीति अपनाई गई तो बड़ी मछली छोटी को खाती रहेगी। समर्थ, असमर्थों का रक्त निचोड़ते और उसे पीकर बड़प्पन की डींग हाँकते रहेंगे।

शासन सत्ता का उद्देश्य है सुरक्षा, सुव्यवस्था, संरक्षण सुविधा संवर्धन और प्रगतिशीलता का वातावरण बनाये रहना। नीति निष्ठा पर आँच न आने देना ही राज सत्ता का उद्देश्य है। शासन इसी आवश्यकता को पूरा करने के लिए अपनी समर्थता का उपयोग करता है। इस यथार्थता का जहाँ आदर्शवादी अनुशासन है समझना चाहिए कि यही राजनीति और धर्मनीति का एकीकरण है।

साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, व्यापारिक शोषण, सहायता के नाम पर घर में घुसकर लूट पाट, आक्रमण छद्म, प्रोपेगैंडा जैसे हथकंडे हिटलरी राजनीति के अंग हो संकेत हैं। इसे पहले से ही गोरी चमड़ी वाले प्रधान रूप से अपनाते रहे हैं। सामंतवाद इसी नीति के कारण बदनाम हुआ। कत्लेआम, खुली लूट, युवक युवतियों को पशुओं की तरह हाँक ले जाना और इन्हें दास दासी के रूप में नीलाम करना। इन्हीं अनाचारों के इर्द-गिर्द मध्य कालीन राजनीति मंडराती रही है। तरीके बदले पर रवैये यथावत् बने रहे। तलवारों वाला कत्लेआम रुका तो अणुबमों से जापानी क्षेत्र का सफाया नये रूप में आ गया।

राजनीति के पीछे शोषण नहीं, न्याय एवं संरक्षण होना चाहिए। ऐसी व्यवस्था बन पड़े तो अपराध करने की किसी की हिम्मत ही न पड़े। जो दुस्साहस बरते उसे अपने स्तर, वैभव और अहंकार से सदा, सर्वदा के लिए हाथ धोना पड़े तो समझना चाहिए कि राजनीति वस्तुतः अपने उस रूप में है जिसमें कि उसे होना चाहिए। राजतंत्र हो या प्रजातंत्र शासन संचालकों का समुदाय ऐसा होना चाहिए, जिससे चरित्र एवं न्याय पर उंगली उठने की गुंजाइश न हो। अच्छा हो एक व्यक्ति एक बोट के स्थान पर चुनाव की ऐसी पद्धति हो, शासन संचालन का कार्य सौंपा जा सके।

व्यक्तित्व परिवार उपार्जन, समाज आदि सभी धाराओं के पीछे दूरदर्शी विवेकशील का समावेश होना चाहिए। तभी इन क्षेत्रों में सुख शाँति का स्थायित्व रह सकता है। प्रगति का द्वार खुल सकता है। और न्याय नीति का व्यवहार चल सकता है।

मानवी आचार संहित क्या होनी चाहिए उसका अयास किस प्रकार जन-जन द्वारा किया जाना चाहिए। यह निर्धारण करना तत्व दर्शन का काम है। यही अध्यात्मिकता है, यही आस्तिकता। इसी को धार्मिकता भी कहते हैं। धर्म तंत्र का आधार इसी हेतु खड़ा किया गया है कि वह व्यक्ति और समाज को मानवी गरिमा के अनुरूप चलने के लिए बाधित करे। सोचने का ऐसा तरीका दिखाये जो आत्म परिष्कार और लोक मंगल के दोनों ही आधारों को सुसंतुलित रखे। सुसंस्कारिता की किसी भी क्षेत्र में कमी न पड़ने दे। अनीति रखे। सुसंस्कारिता की किसी भी क्षेत्र में किसी न पड़ने दे। अनीति को उपजने और फैलने का अवसर ही न दे। धर्म का समूचा ढाँचा इसी आधार पर ही खड़ा किया गया था। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि वह एकात्म तत्व अनेक सम्प्रदायों में विभाजित हो गया और प्रथा परम्पराओं के आवरण से उसका समूचा ढाँचा ढक गया।

इन दिनों देश, धर्म, समाज और संस्कृति वर्गों में विभाजित होते-होते इस स्तर तक जा पहुँचे हैं कि उनकी गुत्थियाँ सुलझने में नहीं आ रही हैं और विभाजन से लेकर विग्रह तक के आसार खड़े कर रहे हैं।

धर्म का तात्पर्य है- कर्म। तथा कर्तव्यपालन और श्रम सम्पदा का सम विभाजन। व्यक्ति को बोध कराना है कि वह महान सत्ता का प्रतिनिधि है उसे महान बने रहना है, और प्रचलन से लेकर वातावरण तक के इस प्रकार परिष्कृत करना है जिसमें नर पशु का नर नारायण में, क्षुद्र को महान में परिवर्तित होने का अवसर मिले। आत्मवत् सर्व भूतेषु’ की भावना जगे और “वसुधैव कुटुम्बकम्” की मान्यता को मूर्तिमान प्रश्रय मिले।

धर्म का तात्पर्य है- कर्म। तथा कर्तव्यपालन और श्रम सम्पदा का सम विभाजन। व्यक्ति को बोध कराना है कि वह महान सत्ता का प्रतिनिधि है उसे महान बने रहना है, और प्रचलन से लेकर वातावरण तक के इस प्रकार परिष्कृत करना है जिसमें नर पशु का नर नारायण में, क्षुद्र को महान में परिवर्तित होने का अवसर मिले। आत्मवत् सर्व भूतेषु’ की भावना जगे और “वसुधैव कुटुम्बकम्” की मान्यता को मूर्तिमान प्रश्रय मिले।


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