हम विनाश की कगार पर खड़े हैं।

February 1987

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पिछला कम जो किया जाता रहा है, उसकी परिणति सामने है, घटनाक्रम पिछले दिनों घटित होता रहा है, जो भी प्रयास पुरुषार्थ अपने द्वारा किया जाता रहा है, उसी के अनुरूप भली बुरी परिस्थितियाँ प्राप्त हैं। इन दिनों जो किया जा रहा है, उसके परिणाम अगले दिनों आकर रहेंगे। इस मोटे सिद्धान्त के आधार पर भी भावी परिस्थितियों का अनुमान लगा लेना भी कुछ कठिन नहीं होना चाहिए। आम आदमी इसी आधार पर भविष्यवाणियाँ करता हैं। बादलों को देखकर वर्षा होने का, तपती धूप का सिलसिला चलते देखकर सूखा पड़ने का, ठंडक आने पर पतझड़ होने का अनुमान लगाता है। कार्य कारण की संगतियाँ देखकर वर्तमान एवं भविष्य के रूप को सामने रखा जाता है। हरियाली खेतों में उगी देखकर अच्छी फसल होने का अनुमान लगता हैं। हमें आज की स्थिति के अनुरूप कल का आभास लग जाता हैं। बौर आने पर कोयल कूकती और फल लगते हैं। बसंत के आते ही तितलियों, मधुमक्खियों के झुण्ड जमा होने लगते हैं और खिले हुए फूल फल बनते हैं। बीज गलता है तो वृक्ष बनता है फलों में नये बीज उत्पन्न होते हैं और प्रकृति क्रम का सिलसिला जारी रहता हैं।

कृति की परिणति मोटी संभावना है। कोई अपवाद व्यवधान आड़े न आये तो वह सही होकर ही रहता है।

दूरदर्शी विशेषतः और भी दूरवर्ती अनुमान अपनी सूक्ष्म बुद्धि को गहराई में उतारकर लगाते हैं। स्कूली बच्चों में से आवारा प्रकृति के होते हैं, पढ़ने में ध्यान नहीं लगाते और अनुशासन में नहीं बढ़ते, उनके बारे में अनुमान लगा लिया जाता है कि यह अस्त−व्यस्त फिरेंगे और किसी उज्ज्वल भविष्य की संरचना न कर सकेंगे। इसी आधार पर मनोयोग पूर्वक पढ़ने वाले और अपने काम में तन्मयता बरतने वाले स्वभाव के मधुर लड़कों के बारे में अनुमान लगाया जाता है, कि इन्हें का प्यार, अध्यापकों का अनुग्रह एवं प्रतिस्पर्धा में छात्रवृत्ति जैसा उपहार मिलेगा। बड़े होने पर वे सफल सम्मानित लोगों में गिने जायेंगे। जमुहाई आने लगे, तो समझना चाहिए कि बुखार आने के लक्षण हैं। इन दिनों मानवी गतिविधियों का जो प्रवाह बह रहा है उससे प्रतीत होता है कि भविष्य में बुरे दिन आ रहे हैं। विपत्तियों और कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा।

भविष्य का अनुमान लगाने वालों में कई वर्ग होते हैं। वे सूचनाएँ एकत्रित करते हैं। परिस्थितियों के परिवर्तन की संभावनाओं को खोजते हैं और अनुमान लगाते हैं कि अगले दिनों क्या घटित होने की संभावना है। ज्योतिषी नाम से तो इस क्षेत्र में एक विशेष वर्ग ही बन गया है। अतीन्द्रिय क्षमताओं में भविष्य दर्शन की भी क्षमता पाई जाती है। योगी और सिद्ध पुरुष भी भविष्य दर्शन की भी क्षमता पाई जाती है। योगी और सिद्ध पुरुष भी भविष्य को वर्तमान की तरह देख लेते हैं। इनके अधिकाँश कथन प्रायः सच निकलते हैं। कारण दो हैं। उनमें विशेष शक्तियों का होना दूसरा भूत और भविष्य के साथ तारतम्य बिठाते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचना कि आगे क्या होने वाला है?

निकट भविष्य की संभावना को कीट–पतंगे भी जान लेते हैं। ऋतु परिवर्तन के अनुरूप उनका कार्य क्षेत्र बढ़ता सिकुड़ता रहता है। वह अपने-अपने निवास एवं आहार के प्रबंध में समय अपने से पहले ही लग जाते हैं। मनुष्य की सामान्य बुद्धि भी इस संदर्भ में सही अनुमान लगाती है। फिर विशेषज्ञों का तो कहना ही क्या? वे तो स्वास्थ्य प्रमाण मिलते और हवा का रुख परखने पर भी बड़ी-बड़ी संभावना का निष्कर्ष निकाल लेते हैं। इन्हें हवाई उड़ानें नहीं कहा जा सकता। राजनैतिक क्षेत्र के नेता बड़ी-बड़ी योजनाएँ इसी आधार पर बनाते हैं। सेनापतियों की रणनीति भी तो सूझ-बूझ के सहारे ही विनिर्मित होती है। भविष्य कथन भी एक विज्ञान है। इसके बुद्धि संगत और दिव्य ज्ञान से जुड़े हुए दोनों ही पक्ष ऐसे हैं जिन्हें झुठलाया नहीं जा सकता।

भविष्य कथन के संबंध में एक क्रमबद्ध शास्त्र ही है जिसे ‘युटोपिया’ कहते हैं। इन्हें अनेक प्रतिभा सम्पन्नों ने लिखा है। यों उनका मूल आधार कल्पना है, किन्तु वे कल्पनाएँ ऐसी देखी गई हैं कि उनका अधिकाँश प्रतिपादन सही निकलता है। इसलिए बड़े चाव से पढ़ा भी जाता है। भविष्य जानने का कौतूहल सभी को रहता है। इसलिए ऐसी पुस्तकों की माँगें भी रहतीं हैं। इसलिए उन्हें भी कौतुकपूर्ण समझा जाता है। संभावना यही रहती है। कि उन प्रतिपादनकर्ता ने दूर की कौड़ी होगी और उसका साथ यथार्थता भी जुड़ी होगी।

पिछले दिनों जो भविष्यवाणियाँ शास्त्रकारों या आप्तजनों के द्वारा प्रकट की जाती रही हैं, उन्हें श्रद्धालु लोगों ने सुनिश्चित संभावना के रूप में माना है। भविष्य पुराण में प्रलय खण्ड बाइबिल में सेवन टाइम, कुरान में चौदहवीं सदी के समय को कठिन बताया है। ज्योतिर्विद् ग्रहाचार के आधार पर निकट भविष्य में बुरी परिस्थितियाँ आने का संकेत देते रहे। कितने ही संत महात्माओं ने भी अपने लिखित और मौखिक प्रवचनों में ऐसा ही कहा है, कि अगले दिनों प्रकृति प्रकोप के टूटने की भरमार तो रहेगी ही। इसके अतिरिक्त मनुष्यकृत आपदाओं की भी बढ़ोत्तरी होगी। पारस्परिक स्नेह सहयोग टूट, जाने पर पारस्परिक स्नेह सद्भाव घटेंगे और उनके स्थान पर द्वेष दुर्भाव के प्रकटीकरण वाले दृश्य उपस्थित होंगे। शीत युद्ध और गरम युद्ध के ज्वालामुखी जहाँ-तहाँ फूटते रहेंगे।

कुछ वर्षों पूर्व कोरिया देश में संसार भर के मूर्धन्य ज्योतिषियों की एक कान्फ्रेन्स हुई थी। बड़ी संख्या में खगोल विज्ञानी ने निकट भविष्य में किन्हीं भयावह विभीषिकाओं की संभावना घोषित की थी। इस प्रकार संसार के प्रमुख अर्थशास्त्रियों, राजनेताओं एवं परिस्थितियों का मूल्याँकन करने वाले विशेषज्ञों का यह मत एक स्वर से प्रकट हुआ था कि निकट भविष्य में जाति के कई संकटों में फँस जाने की आशंका है। प्रकृति पर्यवेक्षकों ने एक कान्फ्रेन्स में धरती के तापमान में निरन्तर बढ़ोत्तरी होते देखा। समुद्रों में तूफान उठने, से लौटे आने की संभावनाओं के संबंध में भूगर्भशास्त्री हैं, जितनी धरती की ऊर्जा खर्च हो रही है, उसके भंडारण की समाप्ति की आशंका है। खनिज तेल और धातुएँ कोयला आदि का जिस तेजी से उत्खनन हो रहा है उसे देखते हुए अगली शताब्दी में इनकी समाप्ति हो जायगी। बिजली भी उतनी उत्पन्न न हो सकेगी, जिनके द्वारा सुविधा साधन का ईंधन का और कल कारखानों का पेट भर सके। ऐसी दशा में यही उचित है कि खर्च घटाने की दृष्टि से इन निकायों से पीछा छुड़ाया जाय। वैसा किया गया तो भुखमरी, बेकारी, अशिक्षा, अनगढ़ जीवन पद्धति का, अपराधी मनोवृत्ति का विस्तार होगा। इस कारण सर्वसाधारण को आशंकाओं से विभ्रमों से असुरक्षा से घिरा रहना पड़ेगा।

प्रत्यक्षवादी भी ऐसी ही अशुभ संभावनाओं के स्वर में स्वर मिलाते हैं- विकिरण, पर्यावरण, जनसंख्या विस्फोट, परस्पर बढ़ा हुआ विश्वास यह सब मिलकर ऐसी परिस्थितियों को जन्म देंगे, जिसे एक शब्द में अशुभ एवं संकटपूर्ण ही कहा जा सकता है। युद्धों और महायुद्धों की संभावना इसलिए बढ़ती दिखाई दे रही हैं। युद्धों और महायुद्धों की संभावना इसलिए बढ़ती दिखाई है। युद्धों और महायुद्धों की संभावना इसलिए बढ़ती दिखाई दे रही है कि आयुध, प्रक्षेपास्त्र इतने जमा हो गये हैं, कि इस बारूद के ढेर में किसी भी और से चिनगारी फेंक दिये जाने पर वह सीमित न रहेगी वरन् समूचे विश्व को भी उदरस्थ करके रहेगी जब बेशकीमती जखीरे जमा होते ही चले जायेंगे तो एक दिन यह भी आशंका है कि उनका विस्फोट हो और उसके फलस्वरूप संसार का समूचा नक्शा ही बदल जाय। जनसंख्या वृद्धि के साथ उत्पादन का तालमेल बैठ ही नहीं रहा है ऐसी दशा में गरीबी से पीछा छूट सकना भी कठिन है।

वन कट रहे हैं। भूक्षरण, बाढ़ सुखा, रंगिस्तान की वृद्धि जैसी कठिनाइयाँ एक दूसरे के साथ गुथी हुई हैं। बड़े कारखानों की वृद्धि से गृह उद्योगों की बर्बादी गरीबों को अधिक गरीब और अमीरों को अधिक अमीर बनाती चली जा रही है। हर हाथ को काम न मिलने के कारण बेकारों द्वारा आये दिन उपद्रव अपनाये जाते रहे हैं। सम्प्रदायों के बीच कलह छिड़ी हुई हैं। एकता टूटती जा रही है। विषमता बढ़ रही है। सामूहिक समस्याओं की जिस प्रकार बाढ़ आई हुई है उतनी इससे पहले कभी देखी नहीं गई। व्यक्ति के जीवन का भी यही हाल है। चिन्तन चरित्र और व्यवहार की दृष्टि से व्यक्ति दिन-दिन गिरता और छोटा होता जा रहा है। भौतिक और आत्मिक दोनों ही क्षेत्रों में उसे संकटों का सामना करना पड़ रहा है।

इन परिस्थितियों को देखते हुए निकट भविष्य में विपत्तियाँ बढ़ने एवं संकटों के उभरने की आशंका की जाती है तो वह अतिशयोक्ति या अवास्तविकता भी नहीं है।

जो जितना ज्यादा समझदार है उसे अपने निज की, परिवार की, समाज की, विश्व की समस्याएँ ऐसी दीखती हैं, जिनके सुलझाने के उपाय अब तक सफल नहीं हुए हैं और न वे प्रस्तुत उपचारों के सहारे जल्दी ही हल होते दीखते हैं। ऐसी दशा में मूढ़ मति लोगों को छोड़ कर शेष सभी में एक कसक और तड़पन होती है, कि समस्याओं को किसी भी कीमत पर सुलझाना चाहिए। सृष्टा की इस अनुपम कलाकृति को विनाश के गर्त में गिरकर अपना सर्वनाश होते नहीं देखना चाहिए।


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