विनाश विभीषिकाओं का अन्त होकर रहेगा

February 1987

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दो परस्पर विरोधी युगों का मिलनकाल बड़ा विचित्र होता है। उस अवधि में जो विसंगतियाँ दीख पड़ती है। वे बहुत ही विचित्र होती हैं। विसंगतियाँ दीख पड़ती हैं, वे बहुत ही विचित्र होती हैं। बह्ममूहूर्त में तारे बुझने लगते हैं। और तमिस्रा घनीभूत हो जाती है। विदा होने से पहले अन्धकार इतना गहन होता है जितना रात्रि के अन्य प्रहरों में नहीं होता। दूसरी ओर ऊषाकाल का अरुणोदय पूर्व प्राची दिशा में धीमा उजाला भी मुस्कान आरम्भ कर देती है। अन्धकार का घटना और प्रकाश का बढ़ना दोनों परस्पर विरोधी हैं। किन्तु फिर भी वे अपने समय पर अपना काम करते ही हैं। दीपक जब बुझने को होता है तो उसकी लौ बार-बार उदीप्त होती और अन्त में बन्द हो जाती है। मृतक भी अपनी सांसें अन्तिम क्षणों में बड़ी तेजी से चलाता है। बीज एक और गलता जाता है दूसरी ओर नवाँकुरों का उत्पादन भी करता है। शिशु जन्म के समय कितनी विकट प्रसव पीड़ा होती है इसे सभी जानते हैं पर साथ ही यह भी आशा करते हैं कि कुल का दीपक जन्मेगा और परिवार का सहारा बनेगा।

इन्हें परस्पर विरोधी बातें कह सकते हैं किन्तु परिवर्तन कालों में सदा ऐसा ही होता है। बसन्ती शोभा सुषमा बिखरने से पूर्व शीतल हेमंत का साम्राज्य होता है। पेड़ों से पत्ते गिरते और उन्हें कुरूप ठूँठ बना देते हैं पर उस समय के तनिक खिसकते ही नहीं कोपलों और फूलों का सिलसिला आरम्भ होता है। जिससे वातावरण उल्लासमय बनता और मधुर फल लगने का क्रम चल पड़ता है। ग्रीष्म सब कुछ सुखा देती है। अन्धड़ों और चक्रवातों की विभीषिका खड़ी कर देती है। पर उसका समापन होते होते ठीक प्रतिकूल परिस्थितियाँ बनती है और बादलों के घटाटोप दौड़ पड़ते हैं, जल थल एक कर देने वाली वर्षा होती है। हरितिमा का मखमली फर्श सारी जीवन पर बिछ जाता है। तपते ग्रीष्म और बरसते श्रावण की तुलना की जाय तो उनके बीच जमीन आसमान जैसा अन्तर दीख पड़ता है। परिवर्तन काल ऐसे ही विचित्र होते हैं। जीवित को मरणकाल में प्राण त्यागने पड़ते हैं और मूत्रमार्ग में बेहोश पड़ा भ्रूण प्रसवकाल के क्षणों में नवजीवन का परिचय देता है। प्रकृति की यह विचित्रताएं लगती तो आश्चर्यजनक हैं पर हैं सुनिश्चित और आवश्यक। यदि ऐसा न होता तो सर्वत्र स्थिर जड़ता दृष्टिगोचर होती है। परिवर्तन का मोहक नृत्य समाप्त हो जाने पर यहाँ नीरवता निस्तब्धता छा जाती।

सृष्टा ने इस धरती की शोभा सुव्यवस्था बनाये रहने का दायित्व अपने ज्येष्ठ पुत्र मनुष्य के कंधों पर सौंपा है। साथ ही यह निर्देश किया है कि अपनी गरिमा को सुसंस्कृत स्तर तक पहुँचाने का प्रयत्न करे। चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते समय जो हेय स्तर की आदतें मान्यताएँ गतिविधियां एकत्र कर ली हैं। उन्हें खरपतवार की तरह उखाड़ फेंके कूड़े कचरे की तरह बुहार डालें ताकि शक्तियों को अपव्यय बचे और ऐसे क्रिया कलाप चल सके। धरती की स्वर्गोपम उपमा गरिमा अक्षुण्ण बनी रहे।

देखा जाता है कि मनुष्य जहाँ स्वाभाविक रूप से अति महान है वहाँ उसमें यह दोष भी है कि अपने गौरव और दायित्व को भुलाकर ईद गिर्द चल रही गतिविधियाँ से प्रभावित होकर उन्हीं का अनुकरण अनुगमन करने लगते हैं। सतयुगी वातावरण के दिनों में श्रेष्ठता का आवेश ही हर किसी पर छाया रहता है और आदर्शवादिता के क्षेत्र में हर कोई अपने पराक्रम एवं वर्चस्व का प्रमाण प्रस्तुत करते रहते हैं। प्रतिस्पर्धा की घुड़दौड़ लगी रहती है। सर्वत्र महामानवों का ही बाहुल्य दीख पड़ता है। किन्तु जब मनुष्य उलटी राह चलता है, कीचड़ और गंदगी में लोटता है तो शरीर परिधान सभी दुर्गन्ध से भर जाते हैं। उन्हें छूने तक की इच्छा नहीं होती ऐसे लोगों का बाहुल्य जहाँ भी जब भी होती है, तब वहाँ वीभत्स दृश्य दृष्टिगोचर होते हैं। शराब खाने में गाली गलौज और जुल्म जोर की ही माहौल दीख पड़ता है। यह कलियुग है उसी को अवाँछनीय दीख पड़ता है। यह कलियुग है उसी को अवाँछनीय वातावरण कहते हैं जब नीतिमत्ता के निर्वाह की जिम्मेदारी का परित्याग कर दिया जाता है तो दृश्य नरक जैसा ही बन जाता है। उससे व्यक्ति का पतन और समाज का पराभव होता है। विग्रह और विनाश के शोक और संताप के दृश्य दिखाई देने लगते हैं। इन दिनों हमें ऐसे ही वातावरण में रहना पड़ रहा है। विषम परिस्थितियाँ चारों ओर से नोचती कचोटती दीख पड़ती हैं।

बिगड़े का सुधार आवश्यक है। टूट-फूट की मरम्मत की जाती है। जराजीर्ण भवनों को ठोक पीट कर काम चलाऊ बनाया जाता है। बर्तनों और कपड़ों की भी ऐसी ही साज सँभाल चलती है। इसके लिए मनुष्यों को ही आगे आना पड़ता है। यों मूलतः निर्माता के किये पर ही बिगाड़ को सुधारने की भी जिम्मेदारी है। मकान मालिक ही मरम्मत और रंग रोगन कराता है। प्रान्तीय क्षेत्रीय शासन जब अव्यवस्था और अराजकता से घिरे जाते हैं तब कार्यवाहकों को निलम्बित या परिवर्तित कर दिया जाता है। राष्ट्रपति शासन लागू होता है। मनुष्य जब तक बिगड़ी परिस्थितियों को सन्त, सुधारक और शहीदों के माध्यम से सामयिक अव्यवस्थाओं को सँभालता रहता है तब तक उसके पौरुष और वर्चस्व की प्रशंसा एवं प्रतिष्ठा ही बनी रहने दी जाती है। कोई ऊपरी छेड़खानी नहीं होती। किन्तु जब पतन का प्रवाह द्रुतगामी हो जाता है तो उसकी रोकथाम करने और साज संभाल का जुगाड़ बिठाने के लिए अधिष्ठाता को अपना मार्शल कानून लगाना पड़ता है। स्थिति को संभालने वाले प्रशिक्षित अफसर भेजने पड़ते हैं। इसी का नाम अवतार है। अधर्म की बढ़ोतरी और धम के ह्रास जैसी विषम परिस्थितियों में स्वयं आकर साज संभाल करने का दिया हुआ वचन भूतकाल में भी चरितार्थ होता रहा है और अब भी होने जा रहा है। निराकार परमेश्वर स्वयं तो जन्म नहीं ले सकता और न किसी व्यक्ति विशेष के छोटे कलेवर में सीमाबद्ध होकर विशाल ब्रह्माण्ड के घट घट में समाया रह सकता है। जो असंभव है वह न पिछले दिनों हुआ है और न अब या अगले दिनों होगा अवतार एक अन्धड़ तूफान की तरह आता है जिसके सहायक होने की इच्छुकों की पात्रता उन्हें बढ़-चढ़कर काम करने का अवसर प्रदान करती है। युग सृजेता उत्पन्न होते हैं और उलटे उलटकर सीधा करने की प्रक्रिया में प्राणपण से जुटकर नियन्ता के संकेतों को समझते हुए उसकी इच्छापूर्ति में अपनी समग्र सत्ता को नियोजित करते हैं। कर्तृत्व मनुष्य का होता है और नेतृत्व भगवान का। ऐसी दशा में कठिन कार्य भी सरल हो जाते हैं और सामान्य स्तर के दीखने वाले मनुष्य भी ऐसे काम करते हैं, जिन्हें देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। युगपरिवर्तन के अवसरों में सृजन सैनिकों का पराक्रम ऐसा ही होता है, जिसे तुच्छ मनुष्य कदाचित ही कभी कर सके। तूफान जब आते हैं तो उसके साथ पड़कर रेत के कण और सूखे पते उड़ते चले जाते हैं और आसमान चूमते हैं। नगण्य सही टहनियाँ नदी के प्रचण्ड प्रवाह में पड़कर द्रुतगति से सनसनाती चली जाती है और लम्बी यात्रा पूरी करके समुद्र तक पहुँचती है। ग्रीष्म की बहुलता में साधारण हवा के झोंके चक्रवात बनते हैं और पेड़ों को उखाड़ते झोंपड़े के उछालते चले जाते हैं युग परिवर्तन के समय भी ऐसा ही होता है। साँसारिक दृष्टि में सामान्य योग्यता और परिस्थिति के व्यक्ति जब उच्चस्तरीय परमार्थिक काम करने खड़े होते हैं तो उन्हें भगवान की अतिरिक्त शक्ति सहायता करती है। उसी के बलबूते वे इतने बड़े काम कर दिखाते हैं जिन्हें मानुषी कहने में झिझक होती है जिन्हें दैवी कहने को ही मन करता है। ऐसे अनेकानेक उदाहरण इतिहास में मौजूद है और आगे भी प्रस्तुत होते रहेंगे।

हनुमान, अंगद, अर्जुन, भीम, परशुराम, अगस्त्य दधिचि, भागीरथ, राम कृष्ण, बुद्ध, गान्धी, ईसा दयानन्द, विवेकानन्द आदि कृत्यों को देखकर यह अनुमान लगाना पड़ता है कि यदि उनके साथ दैवी अनुग्रह न रहा होता तो इतने असाधारण कार्य कर सकने में उन्हें आश्चर्यजनक सफलताएँ क्यों कर मिलती हैं? रीछ वानरों की सहायता से समुद्र पर पुल कैसे बन जाता है। लाठी का टेका लगाकर ग्वालबाल गोवर्धन उठाने में कैसे सफल हो पाते हैं अनीति का उन्मूलन और सत्प्रवृत्ति संवर्धन में दैवी सहायता सदा ही उपलब्ध होती रही और होती रहेगी।

अदृश्यदर्शी अपनी दिव्य दृष्टि से यही सब होते हुए देख रहे हैं। उन्हें हस्तामलकवत् यह दीख रहा है कि मनुष्य ने अपनी मर्यादा और गरिमा को तिलाँजलि दे दी फलस्वरूप अदृश्य वातावरण विषाक्त हो गया। प्रकृति प्रतिकूलताएँ उगलने लगीं। विपत्ति बरसाने लगी और ऐसे दलदल जैसी परिस्थिति बन गई जिसकी विभीषिका विश्व विनाश जैसा संकट खड़ा किये हुए है। आशंका और आतंक से हर किसी का दिल धड़क रहा है।

उबरने का उपाय एक ही है मानवी सुधार प्रयासों के असफल हो जाने पर उसका दूसरा उपचार आद्यशक्ति महाप्रज्ञा के अवतरण रूप में सामने आये और अपने वीरभद्रों को सुधार प्रयासों में जुटाये। विश्वास यही बन गया है कि यही होकर रहेगा। असुरता की लंका जलेगी और स्वयं फिर से नये रूप में प्रकट होगा। इस प्रकटीकरण का प्रत्यक्ष प्रभाव एक ही रूप में दीख पड़ेगा कि युगशिल्पियों को एक सृजन वाहिनी अनायास ही इन दिनों उग पड़ेगी। उसका पुरुषार्थ उन सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करेगा, जिनकी की इन्हीं घड़ियों अविलम्ब आवश्यकता है। बुरा समय इन दिनों घिरा हुआ दीख अवश्य रहा है पर ऐसा प्रचण्ड वायु वेग का माहौल भी बन रहा है, जो इन घटाटोप को उड़ाकर कहीं से कहीं पहुँचा देगा।


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