काम और क्रोध (kahani)

February 1987

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काम और क्रोध पर विजय पाकर एक दिन विचित्र वेश बनाकर एक व्यक्ति किसी गृहस्थ के यहाँ गया, गृहस्थी ने उसकी उपस्थिति को अशुभ मान उससे पूछा- “तुमने हय कैसा विचित्र-सा वेश बना रखा है” नवागन्तुक ने बताया उसने काम, क्रोध पर विजय पा ली है व उनके दुःख में उसने यह वेश बना लिया है। गृहस्थ ने उसे पागल समझ अपने नौकर से बाहर निकलवा दिया। आगन्तुक फिर आ गया तो फिर निकलवा दिया गया। इस तरह पच्चीसौं बार उसे तिरस्कृत हो निकलना पड़ा व बार-बार वह उसी गृहस्थ के पास आया। गृहस्थ द्वारा बार-बार तिरस्कृत व अपमानित कर दिये जाने पर उसको लेश मात्र भी क्रोध नहीं आया अन्त में गृहस्थ ने आगन्तुक से क्षम याचना की वह उसे विनयपूर्वक कहा- “महानुभाव आप वास्तव में महान् हैं मेरे द्वारा तना अपमानित व तिरस्कृत होने पर भी आप शान्त बने रहे, आपने वास्तव में क्रोध को जीत लिया है। “अतिथि ने कहा” - वत्स मेरी अधिक प्रशंसा न करो अधिक प्रशंसा सुनकर तो मुझमें अहंकार का भाव जाग जायेगा।” गृहस्थ ने अपना भाग्य सराहा कि आज उसने एक ऐसे सन्त के दर्शन किये जो काम क्रोध व अहंकार से मुक्त है।


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