बढ़ती हुई विभीषिकाओं के हल निकलेंगे

February 1987

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विश्व संकट में महायुद्ध के समतुल्य दूसरा खतरा है, उन वस्तुओं का अकाल पड़ जाना, जिनके बलबूते तथाकथित प्रगति का पहिया धूम रहा है और जनसाधारण का निर्वाह हो रहा है।

इस संदर्भ में दो प्रमुख आधार है। एक बढ़ती हुई जन संख्या के अनुरूप खाद्य पदार्थों की समस्या दूसरी है खनिज पदार्थों की समस्या। इसमें धातुएँ आती हैं और खनिज तेल एवं कोयला। इन सभी चीजों की अगले दिनों कमी पड़ने वाली है। कृषि योग्य भूमि सीमित है। जमीन की उपज भी मर्यादित है। उसका रासायनिक खादों में बेहिसाब दोहन किया जाय तो जमीन ठंडी पड़ जाती है। भविष्य के लिए वह ऊपर बंजर स्तर की निर्जीव हो जाती है। इसलिए रोज एक अंडा सोने का देने वाली मुर्गी से एक-एक अंडा रोल लेते रहना ही ठीक है। उसका पेट चीर कर एक दिन में ही सारे अंडे निकाल लेने का प्रयत्न किया जाय तो उसमें घाटा भी है और मूर्खता भी। जनसंख्या वृद्धि रोके नहीं रुक रही। उत्पादन शक्ति में ऐसी बढ़ोतरी हुई है कि प्रायः हर साल एक नया बच्चा पैदा होने का सिलसिला चल पड़ा है। हर बीस वर्ष में आबादी दूनी हो जाती है। इस हिसाब से बीसवीं शताब्दी में ही 500 करोड़ के स्थान 1000 करोड़ तक की आबादी जा पहुँचेगी। स्पष्ट है कि दूने खाद्य की जरूरत पड़ेगी, जबकि उतनी अभिवृद्धि होने की कोई भी संभावना नहीं है।

मात्र खाद्य की ही नहीं वस्त्र, निवास रोजी, रोटी, शिक्षा, चिकित्सा यातायात उद्योग आदि की इतनी अभिवृद्धि होगी कि उन सब आवश्यकताओं को जुटाना कठिन पड़ जायेगा। अभावग्रस्त पिछड़ी जनता के लिए सरकार को भारी टैक्स चुकाना भी संभव न रहेगा, जिससे वह नये साधन खड़े कर सके। कमाई कम और अधिक होने का सीधा अर्थ होता है दिवालियान, कंगाली महंगाई, कठिनाई। समझा जाना चाहिए कि यह अभावग्रस्तता दिन-दिन बढ़ती ही जायेगी और अंत में स्थिति यहाँ पहुँचेगी कि भुखमरी के मुँह में चले जाने के अतिरिक्त और कोई रास्ता शेष न रहेगा।

धातुओं में लोहा प्रधान है। उसी से सारी मशीनें बनती है। उद्योग में काम आने वाले और यातायात में लगे रहने वाले सभी यंत्र लोहे से बनते हैं। रेल, मोटर जलयान, वायुयान, कल कारखाने आदि में लोहा ही लोहा भरा होता है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि जिस गति से धातुओं का खनन हो रहा है, यदि वही क्रम चलता रहा तो अगले सौ वर्षों से पहले ही जमीन धातुएँ देना बंद कर देगी। कोयले का भी यही हाल है और तेल पैट्रोल का भी। समूची धरती का सर्वेक्षण कर लेने पर उसका निष्कर्ष भी यह निकला है कि इस ईंधन स्तर की खनिज सम्पदा का दोहन भी एक सौ वर्षों से अधिक नहीं हो सकेगा। तब तक वह छूँछ हो लेगी।

चालू क्रम प्रवाह को रोका नहीं जा सकता। माँग और बढ़ोतरी में कमी होने का कोई आसार नहीं। फिर उत्पादन अभिवर्धन भी ऐसा नहीं जिसे मनमाने स्तर तक बढ़ाया जा सके। धरती मिट्टी से पत्थरों से बनी हुई है उसे रबड़ की तरह खींच कर बढ़ाया भी नहीं जा सकता, ताकि आवश्यक और अनावश्यक माँग को उसे डरा धमका कर देर तक पूरा करते रहने के लिए बाधित किया जा सके। इस असमंजस भरे व्यवधान का फलितार्थ यह हो सकता है कि मशीनी क्षेत्र को लोहा और ईंधन न मिलने से गतिरोध उत्पन्न हो जायेगा और जो अनिवार्य रूप से आवश्यक प्रतीत होता है उसकी पूर्ति का भी कोई मार्ग न होगा। इस व्यवधान का परिणाम यही हो सकता है कि अकाल पड़ जाय और शारीरिक श्रम का आश्रय लेकर पाँच सौ वर्ष पूर्व की मशीन रहित दुनिया में लौटा जाया जाय। मशीनें ईंधन की शक्ति माँगती हैं। तेल कोयला न मिलने पर भी उनका ढाँचा ढकोसला कबाड़खाना बन कूड़े कचरे की तरह पड़ा रहेगा।

आज तो लोग सुई से लेकर माचिस तक के लिए मशीनों पर आश्रित हैं। उसने बैलगाड़ी जैसे वाहनों और हथकरघे वस्त्रों से काम चलाने की आदत भुला दी है। उसे नये सिरे से आरम्भ करने में कितनी कठिनाई पड़ेगी, इसे समय आने पर ही जाना सकेगा।

पिछले दिनों चल रहे ढर्रे पर अगले दिनों देर तक नहीं चला जा सकता। कम आबादी वाले दिनों में जंगली वृक्षों के कंद मूल फल भी ऋषियों से लेकर सामान्यजनों तक का गुजारा कर देते थे। कृषि होने लगी और पशु धन का सहयोग हाथ लगा, तब तो साधनों की बहुलता हो गई गुजारे का कोई प्रश्न ही न रहा। धातुओं का उपयोग भी घरेलू उपकरणों के ही काम आता था। लड़ाई में तीर तलवारों के निमित्त ही थोड़ी-सी आवश्यकता पड़ती थी। पर अब तो धातुएँ भी वस्त्रों की तरह ही आवश्यकता हो गई है। बढ़ती हुई आवश्यकताओं ने प्रकृति के भंडार में जो चिरकाल का संचय जमा था सो उसे खोद निकाला गया अब जब अगले दिनों नयी आवश्यकता पड़ेगी तो न धातुएँ मिल सकेंगी और न खाद्य पदार्थों का बाहुल्य रहेगा। मनुष्य इस संदर्भ में क्या कर सकता है? बुद्धि की अपनी सीमा मर्यादा है, वह पदार्थों को उतनी ही मात्रा में उपलब्ध कर सकती है, जितनी की वे प्रकृति के भण्डार में पहले से ही मौजूद है। पृथ्वी की उर्वरता भी सीमित है। रासायनिक उत्तेजनाएँ देकर तो उतना ही हो सकता है कि उस रस को धीरे धीरे सब्रपूर्वक न निकाल कर एकाकी दोहन कर लिया जाय। इससे तात्कालिक लाभ तो बढ़ा चढ़ा दीख सकता है, पर अगली पीढ़ी के लिए बाबा की थैली में सिक्के नहीं जुएँ खटमल ही भरे दीखेंगे।

मनुष्य बहुत दिनों से इन तीनों परस्पर संबंधित समस्याओं के समाधान का हल सोच रहा है, पर सामयिक उत्तेजना से नशा पीकर बल प्राप्त करने की तरह सामयिक हल ही सूझ पड़ रहे हैं। जनसंख्या कैसे घटे? उत्पादन कैसे बढ़े? धातुओं को तेल कोयले का भंडार खाली हो जाने पर उसका स्थानापन्न विकल्प क्या हो? अण बिजली का उत्पादन आरम्भ से संदेहास्पद बना हुआ हो। विकिरण कैसे रोका उनकी जली हुई राख को कहाँ डाला जाय? यह प्रश्न पर विचार तो बहुत हुआ है पर समाधान एक भी सूझ नहीं पड़ा है मानव बुद्धि यहाँ तक कर बैठ गई है।

दैवी समाधान ही अगले दिनों काम देंगे। जनसंख्या बढ़ने का उद्गम नारियाँ है। यह भार उन्हें ही सहना पड़ता है। रिपोर्ट है कि हर साल वे प्रसव पीड़ा में ही पाँच लाख की संख्या में वेदना से प्राण गवाँ बैठती है। यह प्रकृतिगत विडम्बना अदृश्य जगत के भाव प्रवाह से रुकेगा। कन्याओं की अपेक्षा पुत्रों का उत्पादन बढ़ जायेगा। हो सकता है कि देहरादून जिले के जौनसार क्षेत्र की तरह बहुपति प्रथा प्रचलित हो वहाँ के लोग अपने को पाण्डवों की संतान कहते हैं और बड़े एक भाई का विवाह करते हैं। शेष भाइयों की वह एक नारी ही उपपत्नी होती है। इस प्रकार पिछली पीढ़ी की तुलना में अगली पीढ़ी की संख्या नहीं बढ़ने पाती है और घर का खेतों का बटवारा न होकर पीढ़ियों तक शाँतिपूर्वक निर्वाह एक आजीविका का सिलसिला चलता रहता है।

यह भी हो सकता है कि नारी समुदाय की प्रजनन इच्छा एवं शक्ति घट जाय। विवाह नर नारी की मित्रता स्तर तक तो रहे पर उनके मध्य यौनाचार अत्यधिक घट जाय। दोनों ही पक्ष के उत्पादक तत्वों में भारी कमी हो जाय और वैसी स्थिति अनायास ही बन जाय जैसी कि परिवार नियोजन वाले कृत्रिम उपायों से करना चाहते हैं। यह भी हो सकता है कि कामुकता भड़काने वाले साहित्य और चित्रों को फिल्मों को प्रतिबंधित कर दिया जाय और नर नारी कुत्साओं से छूट कर भाई-भाई की तरह सदाचरण पूर्वक रहने लगे और मिल जुल कर काम करें। ऐसे ही उपायों का मिला जुला रूप अगले दिनों सामने आवेगा। विकिरण की वृद्धि से जब अपंग संतानें होने लगेंगी तो मनुष्य उस आफत से अपना बचाव करने में सतर्कता बरतने लगेगा और रोकथाम के उपाय अपनायेगा। मनुष्य जाति की महामारी भुखमरी का शिकार नहीं होना है तो सन्तानोत्पादन पर विराम लगाने के अतिरिक्त और कोई उपाय शेष नहीं रह जाता। प्रकृति की इच्छा और प्रेरणा बदलने जा रही है और अगली शताब्दी में अब की अपेक्षा जनगणना घटती ही जायेगी। वह तीन चौथाई से भी अधिक घट सकती है। ऐसी दशा में एक बड़ा समाधान निकल आवेगा।

खाद्यान्नों के उत्पादन में इन दिनों नई वृद्धि माँसाहार के प्रोत्साहन की ओर बढ़ रही है, यह उत्साह भी पानी के प्रोत्साहन की ओर बढ़ रही है, पर यह उत्साह भी पानी के बुलबुले की तरह ठंडा हो जायेगा। माँस महंगा पड़ता है पचने में गरिष्ठ होता है। उस माध्यम से प्राणियों के रोग मनुष्यों के शरीर में पहुँचते हैं, फिर उस कारण मनुष्य को निर्दय निष्ठुर बनना पड़ता है वह स्वभाव में सम्मिलित हो जाता है और पशु हत्या के बाद मनुष्य हत्या में जो झिझक होनी चाहिए वह भी नहीं रहती। फिर मनुष्य को अधिक जमीन और वनस्पति की आवश्यकता पड़ेगी। उन्हें पशु ही खा लेंगे तो मनुष्यों को उससे वंचित रहना पड़ेगा। ऐसी दशा में पशुओं का परिवार नियोजन चल पड़ेगा और वे इतनी ही सीमित संख्या में रह जायेंगे जिनके बचे रहने पर मनुष्यों को कोई असुविधा न हो। किसी प्रतिद्वंदिता का सामना न करना पड़े।

इक्कीसवीं शताब्दी में बड़े शहरों का विकेन्द्रीकरण होगा। गाँवों का स्थान कस्बे लेंगे। कल कारखाने छोटे छोटे स्तर के लगेंगे जो प्रदूषण उत्पन्न न करें जिसके लिए बड़ी मात्रा में कोयला न जलाना पड़ेगा। इतनी बिजली तो हवा पानी से ही निकल आया करेगी। जिस कुटीर उद्योगों के लिए छुट पुट शक्ति मिलती रहे। मनुष्य जिस शारीरिक श्रम से अनभ्यस्त हो रहा है, उसे फिर से अपनाने लगेगा। साथ ही लघु उद्योगों के लिए छोटे संयंत्रों द्वारा उत्पन्न की गई बिजली भी मिलती रहेगी। देहाती जीवन स्वास्थ्यकर भी होता है, सुविधाजनक भी और सस्ता भी।

लोग शान्तिपूर्वक सुविधा के साथ हिल मिल कर रहेंगे। सहकारिता के आधार पर सुविधाओं का कोई गुना संवर्धन होने लगेगा। मिल जुल कर काम करने की पद्धति से सभी मजूर कृषक होंगे और सभी कृषक मजूर इस प्रकार कृषि समस्या सुलझावेंगे और जीवनयापन में काम आने वाले धंधे लुहार, बढ़ई, दर्जी, मोची, कुम्हार, धोबी आदि भी अपना गुजारा इसी स्तर का करने लगेंगे जैसा कि अन्य लोग करते हैं। सादगी और मितव्ययिता से सुनियोजित ग्राम्य जीवन की पद्धति नये सिरे से विकसित होगी और उसका प्रतिफल ऐसा होगा जिसे जिसे आज की समस्या का कारगर समाधान कहा जा सके। लोग अन्न के स्थान पर शाक अधिक उगायेंगे जो सस्ता भी पड़ेगा और पौष्टिक भी उत्पादकों को अन्न की तुलना में अधिक लाभ मिलेगा। खाद्य समस्या का यह ही ऐसा समाधान है जिसमें कम भूमि में अधिक लोगों के लिए अधिक मात्रा में अधिक उपयोगी संसाधन उपलब्ध हो सकें।


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