शरीर रूपी बहुमूल्य रत्न (Kahani)

February 1987

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एक मनुष्य किसी महात्मा के पास पहुँचा और कहा- मैं बहुत गरीब हूँ। भगवान की मुझ पर अकृपा है, उसने औरों को बहुत धन दिया है पर मेरे पास कुछ भी नहीं है। आप ऐसी कृपा कर दीजिए जिससे मुझे भी धन मिल जाय।

महात्मा ने कहा-जो कुछ तेरे पास है उसे बेच दे तुझे बहुत धन मिल जायगा। उसने कहा मेरे पास कुछ भी नहीं, ईश्वर ने ऐसा भी मुझे कुछ नहीं दिया जिसे बेच कर मैं अपना काम चला लेता।

महात्मा ने कहा-अपनी एक आँख बेच दे मैं तुझे दस हजार दूँगा। इस पर वह तैयार न हुआ। फिर क्रमशः हाथ, टाँग, नाक, जीभ आदि बेचने के लिए कहा और प्रत्येक चीज के लिए दस-दस हजार रुपया कीमत बताई वह व्यक्ति इनमें से किसी भी चीज को बेचने की तैयार न हुआ। तब महात्मा ने कहा-दस-दस हजार मूल्य की दस चीजें तो मैंने ही तुझसे माँगी। एक लाख रुपये कीमत की तो यही सम्पत्ति तेरे पास मौजूद है फिर अपने को गरीब क्यों बताया है? जो ईश्वर ने जो प्रचुर सम्पत्ति का भण्डार शरीर तुझे दिया है इसे काम में ला। परिश्रम कर और जो पूँजी ईश्वर ने दी है उसके द्वारा उपार्जन करके अपना काम चला और प्रसन्न रह।

कुछ आपत्ति ग्रस्तों को छोड़ कर इस संसार में निर्धन कोई नहीं। शरीर से उचित पुरुषार्थ करके हर कोई अपनी आवश्यकताएँ पूरी करने लायक कमा सकता है। भगवान ने शरीर रूपी बहुमूल्य रत्न भण्डार हर किसी को दिया है। इसका ठीक तरह उपयोग करने वाला कभी दरिद्र नहीं रह सकता।


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