देश, वेश और कर्मकाण्ड से ही नहीं धर्म की पहचान गुणों से होती है। महासागर के समान विशाल, स्पष्ट और गंभीर जीवन प्रणाली को धर्म कहते हैं।
समुद्र क्रमशः नीचा और गहरा होता गया है, धार्मिक क्रमशः विनयशील और आप्त-सत्यता की गहराई में उतरता चला जाता है। समुद्र का स्वभाव है स्थिरता और अपनी मर्यादा में बने रहना, धर्म भी मनुष्य को स्थिर और मानवीय मर्यादाओं का निष्ठापूर्वक परिपालन सिखाता है।
समुद्र में मृतक शरीर नहीं रहने पाता, उसी तरह जीवन के सत्य के प्रति जिनकी आस्था नहीं रही जो जड़ हो गये हैं, धर्म उनको अपने में नहीं मिलाता पर अनेक नदी-नद समुद्र में आकर गिरते हैं, उसने किसी को मना नहीं किया। धर्म भी वर्ण-भेद, जाति-भेद और देश-काल का भेद किये बिना प्रत्येक आत्म-परायण को अपना लेता है। समुद्र अपना रस नहीं बदलता उसी प्रकार धर्म भी अपने सिद्धान्तों पर दृढ़तापूर्वक आरुढ़ रहने की शिक्षा देता है। समुद्र में अनेक तरह के रत्न, मूँगे, मोती भरे पड़े हैं तो सेवार, खर, पतवार भी। उसी प्रकार धर्म गुणों का आगार होकर भी जो तुच्छ और अवरोधक हैं, उन्हें भी प्यार करता है।
महासमुद्र को देखकर जो अपने जीवन को वैसा ही विस्तृत और महान् बनाये वही सच्चा धर्मनिष्ठ है।
—महात्मा गौतम बुद्ध, (मिलिन्द प्रश्नबोधिनी)
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कथा-