संसार की हर वस्तु के दो उपयोग माने गये हैं। एक सदुपयोग दूसरा दुरुपयोग। मानव-जीवन के भी यही दो उपयोग होते हैं।
किसी वस्तु का सदुपयोग तब ही हुआ माना जायेगा, जब उसके यापन से अधिक अच्छी स्थिति, अधिक शाँति और अधिक सुख-संतोष प्राप्त हो। इसके विपरीत यदि उसके यापन से कोई लाभ न हो, उल्टे दुःख-तकलीफों, अशाँति एवं असंतोष में वृद्धि हो तो समझ लेना चाहिये, उसका दुरुपयोग ही हुआ।
जीवन का एक भी क्षण बचाकर नहीं रखा जा सकता। उसका प्रत्येक क्षण यापन होता रहता है। कोई काम किया जाय या केवल पड़े, बैठे रहा जाये जीवन बीतता ही चला जायगा। समापन की ओर बहता हुआ उसका अविराम प्रवाह एक क्षण को भी स्थगित नहीं किया जा सकता। कुछ आवश्यकताओं की प्रेरणा, कुछ सुख की लिप्सा का दबाव और कुछ उसकी निरन्तर गति का खेद मनुष्यों को कुछ करते रहने अथवा कर डालने के लिये विवश कर देता है। यदि जीवन का यापन हो जाना अटल सत्य न हो तो बहुत से आलसी तो ऐसे भी मिलेंगे, जो आवश्यकताओं की आपूर्ति की पीड़ा सहकर भी निष्क्रिय एवं निश्चेष्ट पड़े रहें।
जब हर प्रकार से जीवन का यापन होना ही है तो बुद्धिमानी इसी में है कि इसका अधिक से अधिक सदुपयोग करके कुछ ऐसा लाभ उठा लिया जाये, जो श्रेयस्कर भी हो और स्थायी भी। समझने के लिये तो हर आदमी यही समझता है कि वह दिन-रात दौड़-धूप कर अधिक सुख तथा अधिक शाँति पाने के लिए जीवन का सदुपयोग कर रहा है। किन्तु, सत्य यह है कि ऐसे बिरले ही बुद्धिमान मिलेंगे, जो यह समझते हों कि जीवन को किस प्रकार और किस दिशा में यापन करने से उसका सदुपयोग होगा और किस प्रकार तथा किस दिशा में यापन करने से दुरुपयोग। बाकी लोग तो अन्धाधुन्ध “जिधर सींग समाये” धंसते चले जाने में में ही उसका उपयोग सदुपयोग समझते हैं।
अधिकाँश लोग धन बटोरने में ही जीवन का सदुपयोग मानते हैं। उनका कुछ ऐसा विचार रहता है कि यदि ढेर सा धन मिल जाये जो वे उसके बल पर सारे सुख, सारे सन्तोष और सारे श्रेय खरीद सकते हैं। उनके सुख एवं श्रेय की परिभाषा, ऊँचे-ऊँचे मकान, लम्बे-चौड़े व्यापार, भारी भरकम तिजोरी और दान-दक्षिणा के आधार पर सामाजिक मान-सम्मान तक ही सीमित होती है। सुख आराम के अधिक से अधिक और आधुनिकतम साधन जुटा लेने को ही प्रायः वे सुख संचय कर लेना समझते रहते हैं। इसके आगे बढ़े तो भोग-विलास, इन्द्रिय तृप्ति, फैशन प्रदर्शन और अधिकाधिक व्यय करने तक पहुँच जाते हैं। बस इसके आगे न तो उनका कोई सुख होता है और न श्रेय।
किन्तु उनके इस सत्य की असत्यता समझने के लिये उनके जीवन पर दृष्टिपात करना होगा। अधिक धन उनका ध्येय होता है। किन्तु हिस्से से अधिक धन की प्राप्ति सच्चाई से परिश्रम करने और ईमानदारी से व्यापार करने से नहीं मिल सकता। उसके लिये अन्य लोगों का शोषण करना होगा। रोजगार में लम्बे-लम्बे मुनाफों की जुगाड़ करनी होगी। सरकारी टैक्स की चोरी तथा समाज के भाग से मुख मोड़ना होगा। मुनाफा-खोरी, भ्रष्टाचार, कालाबाज़ारी तथा अभाव, अकाल का अनुचित लाभ उठाना, कुछ ऐसे मार्ग हैं, जिनके द्वारा ही अधिकाधिक धन प्राप्त हो सकता है। अथवा इससे भी दुष्ट एक मार्ग और है-वह है किसी का माल मार लेना, किसी को ठग कर धोखा देख सब कुछ छीन लेना, चोरी, मक्कारी, लूट-खसोट, सट्टा, जुआ आदि।
विचारणीय बात है कि क्या इन मार्गों से आया हुआ धन जीवन में एक क्षण भी सुख-शाँति को ठहरने दे सकता है। यदि उससे जुटाये गये उपकरण कुछ आराम देते हैं तो उससे हजारों गुना यह चिन्तायें प्राण खाये रहती हैं कि कहीं चोरी न खुल जाये, यह रेत की भींति पर खड़ा आर्थिक महल गिर न जाये, कहीं ऐसा न हो कि काठ की यह आज चढ़ी हाँडी कल काम न दे सके। चालाकी तथा चार-सौ-बीस पर चल रहा यह धन्धा कहीं चौपट न हो जाये। ऐसा न हो कि लोग हमें बेईमान, मक्कार तथा मिथ्याचारी न समझ लें, जिससे सारी प्रतिष्ठा धूल में मिल जाये। कहीं गुप्त धन का पता सरकार को न लग जाये। कहीं चोर, डाकू हमारे धन को लक्ष्य न बना लें आदि।
यह सब चिन्ताएँ इतनी भयानक तथा स्थायी होती हैं कि धन की तृष्णा रखने वाले के लिये व्यंजन को विष और सुख-सेज को कंटकाकीर्ण बना देती हैं। इस बाहर से दिखलाई देने वाली तड़क-भड़क तथा बड़प्पन एवं धनाढ्यता के पीछे चिन्ताओं का कितना धुआँ, शंकाओं, के कितने विषधर भरे रहते हैं, यह तो वही लोग बतला सकते हैं, दुर्भाग्य से अधिकाधिक धन जिनका ध्येय बन गया है और उसकी प्राप्ति के मार्ग अनुचित हैं।
इस प्रकार सुख-संतोष के लिए धन कमाने में जीवन का सदुपयोग बतलाने वाले लोगों की बात कहाँ सच्ची हुई। इतनी चिन्ताएं, इतनी जलन और इतनी कुण्ठाएँ स्पष्ट सिद्ध करती हैं कि वह लोग जीवन का सदुपयोग नहीं दुरुपयोग कर रहे हैं।
धन लिप्सालुओं की छोड़िये, उन जनसाधारण को ले लीजिए, जिनका ध्येय अधिकाधिक धन तो नहीं, किन्तु सुख-संतोष का साधन इन्द्रियों की वासना तृप्ति मानते हैं। वे अधिक से अधिक और अच्छे से अच्छा भोजन पाने और वस्त्र पहनने तथा इन्द्रियों की तृप्ति की जुगाड़ में ही सारा जीवन लगाते रहते हैं। जो कुछ मिल गया, उसी दिन चाट-पोंछ कर साफ कर दिया, दूसरे दिन जो कुछ छीने-झपटे, मिला ले आये और चाट पोंछ की समाप्त कर दिया। जो कुछ कमा पाओ, कमाओ और खा-पीकर बराबर कर देना ही उनके जीवन का लक्ष्य होता है। माना कि अर्थ तृषा से उत्पन्न समस्याओं जैसी समस्याएँ ऐसे लोगों की नहीं होती, तब भी यह लोग कष्टों, क्लेशों तथा कुण्ठाओं से मुक्त नहीं रहते। इसकी समस्यायें तथा चिन्तायें इनके अनुरूप होती हैं।
आज का आज ही खा-पीकर बराबर कर दिया और जब कल हारी-बीमारी की कोई आवश्यकता सामने आ जाती है, तब दूसरों के सामने हाथ फैलाते और दाँत दिखलाते फिरते हैं। कर्ज लाते और ब्याज भरते-भरते मर जाते हैं। बच्चों की फीस समय पर जमा नहीं होती उनकी शिक्षा बन्द हो जाती है। बेटी जवान हो जाती है किन्तु पास में कानी कौड़ी नहीं होती। बुढ़ापा दौड़ता हुआ चला आता है, किन्तु उसका कोई प्रबन्ध नहीं। क्या यह विषमताएँ ऐसी नहीं हैं, जो किसी भी व्यक्ति का जीवन गीली लकड़ी की तरह सुलगा-सुलगा कर जलाया करें।
इसके अतिरिक्त, जो व्यक्ति इन्द्रिय लोलुप होते हैं, स्वाभाविक है कि असंयमी भी होते हैं। असंयम तथा स्वास्थ्य में घना विरोध है और उसकी, रोगों के साथ घनी मित्रता होती है। महीने का असंयम तथा इन्द्रिय तृप्ति वर्ष दो वर्ष के लिये स्वास्थ्य की छुट्टी कर देती है, तब जिनके जीवन का ध्येय ही मौज मारना होता है, उनके जीवन की क्या दशा होती है, इसे तो किसी भी असंयमी को देखकर जाना जा सकता है। कुछ ही समय में शरीर खोखला हो गया होता है, मंदाग्नि अथवा अरुचि के रोग लग गये होते हैं, चेहरे सूखकर असुन्दर हो गये होते हैं, स्वभाव क्रोधी, चिढ़-चिढ़ा तथा झक्की बन गया होता है, पत्नी, परिवार तथा बच्चों से लड़ाई ठनी रहती है। ऐसी दशा को देखकर यह कैसे माना जा सकता है कि उन लोगों ने जीवन का सदुपयोग किया अथवा कर रहे हैं।
वास्तविक बात तो यह है कि इस प्रकार का कोई भी जीवन यापन उसका सदुपयोग नहीं है। जीवन के उतने अंश को ही सदुपयुक्त कहा जायेगा, जो भौतिक तृष्णाओं तथा इन्द्रिय तृप्ति के प्रयत्नों से बचाकर परमार्थ तथा अध्यात्म की दिशा में लगाया जायेगा। इस इन्द्रजाल जैसी भूल भुलैया से भरे संसार में एकमात्र आध्यात्मिक दिशा ही वही दिशा है, जिसमें सच्चे तथा स्थायी सुख-संतोष के कोष बिखरे मिलते हैं। जितना भी समय इस ओर लगाया जाता है, उतने का तो सदुपयोग हो जाता है बाकी तो संसार के जाल-जंजाल में उलझकर यों ही नष्ट ही नहीं हो जाता वरन् न जाने कितना शोक-सन्ताप तथा पश्चाताप दे जाता है। जीव के जड़-जंजालों में पड़े हुए भी जो लोग कुछ समय इस ओर भी दे देते हैं, वे अन्य लोगों की तुलना में अधिक सुखी, संतुष्ट और शाँतिपूर्ण दिखाई देते हैं। अध्यात्मवाद ही तो वह शीतल छाया है, जो संसार चक्र से थके-माँदे मनुष्य को सच्ची विश्राँति दे पाती है। बाकी सारे सुखों, सारे उपकरणों की छलना सिवाय शोक-संतापों के और कुछ भी नहीं देती।
साधन सम्पन्न व्यक्तियों से भी पूछा जा सकता है कि आपने जो यह योजनों लम्बा कारबार फैला रखा है, इसकी क्या आवश्यकता थी। उतना कारोबार काफी था, जिससे सुविधापूर्वक जीवन यापन किया जा सकता है। धन की सामाजिक प्रतिष्ठा का मानदण्ड मानकर आपने स्वयं ही तो यह जाल अपने चारों ओर फैलाया है। यदि आपने संयम, संतोष और सादगी को जीवन की शोभा माना होता तो न जाने कितना समय आध्यात्मिक प्रगति के लिये मिल जाता।
दरअसल बात यह है कि अधिकाँश लोग इन्द्रिय लोलुपता तथा वितृष्णा अथवा लोकेषणा को जीवन का लक्ष्य बनाकर अपना घात आप किया करते हैं। जबकि न तो यह कोई नैसर्गिक उत्तरदायित्व है और न सामाजिक बन्धन! और फिर सारी व्यस्तताओं के होते हुए भी जब आकस्मिकताओं, घटनाओं तथा आपत्तियों से निपटने के लिये अवकाश की कमी नहीं रहती, तब आध्यात्मिक प्रगति के लिये समयाभाव की शिकायत किस प्रकार उपयुक्त मानी जा सकती है। लोग सबसे उपयोगी आनन्ददायक अध्यात्मवाद को उतना आवश्यक नहीं समझते जितना कि इन्द्रिय लोलुपता तथा विविध एषणाओं को। यदि वे अध्यात्मवाद को उपयोगी आवश्यक तथा हितकारी समझकर प्राथमिकता देने लगें तो न तो अवकाश की शिकायत रहे और जनजीवन में दुख-दर्द की बहुतायत। जो व्यक्ति इसकी महत्ता तथा सदुपयोगिता का ठीक-ठीक अर्थ समझते हैं, वे आनन्द करते हैं।