जीवन−दर्शन (Kavita)

March 1970

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(1)

जन्म जीवन की प्रथम झाँकी मनोहर,

मानता मानव उसे ही परम सुखकर।

मृत्यु, अन्तिम लक्ष्य जो जग-जन्म का है,

मूढ़ मन कहता है अरे! वह है भयंकर

(2)

प्राण-हंस सदैव उड़ जाता अकेला,

छोड़कर घर द्वार सब जग का झमेला।

नित्य आवागमन है इतना यहाँ पर,

रात दिन रहता भरा यह विश्व मेला॥

(3)

पुष्प कंटक पादपों के पुत्र प्रिय दो,

साथ बढ़ते प्राप्त करके एक रस को।

पुष्प ममता दृष्टि-जग की नित्य पाता,

नेह भर किसने निहारा कण्टकों को?

(4)

ग्रीष्म की तीखी किरण से धरा जलती,

वही पावस प्राप्त कर, फल-फूल फलती।

शिशिर शरद, बसंत कितने यहाँ आते,

किन्तु कब प्रतिकूल किसकी चाल चलती!

(5)

कर्म बंधन में बंधा जग जीव आता,

कार्य करके लोक से परलोक जाता।

देह नश्वर, आत्मा नित अमर ही है,

त्याग जन जाता यहाँ का यहीं नाता॥

(6)

युग-युगों से क्रम यही चलता निरन्तर,

प्रकृति-पथ में कुछ न पड़ता कभी अंतर।

जन्म पर, नक्षत्र, नभ हँसते कभी क्या,

और रोई है धरा कब मृत्यु-दुख पर॥

(7)

पुष्य कलियों ने अधिक सौरभ बखेरा,

मत्त-मधुपों ने तभी घेरा घनेरा।

धूल में जब फूल मिलता एक दिन वह,

समझ पड़ता है नियति का नित्य फेरा॥

(8)

लोक-सेवा साधना रत जो मनस्वी,

कर्म करता सतत जग में जो तपस्वी।

अमर पद शंकर उसे मिलता यहाँ पर,

सफल जग जीवन बनाता वह यशस्वी॥

-श्री गौरीशंकर द्विवेदी ‘शंकर’

*समाप्त*


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