चित्त-वृति निरोध का विज्ञान व मनोविज्ञान

March 1970

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‘बर्र’ यों एक छोटा सा जीव लगता है, बड़ी सारंग मधुमक्खी (डारसेटा) का भी शरीर पौन इंच से बड़ा नहीं होता पर कभी छोड़ दिया जाये तो इनकी भयंकरता देखते ही बनती है, इसी प्रकार मनुष्य की चित्त वृत्तियां जिनका सामान्य अवस्था में न तो कोई स्वत्व दिखाई देता है, मूल्य न महत्व पर जब इन्हीं को कुचला और नियंत्रण में रखने का अभ्यास किया जाता है, तब इनकी भयंकरता देखते ही बनती है। राक्षसी सुरक्षा की तरह अनेक रूप बनाने में पटु यह चित्त वृत्तियां मनुष्य को लुभाती ही नहीं, डराती और धमकाती भी हैं, निर्बल मन और अस्थिर बुद्धि व्यक्ति उनकी एक ही झपाक में ठण्डे होकर योगाभ्यास छोड़ बैठते हैं और इस तरह स्वात्मानुभूति की इच्छा मन की मन में ही रह जाती है।

अर्जुन जैसे महारथी को भी यही कहना पड़ा था-

चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढ़म।

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥

-गीता 6।34

हे भगवन्! यह मन बड़ा चंचल है। मस्तिष्क को मथ डालता है यह बहुत दृढ़ शक्तिशाली है इसीलिए इसका वश में करना बहुत कठिन है।

किन्तु योगाचार्यों का मत है कि कठिनाइयाँ कुछ ही दिन की होती हैं यदि अभ्यास बंद न किया जाय तो यही मन एक दिन सर्वोत्तम समीपस्थ मित्र की भाँति अनुकूल आचरण करने वाला हो जाता है। भगवान कृष्ण ने अर्जुन की बात स्वीकार करते हुए कहा था-निःसंदेह अर्जुन! मन बड़ा चंचल है पर निरन्तर अभ्यास से वह भी वश में आ जाता है। योग एक लम्बी अवधि का अभ्यास है जो देर तक उसमें स्थिर रह सकता है वही अन्तिम सिद्धि तक पहुँच सकता है, यह पहले ही मन में बिठा लेने की बात है।

चित्त वृत्तियों के निरोध के दो उपाय हैं (1) मनोवैज्ञानिक (2) वैज्ञानिक। प्रथम प्रकार के सभी उपाय मानसिक हैं उनमें अपने मन को ही इस बात के लिए राजी किया जाता है कि वह अपने आप संसार की क्षण भंगुरता अनुभव करे और इस बात की जिज्ञासा जागृत करे कि हम वस्तुतः हैं क्या, मनुष्य शरीर में हम किस तरह फंसे पड़े हैं, किस तरह उससे मुक्ति और पूर्ण आनन्द, जिसके लिए हमारी चाह अनवरत है, किस तरह प्राप्ति हो सकती है।

योग दर्शन पाद 1 सूत्र 12 में बताया है “अभ्यास वैराग्यभ्यान्तन्निरोधः” अर्थात् निरन्तर वैराग्य का अभ्यास करने से मन की पार्थिव वृत्ति बदल जाती है इसी बात को भगवान कृष्ण ने अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।” निरन्तर वैराग्य का अभ्यास करने से मन की वृत्तियाँ धीरे-धीरे वश में आने लगती हैं।

दूसरा उपाय है “ईश्वर प्रणि धानाद्वा-” (योग 1।23) अर्थात् अपने आपको परमात्मा में मिलाने का अभ्यास करने से मद की प्रवृत्तियाँ ऊर्ध्वगामी होने लगती हैं।

नीचे दी गई साधना विधि का प्रतिदिन थोड़ी देर तक अभ्यास करने से अपना वैराग्य और ईश्वर प्राप्ति का भाव दृढ़ होता है,यह अभ्यास कोई भी अपनी सुविधानुसार कर सकता है जानकारी के लिए दो अभ्यास नीचे दे रहे हैं।

(1) किसी समतल और एकान्त स्थान में कोई वस्त्र बिछाकर सीधे चित्त लेट जाइये, दोनों पाँव सीधे और मिला कर रखना चाहिए। दोनों हाथ छाती के ऊपर रखिये, अब शरीर को पूर्ण निश्चेष्ट करके बिलकुल शिथिल छोड़ दीजिए। ऐसा जान पड़े जैसे प्राण शरीर से निकलकर प्रकाश के एक गोले की तरह हवा में स्थिर हो गया है और शरीर मृत अवस्था में बेकार पड़ा है, अब एक-एक अंग की ओर ध्यान दीजिए-कल तक यही आँखें अच्छी-अच्छी वस्तुयें देखने का हठ करती थीं, अब आज क्यों नहीं देखतीं और यह मुख जो बढ़िया-बढ़िया खाने को माँगता था कैसा बेकार पड़ा है।

नाक आँख, मुख, कण्ठ, हाथ-पैर उन सब घृणित अंगों को बार-बार देखिए जिनमें कफ, थूक, मल मूत्र के अतिरिक्त कुछ नहीं रह गया है। यथार्थ वस्तु जो कि आत्म चेतना थी वह तो अभी भी मेरे ही साथ है, क्या मैंने इस शरीर के लिए ही अपने इस प्रकाश शरीर को, आत्मा को भुला दिया था? क्या अब तक इसी शरीर के लिए जो पाप कर रहा था, वह उचित था? आदि ऐसे-ऐसे प्रश्न उठाना चाहिए, जिससे साँसारिक भाव नष्ट हों और मन यह मानने को विवश हो कि हम अब तक भूल में थे- “मनुष्य का यथार्थ जीवन शरीर नहीं आत्मा है”

दूसरा अभ्यास-किसी शान्त, एकान्त स्थान में कुश आदि कोई पवित्र स्थान आसन बिछाकर बैठिये। आसन समतल स्थान पर होना चाहिए। ऊंचा-नीचा होने पर शरीर को कष्ट होगा और ध्यान नहीं जमेगा, शरीर, सिर एवं ग्रीवा को सीधा रखकर अध-खुले नेत्रों से नासिका के अगले भाग को देखें। दृष्टि और मन को दूसरी ओर नहीं जाने देना चाहिए। यदि जाता है तो उसे बार-बार अपने मूल अभ्यास की याद दिलाकर एकाग्र करना चाहिए।

जब मन शान्त हो तब ऐसा ध्यान करें कि मैं प्रकाश के एक कण तारा या जुगनूँ की तरह हूँ और नीले आकाश में घूम रहा हूँ। सूर्य की तरह का उससे भी हजारों गुना बड़ा और तेज चमक वाला एक प्रकाश पिण्ड आकाश में दिखाई दे रहा है, उसी की किरणें फूटकर निखिल ब्रह्माँड में व्याप्त हो रही है। हजारों सूर्य उसके पास-आस चक्कर काट रहे हैं। मैं जो अभी तक एक लघु प्रकाश कण के रूप में अशक्त अज्ञान-ग्रस्त और सीमा बद्ध पड़ा था, अब धीरे-धीरे उस परम प्रकाश पुँज में हवन हो रहा हूँ, अब मैं रह ही नहीं गया या तो करोड़ों कोस के विस्तार वाला गहरा नीला आकाश है या फिर वही दिव्य प्रकाश जिसमें घुलकर मैं अपने आपको सर्वव्यापी, सर्वदर्शी, सर्वज्ञ और सर्वसमर्थ अनुभव कर रहा हूँ।

यह दो अभ्यास वैराग्य और ईश्वर प्राप्ति की कामना को बढ़ाने में बहुत सहायक हो सकते हैं अपनी सुविधानुसार कोई भी स्त्री-पुरुष इन साधनाओं का अभ्यास कर सकता है।

उपरोक्त दो अभ्यास महत्वपूर्ण हैं, उनसे मनोनिग्रह में सहायता मिल सकती है पर मन उतने से ही वश में आ जाय यह कोई आवश्यक नहीं। हम आज जिस स्थिति में हैं, वह कई जन्मों का विकसित रूप है, मनुष्य के पूर्वजन्मों के पाप और वासनाओं के संस्कार जो मन में कई पर्तों में जमे होते हैं वह बार-बार उन्हीं वासनाओं की ओर घसीटते हैं इसलिए साधक की वृत्तियां कभी भी उद्दीप्त हो उठती हैं। उसके लिए वैज्ञानिक विधियाँ काम में लाई जाती हैं। शरीर और मन की अंतरंग सफाई यौगिक क्रियाओं से की जाती है तब निर्मलता आती है, इसलिए आत्म साक्षात्कार की इच्छा रखने वाले किसी भी साधक के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह अष्टाँग योग का अभ्यास करता हुआ, आत्मा का विकास परमात्मा की ओर करे। यह आठ अंग-

यम नियमासन प्राणायाम प्रत्याहार-

धारणा ध्यान समाधयोष्टावंगानि।

-योग 2।26

अर्थात् (1) यम (2) नियम (3) आसन (4) प्राणायाम (5) प्रत्याहार (6) धारणा (7) ध्यान और (8) समाधि। इनका अभ्यास करने से कठिन मलिनतायें भी नष्ट हो जाती हैं और निर्मल ज्ञान प्रकाश एवं विवेक बुद्धि की वृद्धि होती है योगियों के पास दिखाई देने वाली कई सिद्धियाँ और चमत्कार जैसी दीखने वाली अनुभूतियाँ भी इन्हीं आठ अंगों में उत्तरोत्तर अभ्यास और विकास द्वारा उपलब्ध होती हैं पर इनका कुल लाभ आत्मा या ईश्वर की प्राप्ति ही है, इसलिये किसी को भी चमत्कार और सिद्धियों की ओर मन न लगाकर केवल आत्म कल्याण का ही विचार करना चाहिए।

इन आठ अंगों की संक्षिप्त जानकारी योग साधक के लिए आवश्यक है। (1) यम कहते हैं असत्य को मारना। हमारे जीवन में झूठ फरेब अन्याय आदि का समावेश सत्य के प्रति अनास्था का फल है। असत्यशील व्यक्ति ही परमार्थ से गिरते हैं इसलिए ऐसे क्षणों में अपने आपको दबाकर बचाकर रखना यम कहलाता है। उसके लिए प्रारम्भिक अभ्यास किसी एक व्रत से करना चाहिए, उदाहरण के लिए अधिक न बोलना, झूठ न बोलना, किये हुए उपकार को न भूलना, किसी से ईर्ष्या न करना आदि ऐसा कोई एक संकल्प लें, जब उसका अच्छी प्रकार अभ्यास हो जाय, तब दूसरा इस तरह किये हुए सभी असत्य आचरण छोड़ने से यम सिद्धि होती है। नियम उसका पूरक अंग है अर्थात् बुराई के परित्याग के साथ अच्छाई या किसी सत्य का अनुशीलन नियम कहलाता है। उससे बुरे संस्कारों के स्थान पर श्रेष्ठ सद्गुणों की प्रतिष्ठा होती है।

(3) आसन- देर तक निश्चल होकर बैठने को आसन कहते हैं पर ऐसा तभी हो सकता है जब शरीर का प्रत्येक अंग स्वस्थ हो। स्वास्थ्य के लिए जितने भी उपाय डाक्टरों, वैद्यों और वैज्ञानिकों ने खोजे हैं, वह सब बाह्य हैं और अपूर्ण जानकारी वाले हैं। योगाचार्यों ने देखा कि शरीर में ही भगवान ने वह सब शक्तियाँ और सामग्रियाँ पहले से ही रखी हैं, जिनका यथोचित उपयोग करके कोई भी व्यक्ति पूर्णतया स्वस्थ व नीरोग रह सकता है। आसन उन उन स्थानों को जो शरीर के मर्म और विशेष महत्व के हैं, खोलने और लाभ लेने की वैज्ञानिक विद्या है। 84 प्रकार के आसन शरीर को सुगठित और शक्तिशाली ही नहीं शुद्ध और रोग मुक्त भी करते हैं। अगले अंकों में एक-एक आसनों को वर्णन देते रहेंगे, जिनके अभ्यास से रोगी व्यक्ति भी औषधोपचार की भाँति स्वास्थ्य लाभ कर सकते हैं।

(4) प्राणायाम का सम्बन्ध केवल श्वास खींचने रोकने और श्वास छोड़ने भर से नहीं है वरन् शरीर की सम्पूर्ण चेष्टाओं का नियन्त्रण भी प्राणायाम से ही होता है, छींक, जम्हाई, अंगड़ाई, आँखों का मिचकना, थूक का बार-बार निगलना, लघुशंका ऐसी क्रियायें शरीर में स्वतः उत्पन्न होती हैं यह न तो मनुष्य की इच्छा से ही होती हैं और ना ही सामान्य मनुष्य इन पर नियंत्रण रख सकता है। यह शरीर के विभिन्न प्राण अपान, समान, उदान व्यान स्थान आदि वायुओं के गुण धर्म हैं उनकी जानकारी होने और नियंत्रण करने का सारा विज्ञान प्राणायाम कहलाता है। जीवित अवस्था में ही सूक्ष्म शरीर से बाहर निकल आना दूर गमन, दूरानुभूति, परकाया प्रवेश आदि सब प्राणायाम के ही चमत्कार हैं पर यह सब पीछे की बातें हैं प्रारम्भ में इसका उपयोग मनोनिग्रह के लिए है, उससे मन की निर्मलता बढ़ती है, जिससे मन अपने आप शाँत और प्रफुल्ल बनने लगता है।


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