भाव की भूख

March 1970

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यहूदी अनपढ़ था, और ग्रामीण भी। किसी ने उसे बता दिया कि जिस दिन प्रायश्चित पर्व हो उस दिन खूब अच्छा-अच्छा खाना चाहिये और मिले तो शराब भी पीना चाहिये। सो जब अगला- ‘प्रायश्चित पर्व’ आया तो एक दिन पूर्व ही उसने खूब डटकर खाया, शराब पी और नशे में धुत्त हो गया।

प्रातःकाल नींद टूटी तो भोले-भोले ग्रामीण यहूदी ने देखा उसका साथी तो प्रायश्चित पर्व की लगभग आधी प्रार्थना पूरी कर चुका है। उसे तो एक भी मन्त्र याद न था, सो उसे अपने आप पर भारी ग्लानि हुई। कल शराब न पीकर मन्त्र याद कर लेता तो कितना अच्छा होता, यह सोचकर वह बड़ा दुःखी हुआ।

सबको प्रार्थना करते देखकर वह वहीं बैठ गया और वर्णमाला के अक्षरों का ही पाठ करता हुआ भावना करने लगा- “हे प्रभु! मुझे तो कोई मन्त्र याद नहीं, इन अक्षरों को जोड़ कर तुम्हीं मन्त्र बना लेना। मैं तो तुम्हारा दास हूँ पूजा के लिये नये भाव कहाँ से लाऊँ?” जब तक दूसरे लोग प्रार्थना करते रहे वह ऐसे ही भगवान् का ध्यान करता रहा।

सायंकाल जब वे दोनों सामूहिक प्रार्थना में सम्मिलित हुये तो धर्मगुरु रबी ने उस ग्रामीण को भक्तों की अग्र-पंक्ति में रखा। यह देखकर उसके साथी ने आपत्ति की  “श्रीमान् जी! इसे तो मन्त्र भी अच्छी तरह याद नहीं।”

“तो क्या हुआ”- रबी ने आर्द्र कण्ठ से कहा- इनके पास शब्द नहीं, भाव तो हैं। भगवान् तो भाव का ही भूखा है, मन्त्र तो हमारे-तुम्हारे लिये हैं।


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