फसल काटकर खलिहानों में भर दी गई थी। चमकते दानों के रूप में किसान का श्रम सार्थक हो उठा था। तभी बैलगाड़ियाँ आईं और गेहूँ से भर दी गईं। खलिहान में शेष रह गई केवल जौ तथा चने की ढेरियाँ।
आँखों में आँसू भरे गेहूँ की ढेरी किसान से बोली- “मुझे बेचकर अपने से दूर करके, जौ तथा चनों को अपने पास रखकर उन्हें महत्ता प्रदान की? मुझसे इतनी घृणा क्यों?”
किसान बोला- “तुम्हारी महत्ता से भला कौन इनकार कर सकता है? तुम सचमुच सर्वश्रेष्ठ हो। भला में तुमसे कैसे घृणा कर सकता हूँ?” गेहूँ की ढेरी सिसकर बोली फिर मुझे घर के लिए क्यों नहीं रखा?
अब किसान के नेत्र भी नम हो आये। भारी स्वर में उसने कहा पगली कहीं की भला ऐसी बात भी कहीं सोचते हैं। तुम मेरी पुत्री के समान हो। मेरी शक्ति तथा श्रम की प्रतिष्ठा। भला आज तक बेटी भी किसी के घर रही है? वह तो सदा दूसरों के घर की शोभा तथा अपने पितृ कुल की सम्मान वर्धिका होती है। और ये जौ तथा चने? ये मेरे पुत्र हैं। मेरे जीवन की भूख के सहारे। मार्ग के शक्ति दण्ड। चल उठ पगली निसर्ग की इस देहरी को पारकर और संसार में मेरी महत्ता तथा प्रतिष्ठा के लिए जिनकी समाज में अधिक उपयोगिता है उनको पोषण देने के लिए प्रमाण कर।
किसान के शील तथा सौजन्य ने गेहूँ की ढेरी का हृदय छू लिया। और वह आश्वस्त होकर संतोष के साथ उधर चल पड़ी जिधर अधिक उपयोगी व्यक्तित्व उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे।