हमारी अदृश्य किन्तु अति समर्थ सूक्ष्म शक्तियाँ

March 1970

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5 वर्ष पूर्व की बात है शिकागो अमेरिका के हिप्नोटिस्ट डॉ. स्टैनली मिशल ने दावा किया कि टेड सेरियस नाम का उनकी पहचान का एक ऐसा व्यक्ति है, जो बिना बिम्ब के भी केवल मानसिक कल्पना द्वारा संसार के किसी भी दूरवर्ती स्थान का चित्र कैमरे में उतार सकता है। यह आवश्यक नहीं था कि यह चित्र वर्तमान समय के ही हों, वह भूतकाल के भी, जबकि कैमरा का आविष्कार भी नहीं हुआ था, चित्र खींच देने की क्षमता रखता है। उदाहरण के लिये वह चाहे तो सिकन्दर के युद्ध, ईसा-मसीह के क्रूस के समय वहाँ कौन-कौन उपस्थित थे, मिस्र के पिरामिड बनाते समय मजदूर कैसे काम करते थे, वह सब दृश्य, वह कैमरे में उतार कर दिखा सकता है।

इस तरह का समाचार सुनकर अमेरिका की विश्व विख्यात पत्रिका ‘लाइफ’ के सम्पादक पाल बेल्च और उनके साथियों को बड़ी उत्सुकता हुई। उन्होंने ‘लाइफ’ कार्यालय का ही कैमरा लिया। रोल भी अपने हाथ से भरी और डॉ. मिशल के दफ्तर में जा पहुँचे।

टेड सेरियस एक कुर्सी पर बैठ गया। फिर उस कैमरे को गोद में लेकर इस तरह फिट किया कि उसका चेहरा लेंस के सामने आ गया। अब वह भूतकाल की कोई घटना याद करता सा जान पड़ा। मस्तिष्क में ध्यानावस्थित-सा होकर उसने कैमरे का बटन दबाया। पहले दो-तीन चित्र तो अस्पष्ट से उतरे पर एक चित्र जो बिलकुल स्पष्ट उतरा, वह यूनान की किसी अति प्राचीन मूर्ति का चित्र था। हजारों मील दूर, बिना चले, वह भी अतिभूत की वस्तु का फोटो निकाल देना सचमुच एक बड़ा आश्चर्य था। उसे पढ़कर सहसा भारतीय तत्व-दर्शन की वह बात याद हो आती है, जिसमें आत्मा की व्याख्या करते हुये कहा गया है-

अपाणि पादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स श्रणोत्यकर्णः स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्प्रं पुरुषं महान्तम्॥

—श्वेताश्वेतरोपनिषद् 31।96,

अर्थात्- वह आत्मा बिना हाथ-पाँवों का होते हुये भी सबका ग्रहण करने वाला, सर्वत्र गमनशील, बिना आँखों, वह सब कुछ देखता कानों के बिना सब कुछ सुनता और सब ज्ञातव्य विषयों का ज्ञाता है पर उसका ज्ञाता कोई नहीं। ज्ञानी जन उसे आदि और महान् बतलाते हैं।

भारतीय दर्शन आदि काल से उसे ही जानने और प्राप्त करने की प्रेरणा देते रहे हैं, योगीजन विभिन्न कष्ट साध्य साधनाओं द्वारा इस अद्भुत शक्ति को ही प्राप्त करने में लगे रहे हैं तभी उस महान् शक्ति की प्राप्ति और उद्घाटन सम्भव हुआ। “या निशा सर्वभूतायाँ तस्यामि जागर्तिसंयमी” योगी की व्याख्या एक ही वाक्य में कर दी गई, उसका अर्थ ही होता है जब सबके लिये अन्धकार होता है, तब भी योगी और आत्म-संयमी के लिये सर्वत्र प्रकाश ही रहता है। इस तरह का विलक्षण ज्ञान तो आत्मा की सिद्धि-सामर्थ्यों के एक कण के समान है।

अभी तक भारतीय दर्शन की इन मान्यताओं को कपोल-कल्पित और भावावेश माना जाता था पर अब जब विज्ञान ने स्वयं उन्हीं तथ्यों को प्रमाणित करना प्रारम्भ कर दिया तो हठात् पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित लोगों का ध्यान भी उधर जाने लगा और लोग अनुभव करने लगे कि वस्तुतः शरीर में कोई अति शक्तिशाली सत्ता का निवास है। वह विलक्षण शक्तियों से भरपूर है। उसे चलने के लिये पाँव देखने को आँखें आवश्यक नहीं, बिन कानों के वह हजारों मील दूर की भी सुन सकता है और अब जो है तथा जो नहीं रहा, वह उसका भी ज्ञाता है।

यदि कोई ऐसी वस्तु है तो उसका भी एक निर्धारित विज्ञान होना चाहिये, जिससे उसे प्राप्त किया जाय? यह प्रश्न हर व्यक्ति के मन में उठना स्वाभाविक है। ऐसा ही प्रश्न शास्त्रकारों के समक्ष उपस्थित हुआ था। तब उन्होंने देखना प्रारम्भ किया, ऐसी कौन-सी इन्द्रिय और शक्ति है, जो स्थूल रूप से भी उसे अतीन्द्रिय सत्ता का बोध, ज्ञान और दर्शन करा सकती है। आँखें उसे देख नहीं सकतीं, कान उसे सुन नहीं सकते, नाक उसे सूँघ नहीं सकती तो फिर उसकी अनुभूति कैसे हो? यह विकट प्रश्न, तत्व-दर्शियों के सामने भी आया था।

योगी वशिष्ठ का ध्यान उधर गया और उन्होंने बताया, “हाँ मन एक ऐसी शक्ति है, जो जड़ और चेतन दोनों ही है, वह आत्मा के इन सब रहस्यों के द्वार खोल सकता है। मन एक ऐसी इन्द्रिय है, जिससे आत्मा के इन सभी गुणों का परिचय प्राप्त किया जा सकता है।

चिन्निःस्पन्दो हि मलिनःकलंक विकलान्तरम्। मन इत्युच्यते राम न जड़ं न च चिन्मयम्॥

-3।96।41,

चितो यच्चेत्यकलनं तन्मनस्त्वमुदाहृतम्। चिद्भागोऽन्नाजडो भागो जाड्यमत्र हि चेत्यता॥

-3।91।37

नाहं वेदावभासात्मा कुर्वाणोऽस्मीति निश्चयः। तस्मादेकान्तकलनस्तद्रू पं मनसो विदुः।

-3।96।4

मनो हि भावनामात्रं भावना स्पन्द धर्मिणी। क्रिया तद्भावितारुपं फल सर्वोऽनुधावति।।

-3।96।1

नहि दृश्यादृते किचिंन्मनसो रुपमस्तिहि॥

-3।4।48

हे राम! आत्मा का यह मलीन और पदार्थों को भोगेच्छा के कारण च्युत हुआ स्पन्दन, जो मन कहलाता है न तो पूर्णतया जड़ है और न ही पूर्ण चेतन। आत्मा की प्राप्ति के लिये वैराग्य और कल्पना आदि भाव जब उठते हैं तो वही आत्म-भाव से चेतन और विषयों, जड़ पदार्थों की आसक्ति के समय वही जड़ हैं। जब वह अपने स्वयं प्रकाशमय आत्म-स्वरूप को भूल कर यह मानने लगता है कि ‘यह सब मैं कर रहा हूं’ और उसका एक ही विषय में ध्यान रहता है, तब वह उसी के ज्ञान में पड़ा मन कहलाता है। मन भावना मात्र है, स्पन्दन उसका गुण है। वह कुछ न कुछ करने की इच्छा करता है। किसी न किसी फल के रूप में परिणत होने के लिये रहता है, अर्थात् पदार्थ की रचना वही करता है। दृश्य के अतिरिक्त मन का कोई स्वरूप है ही नहीं।

यही मन जब शुद्ध शाँत व निर्विकार भाव में परिणत हो जाता है तो आत्मा के दर्शन होने लगते हैं पर शास्त्रकार ने ऊपर की पंक्तियों में यह भी बताया है कि प्रकाश कण के रूप में वह उसी प्रकार स्पन्दन वाला, गतिशील है, जिस तरह जल वाला काला कीड़ा अपने पीछे जल में धारा बनाता हुआ बहता है। यह मन भी उसी प्रकार संसार के किसी भी भाग में जाकर उसे देखने, ज्ञान प्राप्त करने और यहाँ तक उसे उठा लाने में भी समर्थ है। योगियों ने ऐसा तब जाना जब ध्यान धारणा प्रत्याहार, प्राणायाम आदि साधनाओं का अभ्यास करते हुए उन्होंने मन को भ्रूमध्य में वशवर्ती बना लिया था।

प्रकाश के इस खेल का विज्ञान सम्मत एक प्रमाण तो ऊपर दिया गया है। उसमें यह भी बताया गया है कि टेड सेरियस अपन इस प्रयोग में सदैव सफल नहीं रहता और उसका कारण यही है कि उसका मन उतना सधा हुआ नहीं है।

चूँकि श्री मिशल महोदय सम्मोहन विद्या (हिप्नोटिज्म) के ज्ञाता थे, इसलिये श्री पाल बेल्च को आशंका हुई कि सम्भव है उनके सम्मोहित करने के फलस्वरूप यह फोटो आई हो, इसलिये उन्होंने दुबारा फिर अकेले टेड सेरियस को ‘लाईफ’ पत्रिका के कार्यालय में बुलाया। कैमरा लाइफ की फिल्म भी ‘लाईफ’ कार्यालय द्वारा भरी गई। पाल बेल्च ने कहा इस बार वह किसी 17 मंजिल की इमारत का ऐसा चित्र चाहते हैं, जिसकी खिड़कियाँ स्पष्ट दिखाई देती हों। सेरियस फिर पहले की तरह बैठा। वैसा ही चित्र मानसिक कल्पना द्वारा उसने कैमरे में उतार दिया किस शहर की यह इमारत हो सकती है, इसका तो कुछ पता नहीं चल सका पर वह चित्र ‘लाईफ’ पत्रिका में छपा था। लोगों को टेड सेरियस की इस विलक्षण क्षमता पर बड़ा आश्चर्य हुआ। टेड का यह भी कहना है कि आज तो लोग मुझे केवल कौतूहल से देखते हैं, पर मैं शीघ्र ही प्रमाणित कर दूँगा कि शरीर में एक प्रकाश पूर्ण सामर्थ्य है और वह एक स्थान पर बैठे हुये संसार भर को देख सकती है। टेड ने प्रथम विश्वयुद्ध और अमेरिका स्वतंत्रता संग्राम के सिपाहियों के ऐसे चित्र भी उतारें हैं, जो तत्कालीन परिस्थितियों के हूबहू चित्रण हैं और इस बात के प्रमाण भी। किसी एक बिन्दु पर हम भूत और भविष्य एक ही दृश्य में देख सकते हैं।

दरअसल समय कोई वस्तु नहीं वह तो ब्रह्मांड अथवा आत्मा का विस्तार मात्र है, यदि हम उस मूल-प्रकाश-बिन्दु को प्राप्त कर लेते हैं तो हम त्रिकालदर्शी, सर्वव्यापी सब कुछ बन सकते हैं। चलते फिरते अनुभव करने के लिये आँख, कान, नाक और इन्द्रियाँ आवश्यक नहीं, आत्मा का प्रकाश रूप अपने आप ही इन क्षमताओं से भरपूर है।

अभी तक माना जाता था कि कोई वस्तु देखनी हो तो प्रकाश और आंखें दो ही वस्तुयें आवश्यक हैं। प्रकाश जब आँखों की रेटिना से टकराता है तो आंखों का तंत्रिका तन्त्र एक विशेष प्रकार की रासायनिक क्रिया करके सारी सूचनायें मस्तिष्क को देता है। मन एक तीसरी वस्तु है, जो प्रकाश और आँखों के क्रिया-कलाप को अनुभव करता और नई तरह की योजनायें, आदेश, अनुभूतियाँ तैयार करके शरीर के दूसरे अवयवों में विभक्त करता है। अर्थात् मानसिक चेतना न हो तो प्रकाश और आँखों के होते हुये भी देखना सम्भव नहीं।

मन प्रकाश ही नहीं, एक प्रकार की विद्युत तरंग जैसा है, इसलिये यदि वह वस्तुओं को दृश्य बनाने में सीधे सक्षम हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिये। ऐसे भी अनेक उदाहरण दिखाई देते हैं, जब प्रकाश को ‘रेटिना’ (पुतली का केन्द्र-बिन्दु) द्वारा विद्युत आवेग में बदलने की आवश्यकता नहीं पड़ती और कुछ लोग केवल त्वचा, गाल अथवा शरीर के और किसी भाग से ही देख लेते हैं।

‘इजवेस्तिया’ (रूस में छपने वाला समाचार-पत्र) में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार निझनी तागिल (रूस) की रोजा नामक युवती पंक्तियों पर उंगली चलाकर मामूली प्रेस में छपी पुस्तकें पढ़ लेती है। कई समाचार-पत्रों ने उसके प्रमाण सहित फोटो भी छापे हैं। आश्चर्य तो यह है कि पुस्तकों में बने हुये किसी भी फोटो को उँगलियां रख कर ही वह बता देती है कि यह फोटो महात्मा गाँधी की है अथवा इब्राहिम लिंकन की है। यदि वह जानती नहीं होती तो आकृति का वर्णन कर देती है, इनके इतनी बड़ी मूंछें हैं, ऐसे कान और अमुक पोशाक पहने हुये फोटो उतारी गई।

वैज्ञानिक हैरान थे, आखिर यह है क्या? उन्होंने ध्यान दौड़ाया तो एक बात सूझ पड़ी। साँप के शरीर में ‘इन्फ्रारेड हीट डिटेक्टर’ की तरह का एक अति संवेदनशील अंग होता है। यह एक प्रकार का ताप सूचक यन्त्र है, जिससे ताप की किरणें बाहर आती हैं और पास आ रही वस्तु से टकराकर वापिस लौटती हैं। साँप चुपचाप पड़ा होता है और अपने इस अवयव से यह जान लेता है कि किस दिशा में कहाँ पर शिकार है, बस उधर ही झपटकर उसे पकड़ लेता है।

इसी तरह के तन्तुओं से कबूतर और चिड़ियों के मस्तिष्क भी सजे होते हैं, जिससे वे हजारों मील की यात्रा का ज्ञान रिकार्ड करके रखते हैं। दस वर्ष बाद भी उनकी सहायता से वे अपने मूल-निवास को लौट सकते हैं। मेढक की आँख और मस्तिष्क के बीच में इस तरह के ज्ञान-तन्तु होते हैं, उन्हीं से वह अपने दुश्मनों की आक्रमण करने की इच्छा तक को पहचान लेता है (यह मनुष्य के आज्ञा-चक्र भूमध्य में भी एक ऐसी ही संवेदनशील शक्ति के होने का सबसे बड़ा प्रमाण है) और आक्रमण होने से पहले ही बच निकलता है।

इन जानकारियों के आधार पर वैज्ञानिकों ने रौजा की भी जाँच की। उन्होंने प्रकाश में से ‘इन्फ्रारेड किरणें’ निकाला हुआ प्रकाश और उसके साथ अक्षर एक कागज पर डाले तब भी रौजा ने उन्हें पढ़ दिया। बेशक वह इस स्थिति में आकृतियां नहीं पहचान पाई पर वैज्ञानिकों को यह मालूम पड़ गया कि आंखें ही नहीं, शरीर के अन्य अंगों में भी दृष्टि-तत्व हो सकते हैं। रौजा के हाथों में प्रति एक मिलीमीटर ऐसे दस तत्व पाये भी गये। वैज्ञानिकों ने बताया-यह असामान्य स्थिति है, हम कह नहीं सकते कि क्या शरीर में ऐसे तत्व और भी कहीं हैं या विकसित किये जा सकते हैं। हम इस बात को जानने की शोध अवश्य करेंगे कि प्रकाश को ग्रहण करने वाले तत्व उँगलियों में कैसे आ गये। यदि इस बात को ढूंढ़ निकाला गया तो ध्यान के रूप में प्रकाश कणों को आकर्षित करने और शरीर में अतीन्द्रिय ज्ञान (एक्स्ट्रा आर्डिनरी सेन्स परऐप्शन) की क्षमता उत्पन्न करने की भारतीय योग-प्रणाली पूर्ण विज्ञान सम्मत हो जायेगी।

“ब्रिटिश जनरल आफ मेडिकल हिप्नोटिज्म” ने एक ऐसा ही समाचार छापकर बताया है कि बैंकाक में तो एक संस्था ही काम करती है जो अंधों को गालों से देखने का प्रशिक्षण देती है। उसके संचालकों का दावा है, मनुष्य के गाल शरीर भर के समस्त अंगों की अपेक्षा अति संवेदनशील हैं और उनमें सूक्ष्म आध्यात्मिक शक्तियों का प्रचुर प्रवाह विद्यमान् रहता है। चुम्बन का महत्व और निर्देश इसीलिये है कि इस संवेदनशील अंग का उपयोग केवल उचित प्रयोजन के लिये और व्यक्ति की सूक्ष्म क्षमताओं का सदुपयोग करने के लिये ही किया जा सके।

यह उदाहरण यह बताते हैं कि संसार में कोई ऐसा महत्तत्व है। जिसकी सीमित मात्रा विकसित करके भी विलक्षण शक्तियों का जागरण किया जा सकता है। यह तो वैज्ञानिक भी मानते हैं कि प्राणी के अन्दर तन्तुओं का ऐसा जाल फैला है कि कैसी भी नई समस्या आये, उसका भी निराकरण प्रस्तुत कर देने की उनमें क्षमता है। उन क्षमताओं को विकसित करने की विद्या हम भारतीयों ने ‘योग विज्ञान’ के नाम से प्राप्त की है, उसका उपयोग और अभ्यास हममें से कोई भी व्यक्ति करके इस तरह की अतींद्रिय क्षमतायें अपने आप में भी उत्पन्न होकर एक स्थान के दृश्य और चित्र लाखों-करोड़ों मील दूर कैसे पहुँच जाते हैं। हम उसे कैसे ग्रहण कर लेते हैं, इसका वर्णन अगले अंक में करेंगे।


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