आओ हम-आप दोनों जियें

March 1970

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मध्य यूरोप की नदियों में एक ‘रोडियश’ नामक मछली पाई जाती है। हिन्दुओं में हरिजनों के बच्चों को जिस तरह कभी शिक्षित और साधन सम्पन्न नहीं होने दिया जाता था। इस गरीब मछली के लिये भी खुले स्थान पर अंडे देना एक प्रकार की आफत है। जो भी जीव उधर गुजरता है वही उन्हें साफ कर जाता है।

कुछ ऐसे वृक्ष होते हैं, वो अपनी सीमा में छोटे-छोटे पौधों को पनपने नहीं देते हैं। सारे जंगल में दो-चार ऐसे हिंसक जन्तु भी होते हैं, जो छोटे-छोटे जीव-जन्तुओं को खा डालते हैं, अफ्रीका के कुछ पौधे ऐसे धोखेबाज होते हैं कि उनमें कोई चिड़िया आश्रय के लिये आई और उन्होंने अपने नुकीले पत्तों से उसे जकड़कर खून पी लिया। समुद्र में एक-दो मछलियाँ, एक-दो जन्तु जैसे मगर और घड़ियाल ऐसे भी होते हैं, जो किसी का पनपना देख नहीं सकते, अपने से कम शक्ति का जो भी दाँव में आ गया, उसी को चट कर लिया।

विविधा-विपुला प्रकृति में ऐसे दृष्ट प्रकृति के जीव-जन्तु हैं तो पर उनकी संख्या, उनका औसत थोड़ा है पर मनुष्य जाति के दृष्टि-दोष को क्या कहा जाये, जो इन दो चार उदाहरणों को लेकर ‘ उपयोगितावाद’ जैसा मूर्खतापूर्ण सिद्धान्त ही तैयार कर दिया। ढूंढ़ें तो अधिकाँश संसार ‘ आओ हम सब मिलकर जियें’ के सिद्धान्त पर फल-फूल रहा है। यदि छोटों को मारकर खा जाने वाली बात ही सत्य रही होती तो कुछ ही शताब्दियों में विश्व की आबादी दो गुनी से भी अधिक न हो गई होती।

प्रस्तुत प्रसंग यह बताता है कि संसार के अबुद्धिमान जीव-जन्तु भी परस्पर मिलकर रहना कल्याणकारक मानते हैं। जहाँ रोडियश मछली पाई जाती है, वहीं एक ‘सीप’ नामक जीव भी पाया जाता है। सीप के शरीर को कछुये की सी तरह का एक मोटा और कड़ा आवरण घेरकर रखता है, जिससे वह अपने अण्डों की सेवा नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में रोडियश मछली और सीप दोनों मिलते हैं और ‘आओ हम आप दोनों मिलकर जिएं’ के अनुसार समझौता कर लेते हैं।

रोडियश अपने अण्डे सीप के खोल में प्रविष्ट कर देती है, इसी समय सीप अण्डे देती है, वह रोडियश अपने शरीर से चिपका लेती है। रोडियश घूम-घूमकर अपने लिये भोजन इकट्ठा करती है, उसी के दाने-चारे पर सीप के बच्चे पल जाते हैं, जबकि उसके अपने बच्चों को सीप पाल देती है। विभिन्न जातियों में सहयोग और संगठन की आचार संहिता लगता है, भारतीय समाज शास्त्रियों ने प्रकृति की इस मूक भाषा को पढ़कर ही तैयार की थी। आज भी उसका मूल्य और महत्त्व सामाजिक जीवन में उतना ही है। इस सिद्धान्त के आधार पर ही संसार सुखी रह सकता है। शोषण, छल, कपट, बेईमानी, अनीति और मिलावट पर नहीं। वह यदि दूसरे के साथ यह दुष्टता करेगा तो शेष वातावरण उसके लिए भी वैसा ही तैयार मिलेगा।

यह उदाहरण कोई अपवाद नहीं। अखण्ड-ज्योति के पिछले अंकों में ऐसे सैंकड़ों उदाहरण देते चले आ रहे हैं। ‘एलगी’ जाति के ‘प्रोटोकोकश’ पौधे और फंगस जाति के ‘एस्कोमाइसिटीज’ पौधे भी आपस में मिलकर एक दूसरे को बहुत सुन्दर ढँग से पोषण की वस्तुएँ प्रदान करते हैं। हमें शिक्षक ज्ञान देता है, शिक्षा देता है पर हम अपनी अनपढ़ धर्मपत्नी या अशिक्षित पड़ौसी के लिये एक घण्टा भी नहीं निकाल सकते, हमारे माता-पिता हम जब बच्चे थे, तब आधे पेट गीले वस्त्रों में सोकर हमारी परवरिश करते थे पर आज जब वे वृद्ध हो गये, तब हम उनकी कितनी अवहेलना करते हैं। नाई, धोबी, तेली, कुम्हार, दुकानदार, रेलवाला, बसवाला, सारा संसार यों कहिये अपनी सेवाएँ हमें देने को तत्पर है, तब यदि हम दूसरों को धोखा देने की बात सोचें कृतघ्नता दिखायें तो ऐसे व्यक्ति से नीच और घृणित कौन होगा?

पौधों का क्या अस्तित्व पर वे मनुष्य जाति से अच्छे हैं। ऊपर के दोनों पौधे मिलकर एक चपटे आकार का ढाँचा बना लेते हैं, उसे ‘जूलाजी’ में ‘लाइकन’ कहते हैं। इसमें से होकर एलगी की जड़ें फंगस के पास पहुँचती हैं और फंगस की एलगी के पास। एलगी के पास जिस तत्त्व कि कमी होती है, उसे फंगस पूरा कर देता है और फंगस की कमी को एलगी-दोनों के आदान प्रदान में यह थैला भी विकसित होता रहता है। औरों के कल्याण में अपना कल्याण, सबकी भलाई में अपनी भलाई अनुभव करने वाले समाज इसी तरह विकास और वृद्धि करते हैं और अपने साथ उन छोटे-छोटे दीन-हीन व्यक्तियों को भी पार कर ले जाते हैं, जो सहयोग के अभाव में दबे पड़े पिसते रहते हैं।

‘स्कारपियन’ मछली अपने शरीर के ऊपर छोटे-छोटे हाइड्रा जाति के जीवों को फलने-फूलने देती है, वे छोटे-छोटे जन्तु हजारों की संख्या में एक सिरे से दूसरे सिरे तक पूरी सतह में फैले रहते हैं। देखने में यह हरे रंग के होते हैं। मछली के शरीर के ऊपर इनका पूरी तरह पोषण होता रहता है।

जब एक अविकसित मछली दूसरे दीन-दुर्बलों की सहायता में इतना योगदान दे सकती है तो हम समाज के दलित वर्ग हरिजनों, आदिवासियों, दहेज के अभाव में पीड़ित बहनों, दवा के अभाव में पिसते रोगियों को जो अपने ही समाज के अंग हैं, कल्याण की योजनायें क्यों नहीं बना सकते। जीव-जीव, पेड़-पौधों तक में जब एक दूसरे के प्रति सेवा और सहयोग का भाव पनप रहा हो, तब मनुष्य जाति उससे पीछे हटे, यह उसका दुर्भाग्य ही कहना चाहिये।

परोपकारिता घाटे का सौदा नहीं, व्यक्ति का महान् स्वार्थ है। जब हम दूसरे की सेवा करते हैं, तब सही मानों में अपनी ही सेवा करते हैं। मछली इन हरे जीवों को पालते समय कोई मूल्य नहीं माँगती। वह पूर्ण निष्काम होती है पर उसे क्या पता कि यह कीड़े अस्वादिष्ट होते हैं और अपने शरीर से एक ऐसी दुर्गन्ध निकालते हैं, जिनके कारण हिंसक मछलियाँ और जन्तु उनसे दूर ही भागते हैं, इसे वह मछली जो इन्हें पालती है, स्वयं भी शिकार होने से बच जाती है।

हमारा मनुष्य भी निष्काम सेवा और परस्पर मिल-जुलकर रहने के इस तत्त्व-ज्ञान को समझ जाता तो वह इसी पृथ्वी पर स्वर्गीय सुखों की अनुभूति कर रहा होता, इसमें राई-रत्ती सन्देह नहीं है।


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