प्रकाश (सूक्ष्म) शरीर की विकास प्रक्रिया

March 1970

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श्रीमती जे0सी0 ट्रस्ट ने एक ऐसे व्यक्ति को चुना जो छोटी-छोटी बातों में उत्तेजित हो जाता था। वह दिन में कई-कई बार क्रुद्ध हो जाने के कारण बहुत दुर्बल पड़ चुका था, सर्दी-गर्मी के हलके परिवर्तन भी उसको कष्टदायक प्रतीत होते, उसे कोई न कोई बीमारी प्रायः बनी रहती थी।

एक बार जब वह भरे गुस्से में था, तब श्रीमती ट्रस्ट ने उसे लिटा दिया और उसके नँगे शरीर पर बालू की हलकी परत बिछा दी उनके शिष्य, अनुयायी और कई वैज्ञानिक भी उपस्थित थे। उन सबने बड़े कौतूहल के साथ देखा कि जिस प्रकार पानी से भरी काँसे की थाली को बजाने से पानी की थरथरी काँसे के अणुओं में उत्तेजन और स्पन्दन का अभ्यास कराती है, उसी प्रकार मनुष्य के शरीर से भी प्रकाश-अणु निरन्तर निःसृत होते और थरथरी पैदा करते रहते हैं।

क्रोध जैसे उत्तेजनशील आवेश के समय यह प्रकाश-अणु बड़ी तेजी से थरथराते हुए निकलते हैं, इसलिए उस समय तो स्पष्ट आभास हो जाता है पर सामान्य स्थिति में प्रकाश कणों की थरथराहट धीमी होती है। जो व्यक्ति जितना अधिक शान्त, कोमल-चित्त, मधुर स्वभाव, मितभाषी, स्थिर बुद्धि होता है, उसके सूक्ष्म शरीर के प्रकाश-अणु बहुत धीर-धीरे निकलते हैं और बहुत समय तक शरीर में शक्ति, उष्णता और सहनशीलता बनाये रखते हैं। ऋतुओं के आकस्मिक परिवर्तन भी शरीर पर दबाव नहीं डाल पाते।

रासायनिज्ञ रोमेल ने भी इस तथ्य को एक प्रयोग द्वारा सिद्ध करके दिखा दिया की शरीर में निरन्तर विद्युत चुम्बकीय उर्मियाँ (कम्पन) निकलते और मानव अणुओं को बाहर निकालते रहते हैं। उन्होंने रेडियो-फास्फोरस, रेडियो आयोडीन आदि रेडियो-धर्मी औषधियाँ खाईं तो चमक के साथ प्रकाश किरणें सी शरीर से स्पष्ट लपकती जान पड़ीं। दरअसल अणुओं की इस आभा का छिटकना जीवन के लिये बड़ा महत्त्वपूर्ण है, यदि यह क्रिया शरीर में न चल रही होती तो न तो शरीर की गन्दगी बाहर निकलती और न ही पुराने कोश (सेल्स) नये कोशों में बदलकर शरीर को स्वस्थ रखते। देखने में आया है कि इन अणुओं के निकलते ही शरीर के कोश बदलने की अपेक्षा सड़ने लगते हैं और कुछ ही देर में शरीर में बदबू आने लगती है।

शरीर से जीवन अणुओं का निकलना एक वैज्ञानिक सिद्धाँत है, उसकी अपेक्षा महत्त्वपूर्ण जानकारी है, शरीर में पहले से व्याप्त इन प्रकाश-अणुओं में से धूमिल, मटमैले, गन्दे संस्कारों वाले प्रकाश अणुओं के स्थान पर दिव्य अणुओं का विकास। यदि इस विकास के विज्ञान को कोई जान ले तो उसके लिये सृष्टि की नैसर्गिक शक्तियों के दिव्य प्रकाश कणों को आकर्षित करना ही सुगम न हो जाये वरन् वह व्यक्ति बड़ी आसानी से किसी के द्वारा प्रेक्षित सन्देश और शक्ति-संचार को भी बड़ी तेजी से अपने अन्दर भरता हुआ, उसी प्रकार उन शक्तियों से ओत-प्रोत हो सकता है, जिस प्रकार बड़े तालाब से नाली निकालकर किसी भी छोटे गड्ढे को अपनी पात्रता भर लेते हैं। किसी के कष्ट निवारण छाया शरीर का नियन्त्रण, परकाया प्रवेश और समाधि-अवस्था में सुदूर प्रान्तरों एवं ग्रह-नक्षत्रों में विचरण सब इसी विद्या की शाखायें हैं।

प्रकाश अणुओं के आकर्षण की एक क्रिया तो अपने आप शरीर के द्वारा चलती रहती है, यों हमारा सीधा संपर्क सूर्य की गर्मी या प्रकाश-अणुओं से है, तथापि हम जहाँ भी हैं, वहाँ इस ब्रह्माँड के लाखों-करोड़ों ग्रह-नक्षत्रों के प्रकाश-कण विद्यमान् होकर एक विलक्षण शक्ति के रूप में वायु में घुले हमारी साँस और त्वचा के द्वारा भीतर जाते हैं। वैज्ञानिक इस ही ‘वाइटल फोर्स’ और भारतीय तत्त्व-वेत्ता उसे ही प्राण कहते हैं।

पराकासनी (इन्फ्रारेड) विकिरण तो शरीर में पर्याप्त भीतर तक घुस जाता है और उसके अणु या ऊष्मा भीतर ही भीतर बिखर जाती है। मनुष्य की त्वचा एक मिलीमीटर गहराई तक इन किरणों को संप्रेषित करती रहती है। काली चमड़ी वालों में यह प्रकाश-कण सोखने (टु आब्जार्व) की क्रिया धीमी होती है फिर यही विद्युत-चुम्बकीय तरंगें स्नायु सूत्रों तथा विद्युत चालकों प्रोटानों के माध्यम से शरीर के सभी कोनों में फैल जाती हैं।

शरीर के दूसरे अवयव जैसे कोशिकाओं, रक्त, माँस, मज्जा, कार्टेक्स (मस्तिष्क के आन्तरिक भाग को कार्टेक्स कहते हैं) तथा स्नायु सूत्रों में भी प्रकृति की अन्य वस्तुओं की भाँति ही कई प्रकार के विकिरणों (प्रकाश के छिटके हुये अणु प्रवाह) को ग्रहण करने, परिवर्तन, शोषण, सम्प्रेषण तथा पुनः विकिरण करने की भी क्षमता होती है। इस क्रिया पर ही स्वस्थ,दुर्बल, युवा अथवा वृद्ध होना निर्भर है। प्राणायाम द्वारा प्राणों का नियन्त्रण और योगाभ्यास द्वारा उन शरीर-संस्थानों को जागृत कर जो प्राण-शक्ति को आकाश में से बहुतायत से खींच सकते हैं, वृद्ध होने पर भी अपने शरीर को बलवान् और तेजस्वी बनाये रखते हैं।

मस्तिष्क द्वारा भी किन्हीं अनजाने प्रकाश-स्रोतों के प्रकाश-कण आकर्षित कर प्रकाश शरीर वाले सूक्ष्म शरीर को विकसित किया जा सकता है, यह थोड़ी कठिन उपपत्ति (सोलूशन) है तथापि विज्ञान अब उसे भी प्रमाणित करने लगा है। इस प्रमाण के लिये बेचारे रूसी खगोल-शास्त्री श्री चिजोव्स्की को भारी तप करना पड़ा।

पहले तो वह घण्टों कभी सूर्य की तेज धूप में तो कभी चन्द्रमा के शीतल प्रकाश में बैठे रहते और होने वाले अपने मानसिक परिवर्तनों को लिखते रहते । फिर उन्होंने पिछले 400 वर्षों के इतिहास में मानवीय स्वभाव के उतार-चढ़ाव तथा अनेक प्रकार की बीमारियों के वार्षिक आँकड़े एकत्रित कर देखा कि सूर्य आदि की चमक ओर उसके 11 वर्षीय कलंकों (सन-स्पाट्स) से मनुष्य की मनोदशा से गहरा सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा तो कभी बाद में करेंगे पर यहाँ यह समझ लेना नितान्त आवश्यक है कि विचार प्रणाली का सम्बन्ध मस्तिष्क की जिन थॉयराइड, एड्रीनल और पिट्युटरी आदि ग्रन्थियों से है, वे सब नलिका विहीन (डक्टलेस) होती हैं, अर्थात् उनमें किसी प्रकार का रासायनिक प्रवाह न होना, प्रकाश या प्राण के सूक्ष्म कण ही उसी तरह प्रवाहित होते हैं, जिस प्रकार तार में विद्युत-कण। जैसे-जैसे यह प्रकाश-कण होते हैं, वैसे-वैसे भाव उठते हैं। सूर्य की तेज धूप में क्लान्ति, क्रोध, वीरता जैसे भाव आते हैं तो चन्द्रमा के प्रकाश में आह्लाद और कामुकता के। अब यदि कोई व्यक्ति अपना ध्यान किसी प्रकाश-स्रोत पर लगाता है तो इसका अर्थ यह हुआ कि हमारी नलिका विहीन ग्रन्थियाँ उस स्रोत विशेष से विद्युत चुम्बकीय सम्बन्ध स्थापित कर लेती हैं और वह कण तेजी से हमारे अन्दर भरने लगते हैं। ध्यान जितना एकाग्र और गहन होता है, इस आकर्षण की और सूक्ष्म शरीर के विकास की गति को हम उतना ही स्पष्ट अनुभव करते-करते एक दिन उस स्रोत से तादात्म्य कर सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं।

उदाहरण के लिये गायत्री उपासना के साथ सूर्य का ध्यान भी करना पड़ता है। ध्यान की अवस्था में सूर्य के विद्युत-चुम्बकीय प्रवाह से अपने मस्तिष्क की चोटी वाले स्थान से नलिका विहीन ग्रन्थियों का सम्बन्ध जुड़ जाता है और सूर्य तेज के कण हमारे शरीर में प्रवेश करते हुये चले जाते हैं, इस तरह अपना प्राण शरीर विकसित होता हुआ सूर्य प्रकाश के समान हलका दिव्य तेजस्वी होता चला जाता है। जिस दिन शरीर के सभी प्रकाश अणु बदल जाते हैं, उसी दिन साधक गायत्री सिद्ध या सूर्य की सी गति वाला हो जाता है। जब तक शरीर में एक भी विजातीय अणु रहेगा, तब तक साधक के चित्त में कोई न कोई अस्थिरता बनी रहेगी पर सिद्धि के बाद सभी आशंकायें और अस्थिरतायें मिट जाती हैं।

इस तरह सुन्दर, शुद्ध स्थान में रहकर, महापुरुषों व देवस्थानों के संपर्क में आकर, प्राणायाम, प्रत्याहार आदि के द्वारा तथा जप और ध्यान के माध्यम से साधक प्रकाश-अणुओं या प्राण शरीर पर नियन्त्रण करना व विकास करना ही सीखता है। दूसरे के देखने में वह सब कौतूहल या खिलवाड़ सा लगता है पर साधक जानता है कि वह इस तरह कितना शक्तिशाली बनता व महान् जीवनोद्देश्य पूरा करता है।

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