तत्व-ज्ञान

March 1970

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भिशक अनंगपाल के लिये यह कोई नई बात नहीं थी। वे जिस जल से स्नान करते थे, उसमें तो प्रत्येक ही दिन कोई न कोई इत्र, चन्दन, अगरु, केवड़ा या गुलाब की सुवास मिलाई जाती थी पर जो मादकता और मधुरता आज के जल में थी, वह कभी भी नहीं मिली थी।

विस्मित महाराज भिशक अनंगपाल ने परिचालिका को बुलाया और पूछा- आज जल-कलश में कौन सी सुवास मिलाई गई है। परिचालिका किसी अज्ञात भय से स्तब्ध हो गई। उसने कहा- क्षमा करें, महाराज! आज एक नई परिचारिका, जो कल ही नियुक्त की गई है, ने स्नान का प्रबन्ध किया था, आज्ञा हो तो सेवा में उसे ही उपस्थित करूं।

महाराज भिशक अनंगपाल ने उस दूसरी परिचारिका को बुलाकर पूछा तो वह सहास बोली- महाराज! उस जल में तो कुछ भी नहीं मिलाया गया। हाँ वह जल मैं स्वयं ही अपने साथ अपने मायके से लाई थी।

मायके से। महाराज की उत्सुकता और भी बढ़ी, उन्होंने पूछा- बताओ परिचारिके तुम्हारा पितृगृह कहाँ है, क्या यह जल किसी कुएं का है या पद्म-पुष्पित किसी सरोवर का?

नहीं, नहीं महाराज! ऐसे किसी स्थान का जल नहीं था वह। मेरा घर गन्धमादन पर्वत की तलहटी पर है और यह जल जो मैं अपने साथ लाई।

वह तुम्हारे पिता का तैयार किया हुआ है भद्रे! अच्छा यह तो बताओ, तुम्हारे पिता गन्धी तो नहीं हैं, महाराज ने बीच में ही बात काटते हुये पूछा। परिचारिका बोली- महाराज यह जल मेरे पिता का तैयार किया हुआ नहीं है। मेरे ग्राम के समीप एक आश्रम है। वहाँ एक योगी रहते हैं। आश्रम के समीप ही एक कुण्ड है, जो वर्ष भर जल से भरा रहता है, यह जल उसी कुण्ड का है। मैं उसे विशेष रूप से आपके लिये ही लाई थी।

भिशक अनंगपाल की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। नव-परिचारिका को पर्याप्त पारितोषिक दे वे उस आश्रम की ओर चल पड़े। दो दिन की अनवरत यात्रा के बाद सब लोग उस आश्रम जा पहुँचे। महाराज ने वहाँ पहुँचते ही अनुभव किया कि यहाँ की तो प्रत्येक वस्तु उसी सुगन्ध से परिपूर्ण दिखाई देती है। महाराज बड़े आश्चर्यचकित हुये। सत्वर ही योगी को प्रणाम कर उन्होंने पूछा- महात्मन्! आपके आश्रम में यह भीनी-भीनी सुगन्ध कहाँ से आ रही है।

योगी ने हंसकर कहा- महाराज! एक वृक्ष यहाँ से सौ योजन दूरी पर इसी पर्वत पर है, मैं सदैव उसका ध्यान करता रहता हूँ, आश्रम उसी की सुगन्ध से अहिर्निश गूँजा करता है।

“केवल स्मरण मात्र से ऐसा होना बड़ी कठिन बात है महात्मन्!” आप समझ भी नहीं सकते, यह सब संकल्प चमत्कार है। संकल्प-बल से व्यक्ति अपने जीवन को ही नहीं, प्रत्युत्तर अपने वातावरण को भी जैसा चाहे, वैसा ही बना सकते हैं, महाराज!” महाराज को वह पुष्प तो नहीं मिल सका पर जो तत्व-ज्ञान लेकर लौटे वह उससे भी महत्वपूर्ण था।


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