वासना का ग्रहण ने लगे तो जीवन को सम्पूर्ण असफलताओं और निराशाओं को प्रेम के पुण्य प्रकाश में ऐसे ही नष्ट किया जा सकता है, जैसे महावट की वर्षा के तुषार के अन्न-नाशी पात को। प्रेम से बढ़कर अन्य कोई प्रतिष्ठा इस संसार में नहीं है। इसीलिये मनुष्य प्रेम के लिए जीता रहता है।
कीट्स अँग्रेजी का महान् कवि थोड़ा सा जीवन जिया, अभाव और कष्टों में जिया। कहते हैं कीट्स कई-कई दिन की सूखी रोटियाँ रख लिया करता था, वही जीवन-निर्वाह की साधन होती थीं, ऐसी परिस्थितियों में कोई व्यक्ति यदि जी सकता है तो उसे किसी का परम-प्रेमास्पद ही होना चाहिए। कीट्स के सम्बन्ध में ऐसा ही था। एक सम्पन्न परिवार की नवयुवती ने उसे प्रेम दिया था। वासना-रहित उस प्रेम ने ही कीट्स के सम्बन्ध में ऐसा ही था। एक सम्पन्न परिवार की नवयुवती ने उसे प्रेम दिया था। वासना-रहित उस प्रेम ने ही कीट्स की भावनाओं को इतना कोमल और संवेदनशील बनाया था। 21 वर्ष की स्वल्पायु में लिखी उसकी रचनायें प्रौढ़ कवियों को भी मात करती चली जाती हैं और जब यही प्रेम उससे छिना, कीट्स की प्रेमिका का विवाह किसी धन सम्पन्न परिवार में कर दिया गया तो उसका यही प्रेम परमात्मा के पैरों में समर्पित हो गया। ‘दि लैमेन्ट’ नामक गीत में उसकी यह सम्पूर्ण भाव-विभोरता छलक उठी है और उसने ‘कीट्स’ को अमर बना दिया है।
महाकवि कालिदास जब तक एक भावना-विहीन व्यक्ति थे, तब तक उन्हें यह भी सुधि न थी कि वे जिस डाल पर बैठे हैं, उसी को काट रहे हैं, किन्तु जब विद्योत्तमा के पावन प्रेम ने उसे झकझोरा तो कालिदास का सम्पूर्ण अन्तःकरण अँगड़ाई लेकर जाग उठा। महाकवि के गीतों में भगवती सरस्वती को उतरना पड़ा।
कहते हैं एक बार विवाद उठ खड़ा हुआ कि कवि दंडी श्रेष्ठ हैं अथवा कालिदास। जब इसका निर्णय माननीय पंचायत न कर सकी, तब दोनों सरस्वती के पास गये और पूछने लगे- “अम्बे! अब तुम्हीं निर्णय कर दो न हम दोनों में श्रेष्ठ कौन, बड़ा कौन है? “ भगवती ने मुस्कराते हुए कहा-”कविर्दडी! कविर्दडी!! कवि तो दंडी ही है।”
महाकवि कालिदास ने भगवती के चरणों में अपना सर्वस्व समर्पण किया हुआ था। उन्हें यह निर्णय पक्षपात पूर्ण लगा। पूछ बैठे- “अम्बे! यदि दंडी ही कवि हैं तो फिर मैं क्या हुआ?”
भगवती ने उसी स्नेह से कहा-”तात्! त्वं साक्षात् सरस्वती। तुम तो साक्षात् सरस्वती ही हो। हम और तुम दोनों अभिन्न हैं।” इस आख्यान से महाकवि का मन पश्चात्ताप से भर गया, उन्होंने तब जाना निःस्वार्थ प्रेम की गौरव-गरिमा कितनी महान् है।
महाकवि तुलसी के अन्तःकरण को प्रेम ने ही जागृत कर ईश्वर परायण बनाया था। सूरदास तब विल्वमंगल कहे जाते थे, चिन्तामणि वेश्या के प्रति निश्छल प्रेम ने ही उनकी आत्मा को झंकृत किया था। प्रेम आध्यात्म की पहली और आखिरी सीढ़ी है। उस पर चढ़कर ही व्यक्ति निराकार सत्ता में विश्वास और चिर-सुख की अनुभूति करता है। उसी में मिलकर ही वह अमरत्व का आनन्द लूटता है। प्रेम का अभ्यास जीवन में न किया हो, ऐसा एक भी अध्यात्मवादी व्यक्ति नहीं मिलेगा, क्योंकि प्रेम नहीं होगा तो वह कैसे मानेगा कि संसार का अन्तिम सत्य पदार्थों में शरीर और संपत्ति में नहीं, भावनाओं में है, उसकी ही प्यास मनुष्य को चारों और दौड़ाती है।
यही प्रेम का भाव जब विस्तृत होने लगता है तो व्यक्तित्त्व भी उसी क्रम से परिष्कृत होने लगता है। इसके अनेक रूप समाज के साथ हमारे सम्बन्धों को प्रगाढ़ और मधुर बनाते हैं। छोटों से प्रेम स्नेह, समवयस्कों से मैत्री और भ्रातृत्व, पत्नी का प्रेम, राग और बड़ों से प्रेम श्रद्धा कहलाता है। यह सब प्रेम रूपी वृक्ष के शाखा, पत्ते और फूल की तरह हैं। ईश्वर के प्रति भक्ति कहलाता है, यह निष्काम और विश्वास की शक्ति से सम्पन्न होने के कारण महान् हो जाता है और जिस अन्तःकरण में प्रस्फुटित होता है, उसे भी मजनू कीट्स, कालिदास, सूर और तुलसी की तरह क्षुद्र से महान् बना देता है।
अपने पति प्रेम-स्वार्थ से विश्व-प्रेम-परमार्थ की ओर प्रगति करता हुआ, प्रेमी-साधक ही विराट् जगत् में फैली आत्मा की एकता को हृदयंगम कर सकता है, उसी की ओर संकेत करते हुए गीताकार ने लिखा है-
आत्मानाँ सर्वभूतेषु सर्वभूतानि चात्मनिः।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शिनः॥
अर्थात्- वह योगी सभी भूत-प्राणियों में अपनी ही आत्मा समाई हुई देखता है, इसीलिये सभी को समभाव से देखता हुआ, वह सभी के साथ प्रेम करता है।
जीवन की सर्वोच्च प्रेरणा प्रेम ही आत्मा का प्रकाश है। प्रेम की प्रेरणा से काम करना ही ईश्वर की इच्छा का पालन करना है। उसने प्रेम से ही संसार की रचना की है। एक-एक को वह प्रेम से ही जोड़कर रखता है और अन्त में स्वयं भी उसी से जुड़ गया है। अन्य सब साधनायें जो ईश्वर को प्राप्त करा सकती हैं, देश, काल, स्व-स्थिति के अनुसार अदल-बदल सकती हैं, लाभदायक भी हो सकती हैं। और हानिकारक भी, किन्तु शुद्ध प्रेम की साधना में कहीं भी, किसी भी समय कोई भी परिवर्तन की आवश्यकता नहीं।
प्रेम आत्मा को झकझोर कर जगा देता है और व्यक्ति को परमार्थवादी बनने को विवश कर देता है। प्रेम का शुद्ध अर्थ है विश्वास। जो निराकार सत्ता में विश्वास करना सीख गया, ईश्वर उससे दूर नहीं रह सकता। आत्मा को झकझोर कर परमात्मा से मिला देने वाली इसीलिये सबसे सरल, सरस, अमर साधना प्रेम ही है। आध्यात्मवादी प्रेमी हुए बिना ईश्वर की ओर गमन नहीं कर सकता।