संकल्प शक्ति के अद्भुत चमत्कार

March 1970

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दक्षिणी अटलाँटिक महासागर के कुछ नाविक अपनी नौकायें जलतरण कराने वाले थे, तभी उन्होंने देखा एक मादा कछुआ, जिसकी लम्बाई लगभग पाँच फुट और वजन कोई 900 पौण्ड था, एसंशन द्वीप की ओर जा रही है। ‘एसंशन’ कुल पाँच मील क्षेत्रफल का छोटा-सा द्वीप है। नाविक कछुये के पीछे चलते चले गये। मादा टापू पर पहुँची। एक छोटा-सा गड्ढा खोदा उसमें 100 अण्डे दिए और उन्हें रेत से ढ़क दिया। अण्डों को सुरक्षित जान कर वह वहाँ से फिर लौट पड़ी। अब वह हजार मील की यात्रा कर ब्राजीलियन समुद्र तट पर पहुँच गई। इधर अंडे अपने आप पकते रहे।

ढाई, तीन वर्ष बाद वही मादा फिर गर्भवती हुई और फिर उसी ‘एसंशन’ द्वीप की ओर चल पड़ी। ठीक उसी दिशा में चलती हुई वह मादा कछुआ उसी गड्ढे के पास पहुँची और फिर वहीं अंडे दिए। बिना किसी यन्त्र के इतनी दूर के स्थान तक पहुँचना आश्चर्य का विषय था। जब वैज्ञानिकों ने उसकी खोज की तो उन्होंने और भी आश्चर्यजनक रहस्यों का पता लगाया।

उन्होंने देखा कि कछुआ अंडे रखने के इस स्थान को एक विशेष प्रकार की गंध और विद्युत चुम्बकीय तरंगों से पहचानती है, यह तरंगें उसके मस्तिष्क से निकलती थीं और उसे न केवल उस स्थान तक पहुँचा देती थीं वरन् उसकी विद्युत चुम्बकीय शक्ति के द्वारा वह अपने इन अंडों का हजार मील की दूरी होने पर भी पकाती रहती थी। यदि यह मादा मर जाय तो फिर उसका दिया हुआ एक भी अंडा न पकेगा। मानसिक शक्ति का यह चमत्कार पहली बार वैज्ञानिक की समझ में आया।

शरीर में स्थित आत्मा के व्यवहार के लिए यद्यपि पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं पर वह स्थूल होने से केवल भौतिक प्रयोजन ही पूरा करती हैं इनकी क्षमता सीमित है। ग्यारहवीं इन्द्रिय या शक्ति मन है, जिसके द्वारा आत्मा अपनी इच्छायें और संकल्प व्यक्त करती है। यह मन इतनी जबर्दस्त शक्ति है कि आत्मा को भी इच्छाओं के जाल में बाँधकर लोक-लोकान्तरों में बाँधे फिरती है। मन की इस चंचलता को वश में करना संकल्प के ही बूते की बात है। संकल्प आत्मा की जय-शक्ति है। आत्मज्ञ पुरुष इसीलिये संकल्पवान भी होते हैं या यों कहें कि संकल्पशील अर्थात् प्रत्येक सत्य का निष्ठापूर्वक पालन करने वाले ही आत्मा को जानते हैं, ‘संशयात्मा विनश्यति’ अर्थात् जिनके संकल्प डाँवाडोल होते हैं, वे तो अपना ही विनाश करते हैं।

भारतवर्ष में ऐसी अनेक कथायें प्रचलित हैं, जिनमें किन्हीं महापुरुषों द्वारा वर्षा रोक देना, बहते हुए जल-प्रवाह को खण्डित कर देना, पत्थर खण्ड को उठा देना आदि का व्याख्यान होता है। सर आडियार ने एक दक्षिणी साधु गोविन्द स्वामी का वर्णन करते हुए लिखा है कि - जल से भरे हुए घड़े को जब स्वामी जी आदेश देते तो वह पृथ्वी से डेढ़ फुट तक ऊँचा उठ जाता था। महर्षि गालब ने प्यासे आश्रम-वासियों को मरते देखा तो पर्वत को फाड़कर जल देने का आदेश दिया। कहते हैं उन्होंने जैसे ही अपना संकल्प व्यक्त किया पहाड़ के भीतर से जल धारा फूट निकली।

यह स्थान जयपुर में आज भी ‘गलता जी’ के नाम से बना हुआ है। पहाड़ की अदृश्य खोहों से वर्ष भर जल निःसृत होता रहता है। पहाड़ के ऊपरी सिरे से कहाँ से जल निकलता है, यह बड़े आश्चर्य की बात है पर यह है सत्य कि वहाँ वर्ष भर पानी निकलता रहता है। हजारों भक्त दर्शनार्थी प्रति दिन वहाँ जाते और स्नान करते हैं।

इन गाथाओं को जब तक भारतीय योगियों तक ही सीमित माना गया, तब तक वैज्ञानिक और दूसरे पढ़े-लिखे तर्कशील लोग उसे कपोल कल्पना कहते रहे पर पिछले दिनों जब रूस की एक महिला ने भी अपनी इच्छा-शक्ति का प्रदर्शन किया और केवल दृढ़ इच्छा से घड़ी की सुइयों को आगे-पीछे कर दिया, तब वैज्ञानिकों का ध्यान तेजी से आकृष्ट हुआ और उन्होंने खोज करके यह पाया कि जिस समय एकाग्र भाव से किसी क्रिया का चिन्तन किया जाता है तो मन से विद्युत चुम्बकीय तरंगें फूट पड़ती हैं। ठीक विद्युत धारा के समान इसमें भी धन और ऋण (पॉजिटिव एण्ड निगेटिव) अयन होते हैं। इन तरंगों में इच्छा शक्ति के अनुरूप लम्बाई कुछ फीट से हजारों मील दूरी तक की हो सकती है, जितनी तीव्र इच्छा-शक्ति होगी, वह उतनी ही दूरवर्ती पदार्थ को भी प्रभावित कर रही होगी। इन प्रारम्भिक जानकारियों को लेकर आज पश्चिमी देशों में व्यापक खोज प्रारम्भ कर दी गई है, जब हमारे देशवासी ध्यान की एकाग्रता जैसी महत्वपूर्ण योग प्रणाली को भूलते जा रहे हैं।

संकल्प आत्मा की शक्ति है, जिसका व्यवहार मन द्वारा स्फुट कार्यों में होता रहता है और उसके लाभ भी वैसे ही फुटकर मिलकर रह जाते हैं। साधारण लोगों को किसी भी उद्यम-उद्योग में इसीलिये कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिल पाती, क्योंकि उनका ध्यान विशृंखलित और अधूरा होता है वह वही काम जब दत्तचित्त पूरे मन से किया जाता है तो मानसिक विद्युत तेजी से प्रकीर्ण होने लगती है और उस कार्य से सम्बन्धित अनेकों ऐसी सूक्ष्म बातें सूझने लगती हैं, जिनसे सफलता की संभावना भी बहुत अधिक बढ़ जाती है।

आत्मा यदि यह गुण छोड़ दे तो शरीर जीवित न रहे इसलिए विचार प्रणाली अत्यावश्यक है। मस्तिष्क सम्बन्धी आपरेशनों की सबसे बड़ी बाधा यही है कि उससे लगातार उत्पन्न होने वाली विद्युत तरंगें रुक जाती हैं। इन तरंगों को रुकना नहीं चाहिये और न ही उसमें गड़बड़ी आनी चाहिये। आशंकित मस्तिष्क में विद्युत प्रक्रिया अस्त-व्यस्त हो जाती है अर्थात् सोचने, समझने की शक्ति का ह्रास हो जाता है पर यदि मन को इतना वशवर्ती बना लिया गया हो कि यह विद्युत धारा अपनी ही दिशा में बहती रहे चोट या घाव की ओर वह न मुड़े तो उसे कष्ट और पीड़ा का भान ही न हो। न्यूकैसिल के योगी ने कुछ दिन पूर्व सलीब पर जीवित चढ़कर यह दिखा दिया कि कष्ट विचार प्रणाली की अस्त-व्यस्तता मात्र है, यदि अपना संकल्प दृढ़ हो तो उसे किसी भी प्रिय वस्तु पर आरोपित करके अप्रिय कल्पना को ही ठुकराया जा सकता है।

लोकमान्य तिलक के अंगूठे का आपरेशन होना था। डॉक्टर क्लोरोफार्म लेकर पहुँचे। “इसे सुँघाकर बेहोश करेंगे, ताकि आपरेशन में आपको कष्ट न हो।” डाक्टरों के यह कहने पर तिलक हंसे और बोले- “उसकी आवश्यकता नहीं, तुम मुझे गीता की एक प्रति ला दो।” डाक्टरों ने उन्हें गीता दे दी। कुछ ही क्षणों में गीता पढ़ने में वे इस तरह तल्लीन हो गये कि उन्हें कब आपरेशन हो गया इसका पता ही न चला।

अपना संकल्प इतना दृढ़ हो कि हम कोई और वस्तु सोचें ही नहीं तो अनेक निराधार भय और कल्पनाओं को दूर किया जा सकता है, एक ही दिशा का सूक्ष्म से सूक्ष्म ज्ञान भी प्राप्त किया जा सकता है।

अब इस बात को डॉ. और वैज्ञानिक भी जानने लगे हैं। उनकी जानकारी तो यहाँ तक पहुँच चुकी हैं कि यदि किसी व्यक्ति का अपना मनोबल काम ने दे तो उसे कछुए की तरह का कोई अधिक संकल्पशील व्यक्ति सम्मोहित (हिप्नोटिज्म) करके भी काम निकाल सकता है। इन्डियानापोलिस (अमेरिका) के एक अस्पताल में एक ऐसा व्यक्ति आया जिसके सर में गोली लगी थी। व्यक्ति बहुत घबराया हुआ था, इसलिये सीधे मस्तिष्क का आपरेशन नहीं हो सकता था। फलस्वरूप उस व्यक्ति को सम्मोहित करके गहरी निद्रा में लाया गया। निद्रा की अवस्था में ज्ञान-शून्य विचार शृंखला चलती रहती है, इसलिये मृत्यु का भय नहीं रहता। आपरेशन अच्छी तरह सम्पन्न हुआ। अन्त में डाक्टरों ने लिखा कि ऐसी सुविधा उन्हें और किसी भी आपरेशन में नहीं हुई।

यह संकल्पशक्ति अत्यन्त स्थूल लाभ है। ध्यान और जप के माध्यम से प्राणायाम और प्रत्याहार आदि योग साधनाओं के माध्यम से सिद्ध होने वाला संकल्प तो इतना सूक्ष्म और शक्तिशाली है कि आत्मा उससे अपनी घोर से घोर शत्रुओं से रक्षा, प्रहार, दूर-दर्शन, दूर श्रवण आदि अलौकिक प्रयोजन सम्पन्न कर सकती है। यह आत्मा अपना वैभव संकल्प शक्ति द्वारा ही प्रकट करता है। इस अनुभव के आधार पर ही वेद में कहा गया है-

यो वः शुष्मो हृदयेष्वन्तराकूतिर्या वो मनसि प्रविष्टा। तान्सीवयामि हविषा घृतेन मयिसजाता रमतिर्वो अस्तु॥

-अथर्व वेद 6।73।2,

अर्थात्- हृदय का बल और मन का संकल्प एक कार्य में लगते हैं तो प्रत्येक कार्य उत्तम रीति से पूर्ण हो सकता है। हृदय और मन का एक भाव होकर सबके मन में स्नेहपूर्ण भाव जगने लगें तो लोगों में जो जातीयता होती है, वह विलक्षण संघ बल उत्पन्न करती है। अर्थात् संकल्प शक्ति से ही राष्ट्र, जाति और संस्कृति अजेय बनते हैं।


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