“प्रजा महर्षि यज्ञदीति को सर्वाधिक सम्मान देती है, यहाँ तक ठीक है महाराज! शिक्षक ही समाज का निर्माण करता है, इसलिये वह वस्तुतः सबसे अधिक आदर देने योग्य है, किन्तु आचार्यगण राजकीय व्यवस्था की आलोचना करें, यह सही नहीं। महाराज! शिक्षा राजनीति का आश्रित अंग है, राजनीति शिक्षा की आश्रित नहीं। शिक्षकों को राजतन्त्र की आलोचना करने या मार्ग-दर्शन करने का कोई अधिकार नहीं।” महामन्त्री आँत्रेष्टक आवेश में बोले चले जा रहे थे।
महाराज पिष्टिपाद ने रोकर पूछा- “तुम्हारा आशय क्या है, महामन्त्री, वह कहो- क्या तुम यह चाहते हो कि आचार्य यज्ञदीति के गुरुकुल में अध्यापन करने वाले आचार्यगणों को दण्डित किया जाये?”
नहीं महाराज! आँत्रेष्टक ने छलबाज जुआरी का सा विश्वस्त दाँव फेंकते हुये कहा- “मेरी ऐसी कुछ इच्छा नहीं पर यदि प्रजा ने राज्य के प्रति विद्रोह कर दिया तो? कैसे भी हो आचार्यों को राजनीति का आश्रित होना ही चाहिये। मेरा तो यह सुझाव भर है कि समस्त गुरुकुलों को दी जाने वाली राजकीय सहायता समाप्त कर दी जाये। जब भूख सतायेगी तो यह आचार्य अपने आप सीधे हो जायेंगे।
महाराज पिष्टिपाद कुछ चिन्तित स्वर में बोले- “यह न भूलो महामन्त्री तुम्हारी योग्यता भी इन गुरुकुलों की ही देन है। यदि उनके साधन समाप्त कर दिये गये तो आज देश में जो प्रतिभायें हैं, प्रज्ञाएं, तेजस्विता है, ज्ञान और विज्ञान है, वह नष्ट हो जायेगा।
राज्य को अराजकता से बचाने और आपके सम्मान को सुरक्षित रखने के लिये यदि प्रतिभाओं के स्त्रोत बन्द करने पड़े तो बुरा क्या है महाराज!” महामन्त्री की यह तुष्टिकरण नीति आखिर काम कर गई। दाँव ठिकाने पर लगा। पिष्टिपाद ने घोषणा करा दी - अब आगे किसी भी गुरुकुल को राजकीय सहायता नहीं मिलेगी। अब तक दी गई सारी गायें, अन्न और वस्त्र छीन, अविलम्ब लौटा दिए जाएं।
देखते ही देखते आश्रमों के सारे साधन छिन गये। स्थिति गम्भीर हो चली। विद्यार्थियों का भरण-पोषण तो भिक्षाटन से किया जा सकता था पर आचार्य क्या करते?
महर्षि यज्ञदीति की अध्यक्षता में आचार्यों का सम्मेलन बुलाया गया। सर्वसम्मति से यह निश्चित किया गया कि महर्षि स्वयं ही महाराज के पास जायें और उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत कराकर राजकीय-वृत्ति पुनः प्रारम्भ करायें।
महर्षि यज्ञदीति गये भी किन्तु महामन्त्री आँत्रेष्टक की धूर्तता के आगे उनकी एक न चली। यज्ञदीति राजधानी से खाली हाथ लौटे। पर मार्ग में उन्होंने निश्चय कर लिया- “शिक्षा प्रजा की अपनी आवश्यकता है, राजतन्त्र के दबाव में उसे नष्ट नहीं किया जा सकता। प्रजा उस आवश्यकता को अनुभव करेगी तो स्वयं ही आगे बढ़कर सहायता करेगी। गुरुकुल बन्द कदापि नहीं होंगे। देश को निरक्षरता के कलंक में धकेला नहीं जायेगा।
यज्ञदीति यही सोचते हुये जैसे ही अपने पर्णकुटीर में पहुँचे देखा कि उनका नन्हा-सा बालक पृथ्वी पर लोट रहा है। क्षुधार्त बालक माँ के समझाने से भी नहीं मान रहा। मानता कैसे आज कई दिनों से पर्याप्त भोजन न मिलने के कारण उनके स्तनों में भी तो दूध नहीं आ रहा था।
यज्ञदीति की आंखें भर आईं- “जो सारे समाज का हित-चिन्तन करते हैं, समाज क्या उन्हें इसी स्थिति में रखेगा।” पर वे मनस्वी महात्मा थे। परिस्थितियों से विचलित होना यज्ञदीति के स्वभाव में नहीं था। उन्होंने धर्मपत्नी के कान में कुछ कहा- “पत्नी भीतर गई और एक कटोरे में कुछ ले आई, बच्चे ने प्रसन्नतापूर्वक दूध पी लिया और खेलने गया। उस बेचारे को क्या पता था कि श्वेत रंग दिया हुआ तरल पदार्थ दूध नहीं चावल के आटे का घोल है।
आचार्य गण पिष्टिपाद के निर्णय से बड़े निराश हुये पर गुरुकुल बन्द न किये जायें, इस बात पर सब एकमत थे। प्रातःकाल सभी विद्यार्थियों को भिक्षाटन के लिये भेजा गया। किन्तु प्रजा ने कहा- “जो शिक्षा बालकों को भिखारी बनाती है, उस शिक्षा से अच्छा है, बच्चे अनपढ़ घरों में रहकर परिश्रम से उपार्जित अन्न ग्रहण करें। भीख माँगना मानवीय शक्ति और परमात्मा का अपमान करना है। अध्यात्म, धर्म, शिक्षा और संस्कृति के नाम पर उस अनात्म कृत्य का पोषण नहीं किया जा सकता।
ब्रह्मचारी खाली हाथ गये थे और लौटे तब भी हाथ खाली ही निकले। एक बार तो ऐसा लगा कि अब विद्यालय बन्द हो जायेंगे। किन्तु आचार्य अभी भी साहस हारने को तैयार न थे। राज्य की शिक्षा और संस्कार परम्परा को बनाये रखने के लिये वे प्रत्येक तितिक्षा पर कसे जाने के लिये तैयार थे।
विद्यार्थियों के लिये यह नियम बनाया गया कि अपनी व्यवस्था के लिये वे अपने अभिभावकों का आश्रय लें। इधर आचार्यों ने अपने लिये आश्रम में ही फल-फूल, शाक और अन्न उगाकर पेट पालन करना प्रारम्भ कर दिया। मुसीबतें आईं पर विद्यालय एक दिन के लिये भी बन्द न हुये। आचार्य कौपीन पहन कर रहने लगे पर अध्यापन एक दिन भी बन्द न किया। आचार्य पत्नियों के पास जो मंगल-सूत्र थे, विक्रय कर आश्रम के लिये गायें मंगा ली गईं, उनके दाने-चारे का प्रबन्ध भी वे स्वतः करने लगीं पर उन्होंने आचार्यों के अध्ययन व अध्यापन में थोड़ी भी रुकावट न आने दी।
अभाव तो आखिर अभाव ही थे। आश्रमों के पास इतनी भूमि भी तो नहीं थी कि उससे आचार्यों और उनके आश्रित स्त्री-बच्चों को पेट भर अन्न मिलता रहता। महर्षि यज्ञदीति समय निकालकर स्वयं भी जंगल जाया करते और बन पड़ता उतनी सूखी लकड़ियां काटकर लाया करते। यह कार्य वे दूसरों की आँख बचाकर करते, जिससे विद्यार्थियों के अध्ययन में अवरोध न आने पाये।
शरीर कृश पहले ही था, भूख ने रही सही शक्ति भी तोड़ दी। यज्ञदीति ने लकड़ी का बोझ उठा तो लिया, किन्तु दो पग भी आगे नहीं बढ़ सके। आँखों के आगे अंधेरा छा गया, पैर लड़खड़ा गये और वे वहीं सिर के बल गिर पड़े।
देखते-देखते ग्रामवासियों की भीड़ एकत्रित हो गई। जल के छींटे लगाये गये। महर्षि की चेतना लौटी पर थी वह शून्य में ही। वे बुदबुदाये- “हे प्रभु! जब तक शिक्षा और संस्कृति के आधार यह गुरुकुल स्वावलम्बी और साधन सम्पन्न नहीं हो जाते, तब तक मैं बार-बार जन्म लेता रहूँ। बार-बार गुरुकुलों की सेवा करता रहूँ।” इन शब्दों के साथ ही महर्षि यज्ञदीति ने अपना यह नश्वर शरीर छोड़ दिया।
ग्राम वासियों और नगर-निवासियों में यह समाचार वर्षाकालीन मेघों के समान सर्वत्र, पल भर में फैल गया। एक ओर चिता प्रज्ज्वलित हो रही थी, उस पर महर्षि का पार्थिव शरीर फूँका जा रहा था, दूसरी ओर प्रजा साधनों से आश्रमों के आँगन पाट रही थी। लोगों ने संकल्प कर लिया था- शिक्षा और संस्कृति हमारी अपनी आवश्यकता है, राजतन्त्र उसे सहायता नहीं देता तो न दे पर हम नागरिक उन्हें साधन-हीन नहीं रहने देंगे।