सूक्ष्म शरीर का आणविक विश्लेषण

March 1970

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बच्चा प्रश्न करता है- “माँ! भगवान राम या कृष्ण के मुख-मण्डल पर गोलाकार प्रकाश की आभा क्यों दिखाई जाती है? प्रकाश तो दीपक से ही निकलता है, सूर्य अथवा चन्द्रमा से भी निकलता है, फिर मनुष्य के मुख मण्डल से दर्शाया जाने वाला प्रकाश क्या है”? माँ जानती नहीं, कोई निश्चित उत्तर नहीं दे पाती और इस तरह महापुरुषों के मुखमण्डल पर दिखने वाले तेजोवलय का रहस्य- रहस्य ही बना रह जाता है।

महापुरुषों के मुख मण्डल पर ही नहीं, इस तरह का प्रकाश प्रत्येक मनुष्य के शरीर से प्रतिक्षण स्फुरित होता रहता है। परमाणु विज्ञान जानने वाले लोगों को पता होगा कि प्राकृतिक पदार्थ अत्यन्त सूक्ष्म परमाणुओं से बने हैं। पदार्थ के परमाणु के मूल में जब हम प्रवेश करते हैं तो पता चलता है कि वहाँ भी सूर्य की सी चमक वाला एक सितारा विद्यमान है, उसे नाभिक, केन्द्रक या नाभि-केन्द्र (न्यूक्लियस) कहा जाता है। अणु आवेश की दृष्टि से पूर्ण उदासीन होता है अर्थात् न तो उसमें धन आवेश होता है, न ऋण आवेश। किन्तु केन्द्रक स्थित प्रोटान, अर्थात् धन आवेश अणुओं और केन्द्रक के आस-पास चक्कर काटने वाले इलेक्ट्रानों अर्थात् ऋण आवेश अणुओं का सन्तुलन रखने में उसका हाथ होता है। यदि परमाणु के भीतर का यह सन्तुलन बिगड़ जाता है तो उसका विस्फोट हो जाता है, उसमें कितनी जबर्दस्त शक्ति होती है, हिरोशिमा प्रकरण से यह बात सारा संसार भलीभाँति जान गया है।

इसी बात को जब हम प्राण-धारी के ऊपर लागू करते हैं तो पता चलता है कि उसमें कोई एक अति विचारशील सत्ता काम कर रही है। यदि उसके अच्छे या बुरे दोनों भावों को निकाल दें तो मनुष्य एक प्रकार का मननशील पदार्थ ही है। महापुरुषों के मुख-मण्डल पर दिखाई देने वाला यह तेजोवलय उस विचार-सत्ता की तीव्र इच्छा-शक्ति, विचार-शक्ति या दिव्य संकल्प-शक्ति का ही प्रतीक है। उसे ही इच्छा शरीर कह सकते हैं, क्योंकि यह प्रकाश-अणु केवल मुख-मण्डल से ही प्रस्फुटित नहीं होते वरन् सम्पूर्ण शरीर से प्रस्फुटित होते रहते हैं। अमेरिका की सुप्रसिद्ध अध्यात्म साधिका श्रीमति डॉ. जे. सी. ट्रस्ट ने इस प्रकार स्फुरित होने वाले प्रकाश अणुओं को मानव-अणु नाम दिया है।

इन अणुओं की शक्ति का पता लगाना हो तो हमें भगवान राम, कृष्ण, गौतम बुद्ध, शंकराचार्य, ईसा आदि महापुरुषों का जीवन चरित्र अध्ययन करना होगा। इन मानव अणुओं में परमाणु विस्फोटक से भी अधिक करोड़ों व्यक्तियों को बदल डालने वाली सामर्थ्य होती है।

उस समय तक वैज्ञानिक 95 भौतिक तत्वों की ही खोज कर सके थे, मानव के शरीर के इन सूक्ष्म प्रकाश अणुओं के बारे में उनमें से किसी ने भी नहीं सोचा था, इसलिये इस तथ्य का बड़ा उपहास किया गया, किन्तु बाद में संसार के सभी वैज्ञानिकों ने माना कि मनुष्य के शरीर में सचमुच ऐसे प्रकाश-अणु विद्यमान हैं, जो विद्युत चुम्बकीय रसायन-पदार्थ निकालते रहते हैं। उसी से केवल उनकी उपस्थिति का निश्चय होता है।

सूक्ष्मदर्शी भारतीय तत्व-दर्शियों ने यह बात डॉ. जे.सी. ट्रस्ट से भी हजारों वर्ष पहले मालूम कर ली थी। 84 लाख जीवों का अस्तित्व 84 लाख प्रकार के मानव-अणुओं की ही खोज है। यह बात डॉ. जे. सी. ट्रस्ट ने भी अपनी पुस्तक ‘अणु और आत्मा’ (एटम एण्ड सोल) में स्वीकार की है कि मानव-अणुओं की प्रकाश-वाष्प न केवल मनुष्यों में वरन् अन्य जीव-धारियों, वृक्ष-वनस्पति, औषधि आदि में भी होती है। यह प्रकाश अणु ही जीवधारी के यथार्थ शरीरों का निर्माण करते हैं खनिज पदार्थों से बना मनुष्य या जीवों का शरीर तो अभी तक स्थिर रहता है, जब तक यह प्रकाश-अणु शरीर में रहते हैं। इन प्रकाश अणुओं के हटते ही स्थूल शरीर बेकार हो जाता है, फिर उसे जलाते या गाड़ते ही बनाता है। खुला छोड़ देने पर तो उसकी सडाँद से उसके पास एक क्षण भी ठहरना कठिन हो जाता है।

स्वभाव, संस्कार, इच्छायें, क्रिया-शक्ति यह सब इन प्रकाश अणुओं का ही खेल है। हम सब जानते हैं कि प्रकाश का एक अणु (फोटान) भी कई रंगों के अणुओं से मिलकर बना होता है। मनुष्य शरीर की प्रकाश आभा भी कई रंगों से बनी होती है। डॉ. जे. सी. ट्रस्ट ने अनेक रोगियों, अपराधियों तथा सामान्य व श्रेष्ठ व्यक्तियों का सूक्ष्म निरीक्षण करके बताया है कि जो मनुष्य जितना श्रेष्ठ और अच्छे गुणों वाला होता है, उसके मानव-अणु दिव्य तेज और आभा वाले होते हैं, जबकि अपराधी और रोगी व्यक्तियों के प्रकाश अणु क्षीण और अंधकारपूर्ण होते हैं। उन्होंने बहुत से मनुष्यों के शरीरों के काले धब्बों को अपनी दिव्य दृष्टि से देखकर उनके रोगी या अपराधी होने की बात को बताकर लोगों को स्वीकार करा दिया था कि सचमुच रोग और अपराधी मनोवृत्तियाँ काले रंग के अणुओं की उपस्थिति का प्रतिफल होते हैं, मनुष्य अपने स्वभाव में चाहते हुये भी तब तक परिवर्तन नहीं कर सकता, जब तक यह दूषित प्रकाश-अणु अपने अन्दर विद्यमान् बने रहते हैं।

यही नहीं जन्म-जन्मान्तरों तक खराब प्रकाश अणुओं की यह उपस्थिति मनुष्य से बलात् दुष्कर्म कराती रहती है, इस तरह मनुष्य पतन के गड्ढे में बार-बार गिरता और अपनी आत्मा को दुःखी बनाता रहता है। जब तक यह अणु नहीं बदलते या निष्क्रिय होते तब तक मनुष्य किसी भी परिस्थिति में अपनी दशा नहीं सुधार पाता।

यह तो है कि अपने प्रकाश अणुओं में यदि तीव्रता है तो उसमें दूसरों का आकस्मिक सहायता दी जा सकती है। रोग दूर किये जा सकते हैं। खराब विचार वालों को कुछ देर के लिये अच्छे सन्त स्वभाव में बदला जा सकता है। महर्षि नारद के सम्पर्क में आते ही डाकू बाल्मीकि के प्रकाश अणुओं में तीव्र झटका लगा और वह अपने आपको परिवर्तित कर डालने को विवश हुआ। भगवान् बुद्ध के इन प्रकाश अणुओं से निकलने वाली विद्युत विस्तार सीमा में आते ही डाकू अंगुलिमाल की विचार धारायें पलट गई थीं। ऋषियों के आश्रमों में गाय और शेर एक घाट पानी पी आते थे, वह इन प्रकाश अणुओं की ही तीव्रता के कारण होता था। उस वातावरण से निकलते ही व्यक्तिगत प्रकाश अणु फिर बलवान् हो उठने से लोग पुनः दुष्कर्म करने लगते हैं इसलिये किसी को आत्म-शक्ति या अपना प्राण देने की अपेक्षा भारतीय आचार्यों ने एक पद्धति का प्रसार किया था, जिसमें इन प्रकाश-अणुओं का विकास कोई भी व्यक्ति इच्छानुसार कर सकता था। देव उपासना उसी का नाम है।

उपासना एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है, जिसमें हम अपने भीतर के काले, मटमैले और पापाचरण को प्रोत्साहन देने वाले प्रकाश-अणुओं को दिव्य तेजस्वी, सदाचरण और शाँति एवं प्रसन्नता की वृद्धि करने वाले मानव अणुओं में परिवर्तित करते हैं। विकास की इस प्रक्रिया में किसी नैसर्गिक तत्त्व, पिण्ड या ग्रह-नक्षत्र की साझेदारी होती है। उदाहरण के लिये जब हम गायत्री की उपासना करते हैं तो हमारे भीतर के दूषित प्रकाश अणुओं को हटाने और उनके स्थान पर दिव्य प्रकाश अणु भर देने का माध्यम “गायत्री का देवता सविता” अर्थात् सूर्य होता है।

वर्ण रचना और प्रकाश की दृष्टि से यह मानव-अणु भिन्न-भिन्न स्वभाव के होते हैं। मनुष्य का जो कुछ भी स्वभाव आज दिखाई देता है, वह इन्हीं अणुओं की उपस्थिति के कारण होता है, यदि इस विज्ञान को समझा जा सके तो न केवल अपना जीवन शुद्ध, सात्विक, सफल, रोग-मुक्त बनाया जा सकता है, वरन् औरों को भी प्रभावित और इन लाभों से लाभान्वित किया जा सकता है। परलोक और सद्गति के आधार भी यह प्रकाश-अणु या मानव अणु ही हैं।

महान् शक्तियों यथा राम, कृष्ण,बुद्ध, ईसा, मोहम्मद, गुरु नानक आदि के मुख-मण्डल पर प्रदर्शित प्रकाश-वलय इस बात के प्रतीक हैं कि उन्होंने अपने आपके उन सभी अन्य प्रकार के अणुओं को निकाल या नष्ट कर दिया है, जो अज्ञान और पाप मूलक हो सकते हैं। उनमें दिव्य प्रकाश की उपस्थिति उनकी सर्वशक्ति सत्ता, सबके मन में प्रविष्ट होकर अंतरंग की जान लेने की क्षमता, किसी भी रोगी को अच्छा और आचरणहीन व्यक्ति को दंड देने की शक्ति का आधान उनमें हो चुका होता है। यह कोई अवैज्ञानिक तथ्य नहीं वरन् प्रकाश-अणुओं के विकास की प्रक्रिया मात्र है और उस अभ्यास को करके कोई भी व्यक्ति इन सत्यों की अनुभूति अपने वर्तमान जीवन में ही कर सकता है। क्योंकि प्रकाश ही एक ऐसी सत्ता है, जो न केवल देखती, सुनती वरन् विचार और प्रज्ञाएं एकत्रित करता है। मस्तिष्क के वह सभी केन्द्र जिनमें देखने, सुनने, सूँघने आदि की क्रियायें सम्पन्न होती हैं। प्रकाश परमाणुओं से ही बने होते हैं, इसलिये मानना पड़ता है कि प्रकाश के कुछ कण ऐसे हो सकते हैं, जो अन्तरंग अनुभूति की क्षमता से भी सम्पन्न हों। अनेक प्रकार के अनजाने ज्योति स्रोतों (क्वासार) आदि की खोज ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि प्रकाश के भिन्न और क्रमशः अधिक दिव्य केन्द्र ब्रह्मांड में विद्यमान हैं।

आत्मा या चेतना शक्ति जिन अणुओं से अपने को अभिव्यक्त करती है, वह यह प्रकाश अणु ही हैं, जबकि आत्मा स्वयं उनसे भिन्न है। प्रकाश-अणुओं को प्राण, विधायन शक्ति, अग्नि, तेजस कहना चाहिये, वह जितने शुद्ध दिव्य और तेजस्वी होंगे व्यक्ति उतना ही महान् तेजस्वी, यशस्वी, वीर, साहसी और कलाकार होगा। महापुरुषों के तेजोवलय उसी बात के प्रतीक हैं, जबकि निकृष्ट कोटि के व्यक्तियों में यह अणु अत्यन्त शिथिल, मन्द और काले होते हैं। हमें चाहिये कि हम इन दूषित प्रकाश-अणुओं को दिव्य अणुओं में बदलें और अपने को भी महापुरुषों की श्रेणी में ले जाने का यत्न करें।

(क्रमशः)


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