एक दिन भिक्षु संगाम जी ने भगवान् बुद्ध से पूछा- भगवन्! संसार के प्रमाद में पड़े हुये की क्या पहचान है? भगवान् बुद्ध ने तत्काल कोई उत्तर न दिया। और और बातें करते रहे।
एक दिन कुण्डिया नगर की कोलिय पुत्री सुप्पवासा के यहाँ उनका भोज था। सुप्पवासा सात वर्ष तक गर्भ धारण करने का कष्ट भोग चुकी थी। भगवान् बुद्ध की कृपा से ही उसे इस कष्ट से छुटकारा मिला था, इसी प्रसन्नता में वह भिक्षु संघ को भोज दे रही थी।
जब सुप्पवासा तथागत को भोजन करा रही थी, उसका पति नवजात शिशु को लिये पास ही खड़ा था। सात वर्ष तक गर्भ में रहने के कारण बालक जन्म से ही विकसित था। देखने में अति सुन्दर। उसके हँसने और क्रीड़ा करने की गतिविधियाँ बड़ी मनमोहक थीं। बार-बार माँ की गोद में जाने के लिये मचल रहा था।
भगवान् बुद्ध ने मुस्कराते हुये पूछा-बेटी सुप्पवासा! तुझे ऐसे-ऐसे पुत्र मिलें तो कितने और पुत्रों की कामना तू कर सकती है।
सुप्पवासा ने कहा- “भगवन्! ऐसे सात पुत्र हों तो अच्छा है।”
संगाम जी बगल में ही बैठे थे। कल तक जो प्रसव पीड़ा से बुरी तरह व्याकुल थी, आज फिर पुत्रों की कामना कर रही है, यह देखकर संगाम जी बड़े आश्चर्यचकित हुये।
बुद्ध ने हँसकर कहा- संगाम जी चौंकिये मत, तुम्हारे कल के प्रश्न का उत्तर यही तो है।