अणु विकरण की विभीषिका और यज्ञ

March 1970

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अमेरिका की अणु-अनुसन्धान संस्था के समीप ही एक फार्म में बहुत-सी भेड़ें पाली गई थीं। आये दिन के प्रयोगों से उत्पन्न रेडियो-धूलि के फलस्वरूप उनमें से 6000 भेड़ें मर गईं। जब उसकी जाँच की गई तो पता चला यह सब रेडियो धर्मी कणों के विषैले प्रभाव के कारण था। उत्तरी व दक्षिणी ध्रुवों में पाये जाने वाले पेन्गुइन पक्षियों पर भी यह कण पाये गये, तभी से वहाँ के वैज्ञानिकों की अणु-धूलि के बारे में चिन्ता बढ़ी।

अणु-बम विस्फोट किए जाते हैं, तब उसमें से बम में प्रयुक्त विभिन्न विषैले तत्वों के धुयें का बादल छा जाता है, यह धुआँ कुछ देर में वायु-मण्डल में घुल-मिल जाता है, पीछे धुएं के विषैले परमाणु जमीन, वृक्ष-वनस्पति और विभिन्न जीव-जन्तुओं के शरीरों में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों तरह से पहुँच जाते हैं, इन्हीं विषैले परमाणुओं को अणु-धूलि कहते हैं और आज सारा संसार इस अणु-धूलि के दुष्प्रभाव से इतना अधिक चिन्तित है, जितना मशीनों के धुएं, बढ़ती हुई जनसंख्या आदि के कारण भी नहीं।

1963-64 में चीन ने परमाणु बम का विस्फोट किया, तब जापान आदि पड़ौसी देश बुरी तरह चिन्तित हो गये थे। भारत के अणु शक्ति विभाग ने उक्त विस्फोट के नियन्त्रण और परिणाम जानने के लिये, अपने नौ हजार से अधिक प्रशिक्षित कर्मचारी लगाये थे। 730 विभिन्न स्थानों पर विकिरण और रेडियो सक्रियता की जाँच की गई, सभी तरह के खाद्य-पदार्थों का निरीक्षण भी किया गया और उसके बाद यह सूचना प्रसारित की गई थी कि देश में खाद्य-पदार्थों में रेडियो सक्रियता की मात्रा काफी कम हो गई है, इसलिये उससे स्वास्थ्य को इतना खतरा नहीं है।

सूचना में प्रसारित उपरोक्त सन्देश की शब्दावली यह बताती है कि इस सम्बन्ध में वैज्ञानिक या तो राजनैतिक दबाववश अथवा प्रजा को भय से बचाने के लिये मूल तथ्यों को ज्यों का त्यों नहीं प्रकाशित करना चाहते पर वे इस बात से इनकार भी नहीं कर सकता है यह अणु-धूलि मानव-जाति के लिए एक गम्भीर समस्या है।

इसके बाद चीन ने तीसरे परमाणु बम का विस्फोट किया, उधर निशस्त्रीकरण की दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई, तब संसार के सभी विचारशील लोगों और वैज्ञानिकों में भी मानव-जाति के कल्याण की करुणा जागृत हुई और निश्चित रूप से उन्होंने बताना प्रारम्भ किया कि अणु-बमों के प्रयोग ही घातक नहीं वरन् उनके परीक्षण भी कम विनाशक नहीं। यदि मानव-जाति के अस्तित्व को बनाये रखना है तो न केवल संसार में विज्ञान की विघातक प्रगति को रोका जाये वरन् मानवता का पोषण करने वाले भावों, संस्थाओं और आयोजनों का तीव्रगति से प्रसार भी किया जाये। हमें इतने भर से ही सन्तुष्ट नहीं हो जाना चाहिये, अब तक जो विस्फोट हो चुके हैं, उनके दुष्प्रभाव से बचने का ऐतिहात भी बरतना आवश्यक है। सावधानी न रखी गई जो उसका कुफल मानव-जाति पर व्यापक महामारियों के प्रकोप, राजरोग जैसे तपेदिक, कैंसर, यकृत के रोग और स्नायविक दुर्बलता के कारण कानी-कुबड़ी, बौनी और मानसिक दृष्टि से पूरी नहीं तो अर्द्ध-विक्षिप्त अवश्य होगी।

बम विस्फोट के कारण जो विषैले तत्वों का धुआँ उठता है, उसमें स्ट्रेशियम-90 वृक्ष-वनस्पतियों पर सबसे अधिक असर डालता है। एक बार के विस्फोट के बाद यह 27 वर्ष तक वायु-मंडल में बना रहता है, जबकि आयोडीन 131 एक सप्ताह और दूसरे तत्व भी इससे कुछ ही दिन बाद धुल जाते हैं पर यह मात्रा रहती पृथ्वी में ही है, इसमें सन्देह नहीं। यह विषैला तत्व शाक-फल, अन्न, दूध आदि के द्वारा सीधे और पशुओं के शरीर से होकर भी हमारे अन्दर पहुँच रहा है। छोटे बच्चों के पोषण के लिये आवश्यक तत्वों में कैल्शियम सबसे पहला है, यह कैल्शियम भी अधिकाँश दूध और फलों से ही मिलता है। यों दूध शक्ति-वर्द्धक खाद्य है पर उसमें पहले भी स्ट्रेशियम पाया जाता है। वृक्ष-वनस्पति के माध्यम से पशुओं के दूध में और उस दूध के पीने से बच्चों के शरीर में स्ट्रेशियम की मात्रा बढ़ेगी तो भावी पीढ़ी का क्या बनेगा? इस चिन्ता से भारत के अणु शक्ति विभाग ने वह जानकारियाँ दीं, जिनका व्यवहार अणु सक्रियता के प्रभाव से अधिक से अधिक बचाने में सहायक हो।

यह प्रभाव दूध में ही नहीं है, प्रत्येक खाद्य में है। इसलिये वैज्ञानिकों के अनुसार प्रत्येक फल और साग को अच्छी तरह धोकर और उनका छिलका उतारकर ही खाना चाहिये। आलू में यह प्रभाव अधिकाँश छिलके पर रहता है, इसलिये सब्जियों में आलू की मात्रा बढ़ाकर ली जाये पर उसे अच्छी तरह धो लेना तथा छिलका उतार कर ग्रहण करना आवश्यक है। यदि यह स्ट्रेशियम शरीर में चला जाता है तो कैंसर जैसे भयंकर रोग हो जाने का खतरा बना रहेगा।

दूध का स्ट्रेशियम के प्रभाव से बचाने के लिये वैज्ञानिक एक यन्त्र भी बना रहे हैं पर फिलहाल के लिये उनकी यह चेतावनी नोट करने की है कि यदि बच्चों को अणु सक्रियता के दोष से बचाना है तो मातायें उन्हें ऊपरी दूध पिलाने की अपेक्षा अपने स्तनों का ही दूध पिलाना प्रारम्भ कर दें। खुरदरे छिलके वाले फल जैसे अनानास, अमरूद, अंजीर पर यह धूलि अधिक जमा होती है, चिकने फलों पर कम इसलिए खुरदरे फल कम मात्रा में लिये जायें, लेना ही हो तो छिलका अवश्य उतारा जाय।

संयुक्त राष्ट्र संघ की संरक्षकता में चाय पर जब इस रेडियो सक्रियता का अध्ययन किया गया तो पता चला कि यह सबसे अधिक शीघ्र प्रभावित होने वाली पत्ती है। चाय स्ट्रेशियम के प्रभाव को शीघ्र ग्रहण कर लेती है। दुर्भाग्य से चाय भारत में सबसे अधिक उत्पन्न होती है और उसका प्रयोग भी दिन प्रति दिन बढ़ रहा है। चाय के प्रयोग को जितना बन पड़े कम किया ही जाना चाहिये।

इन सब आहार सम्बन्धी सावधानियों, संयम और भरपूर परिश्रम के द्वारा शरीर की जीवन-शक्ति को स्थिर और शुद्ध बनाये रखा जा सकता है और रखना पड़ेगा पर वातावरण के प्रभाव को किस तरह रोकना सम्भव होगा, यह प्रश्न थोड़ा जटिल और अधिक गम्भीर है।

‘आकाश बदल रहा है’ शीर्षक से अक्टूबर 68 की ‘प्लनट्रथु’ पत्रिका ने वैज्ञानिकों की चेतावनी इस तरह छापी है- “अणु सक्रियता बढ़ जाने से सन् 2000 तक सारे संसार का तापमान 2 डिग्री सेन्टीग्रेड बढ़ जायेगा, उससे आज के बर्फ से जमे ध्रुव प्रदेश पिघल पड़ेंगे। समुद्र ऊँचा हो जायेगा। बन्दरगाह डूब जायेंगे।”

ताप और वायु दाब को नियन्त्रित रखने के साथ आकाश को दूषित तत्वों से बचाने की हमारी चिन्ता स्वाभाविक है पर उसके लिये कोई औषधि कोई दवादारु काम न करेगी। इन गम्भीर परिस्थितियों में हमें एक बार पुनः ऋषियों की इस मंत्रणा की ओर लौटना पड़ेगा-

मुँचामि त्वा हविषा जीवनाय कमज्ञातयक्ष्मादुत राजयक्ष्मात। ग्राहिर्जग्राह यद्येतदेनं तम्या इंद्राग्नी प्र मुमुक्त मेनम्॥

-अथर्व वेद 3 11

अर्थात् -मेरी संतानों! तुझे अज्ञात और क्षय रोगों से मुक्ति दिलाने के लिये इन्द्राग्नी, विद्युत, अग्नि, वायु सूर्य ही समर्थ हैं (अर्थात् शुद्ध वायु-मंडल में ही तू स्वस्थ रह सकता है) इसलिये तू हवन कर इन शक्तियों को जागृत कर और नीरोग बन।

रेडियो धूलि की मारक शक्ति बड़ी गम्भीर है, उसे यज्ञ जैसे महान् अनुष्ठान से ही सुधारा जा सकता है, इसलिये अगले दिनों न केवल आहार-विहार का संयम और नियंत्रण आवश्यक होगा वरन् यज्ञीय प्रक्रिया का भी तेजी से विस्तार करना पड़ेगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118